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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
जीवन किसी एक प्राणी के भीतर है वही दूसरे प्राणी में भी विद्यमान है। सबके भीतर एक ही जीवन व्याप्त है, तब दूसरे को दुःख देना वस्तुतः स्वयं को ही दुःख देना है। अतः इस दुःख से बचने के लिए अहिंसा अनिवार्य है। वस्तुओं का स्वरूप देखने के लिए जैन आचार्यों ने निश्चय और व्यवहार इन दो दृष्टियों का उपयोग किया है। व्यवहार-दृष्टि वस्तु का बाह्य स्वरूप देखती है और निश्चय-दृष्टि उसका आन्तरिक स्वरूप। व्यवहार-दृष्टि में लौकिक व्यवहार की प्रमुखता होती है और निश्चय-दृष्टि में वस्तुस्थिति की। व्यवहार-दृष्टि के अनुसार प्राणवध हिंसा है और प्राणवध नहीं होना, अहिंसा है।
'हमारा वैज्ञानिक ज्ञान बढ़ेगा उसके अनुसार हमारा अहिंसा का आँकलन भी बढ़ना चाहिए और उसके अनुसार आचार धर्म में सूक्ष्मता भी आनी चाहिए। साथसाथ अगर अनुभव से कोई बात गलत साबित हुई तो पुराने आधार धर्म बदलने भी चाहिए। अहिंसा धर्म रूढ़िधर्म नहीं है। वह वैज्ञानिक धर्म है। विज्ञान के द्वारा जैसेजैसे हमारा जीवन-विज्ञान, प्राणिविज्ञान बढ़ेगा वैसे-वैसे हमारा अहिंसा का आचार धर्म भी अधिकाधिक सूक्ष्म बनेगा। विशिष्ट प्राणी में या वस्तु में जीव है या नहीं, उसकी खोज तो होनी ही चाहिए। जैन तीर्थंकर और आचार्य के जीव-सृष्टि का विज्ञान जहाँ तक बढ़ा था उसके अनुसार उन्होंने अहिंसक धर्म का आचार धर्म कैसा होता है, यह बताया। वे लोग अपने जमाने के विज्ञाननिष्ठ थे।'
अहिंसा जैन धर्म का एक मुख्य आचार है। इसका आध्यात्मिक मूल्य तो है पर आज विज्ञान ने भी इस सिद्धान्त पर उपयोगिता की मुहर लगा दी है। वर्तमान समय में अहिंसा का अर्थ केवल पारलौकिक ही नहीं रह गया, अपितु प्रत्यक्ष जीवन के साथ उसका गहरा अर्थ समझ में आने लगा है। आज विज्ञान पृथ्वी आदि भूतों के उपयोग के बारे में जिस दृष्टि से विचार करने लगा है उससे जैन धर्म की अहिंसा को एक नया आयाम मिला है। यद्यपि जैन धर्म जहाँ प्राणविनाश की दृष्टि से अहिंसा पर विचार करता है वहाँ विज्ञान उस पर प्रदूषण की दृष्टि से विचार कर रहा है। जैन धर्म जहाँ प्राणिमात्र की दृष्टि से अहिंसा पर विचार करता है वहाँ विज्ञान केवल मनुष्य की दृष्टि से विचार करता है। किन्तु परिमाण की दृष्टि से दोनों एक ही केन्द्र पर आकर मिल जाते हैं।
महात्मा गाँधी ने अहिंसा का अर्थ बताते हुए कहा है - 'ऐसी हिंसा जिसमें युद्ध तो होता है, परन्तु हथियारों से नहीं अच्छाई-बुराई से होता है, जिसमें मनुष्य मृत्यु को नहीं एक नवीन जन्म प्राप्त होता है, अहिंसा कहलाती है। गाँधीजी के अनुसार हिंसा पशु की और अहिंसा मानव की पहचान है।
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