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श्रमण, वर्ष ५९, अंक जनवरी-मार्च २००८
विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
छैल सिंह राठौड*
दर्शन की सभी (चार्वाक को छोडकर) शाखाओं में अहिंसा का निरूपण किया गया है। जैन दर्शन में पंचव्रत के अन्तर्गत अहिंसा को प्रधानता प्राप्त है -
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। तत्त्वार्थसूत्र
प्रमाद के योग से प्राणों को नष्ट करना हिंसा है और उस हिंसा से विरत होना ही अहिंसा नामक व्रत है। जैन धर्म-दर्शन का मूलमन्त्र रहा है - विचारों में अनेकान्त और आचार में अहिंसा। अहिंसा मानव जाति के अभ्युदय का सर्वोत्कृष्ट साधन है। अभ्युदय के साथ निःश्रेयस का भी आदि और अन्तिम साधन अहिंसा है। भारतीय संस्कृति के अद्यतन विकास तक, जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त एक स्वर से सराहनीय है वह है- 'अहिंसा'। अहिंसा हमारा राष्ट्रधर्म है, संस्कृति है, दर्शन है और लोक जीवन को सुखी बनाने का एक शाश्वत मन्त्र है।
'विविधं ज्ञानं विज्ञानम्।' तकनीकी तथा आधुनिक विज्ञान की समस्त शाखायें . विज्ञान में ही समाहित हैं। विज्ञान की शक्ति दो प्रकार की है :
१. रचनात्मक शक्ति २. विध्वंसात्मक शक्ति
विज्ञान, अहिंसा को साधन बनाकर अथवा साध्य बनाकर रचनात्मक शक्ति से मानव सभ्यता को समृद्ध बनाये यही उसका लक्ष्य होना चाहिए।
यदि विज्ञान हिंसा को साधन बना ले तो उसकी विध्वंसात्मक शक्ति हिरोशिमा और नागाशाकी जैसे परिणामों में परिणत होती हुई प्रतीत होगी।
मनुष्य की अपनी सीमायें हैं। वह जगत् की सर्जना नहीं कर सकता है। यदि वह जगत् की सृष्टि नहीं कर सकता तो हिंसा को साधन बनाकर जगत् का विध्वंस करने का उसे अधिकार भी नहीं है।
अहिंसा भारतीय चिन्तनधारा की एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा और भारतीय जीवन-शैली का एक विशिष्ट मूल्य है। अहिंसा ‘जीवन की एकता का सिद्धान्त' है। जो *९४३, केगल हाउस, गाधीपुरा, गली नं० ५, बी०जे०एस० कालोनी, जोधपुर
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