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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
जनता विज्ञान और वैज्ञानिकों को घृणा की दृष्टि से देखती थी, उसका विचार था वैज्ञानिक अनुसंधान धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा के प्रतिकूल है तथा विज्ञान से नास्तिकता बढ़ती है। आज भी कहीं-कहीं कुछ ऐसी विचारधारा जनता में दृष्टि गोचर होती है। अहिंसा और विज्ञान दोनों ने ही मानव के उत्थान में पूर्ण सहयोग दिया है | अहिंसा आंतरिक सहयोग देती है तो विज्ञान बाह्य । अहिंसा मानव की मानसिक एवं आत्मिक उन्नत करती है तो विज्ञान भौतिक उन्नति । अहिंसा से आध्यात्मिक विकास होता है तो विज्ञान से बौद्धिक एवं भौतिक विकास । आज मनुष्य को भौतिक सुख-शांति की जितनी आवश्यकता है उससे भी अधिक आवश्यकता है मानसिक सुख-शांति की । मनुष्य कितना ही धनवान हो, कितना ही ऐश्वर्य सम्पन्न और समृद्धिवान हो, परंतु वह भी मानसिक शांति के लिये भटकता देखा गया है। इसी प्रकार यदि मनुष्य समाज में सामान्य स्थान प्राप्त करके जीवन यापन करता है, तो उसे सांसारिक सुख-शांति भी आवश्यक है। अतः संसार में अहिंसा और विज्ञान दोनों ही मानव कल्याण के लिये आवश्यक तत्त्व हैं और हमेशा रहेंगे। यह दूसरी बात है कि किसी काल विशेष में अहिंसा की प्रधानता होगी, तो किसी में विज्ञान की ।
अहिंसा और विज्ञान का पारस्परिक संबंध
एकांगी उन्नति पूर्ण उन्नति नहीं की जाती। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति के लिये हृदय और बुद्धि की समानता चाहिये। कोरी भावुकता या ज्ञान की कोरी नीरसता मानव त का कल्याण नहीं कर सकती । मानव जाति के समुचित विकास के लिये हृदय और बुद्धि का समन्वय चाहिये। हृदय अर्थात् अहिंसा व बुद्धि अर्थात् विज्ञान। जिस प्रकार गृहस्थ जीवन के स्त्री और पुरुष दो पहिये कहे जाते हैं, उसी प्रकार मानव जीवन की उन्नति के दो पहिये हैं- अहिंसा और विज्ञान। दोनों में से किसी एक अकेले से गाड़ी नहीं चल सकती। समाज के सहृदय तथा भावुक व्यक्तियों की आनंदमयी एवं लोकहितकारिणी भावनाओं की संचित निधि ही अहिंसा है तथा समाज के तार्किक एवं बुद्धि प्रधान अन्वेषकों द्वारा खोजे हुए चमत्कारिक सत्यों का अक्षुण्ण भंडार ही विज्ञान है । मानव समाज का आध्यात्मिक विकास अहिंसा है तो भौतिक विकास विज्ञान | अहिंसा व विज्ञान एक-दूसरे पर आश्रित हैं। जिस प्रकार बिना आत्मा शरीर का और बिना शरीर आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार अहिंसा और विज्ञान परस्परावलम्बित हैं। दोनों एक-दूसरे की पूरक शक्तियां हैं। अहिंसा का विकास मानव समाज की भावनाओं का प्रसार एवं परिष्कार करता है और विज्ञान मानव जाति को भौतिक उन्नति की ओर अग्रसर करता है। अहिंसा मानव जाति की भौतिक उन्नति में सहायक नहीं होती और विज्ञान मनुष्य की आध्यात्मिक एवं मानसिक उन्नति में सहायक नहीं होता। भौतिक तथा आध्यात्मिक विकास के समन्वय से ही मनुष्य जाति
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