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८० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ के रूप में होना प्रारंभ हुआ। यदि यह उपयोजन अहिंसा के भाव पर आधारित होता तो परिणाम दूसरा होता। निःसंदेह विज्ञान की इस उपलब्धि का दुरुपयोग विवेकशून्यता का परिणाम है। हमलोग इसका दोष विज्ञान पर देते हैं। अगर विज्ञान नैतिक मूल्यों का सहारा ले और अपनी विवेकशीलता को जागृत बनाए रखे तो मानव दिग्भ्रमित होने से बच जाए। एक सुसंस्कृत और शान्त समाज की स्थापना होगी, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उक्ति चरितार्थ होगी।
जैन दर्शन में मान्य सिद्धान्त अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में विज्ञान को देखने की आवश्यकता है। अहिंसा-अहिंसा शब्द को रट लेने मात्र से अहिंसा का संस्कार नहीं होता। अहिंसा तत्त्व की जो सामाजिक उपादेयता है उसे जानना आवश्यक है। जो बात या कृति मुझे अपने लिए पसंद नहीं, वह मैं दूसरों के बारे में न करूँ यह विचार जरूरी है। सब आत्माएँ समान हैं। जिस प्रकार हम जीना चाहते हैं उसी प्रकार सभी जीव जीना चाहते हैं। इन प्रक्रियाओं को वैज्ञानिक ढंग से समझ कर प्रयोग में लाने की
आवश्यकता है। विज्ञान की प्रायोगिकता पर हिंसा का आरोप होगा लेकिन वह संकल्पी हिंसा है या नहीं इसे देखना जरूरी है। विज्ञान का उद्देश्य सत्य को यथार्थ रूप से जानने का है और अहिंसा सत्य में जीने की कोशिश हैं। तत्त्वज्ञान और विज्ञान दोनों भी समाज के लिए समान हितकर हैं, यदि दोनों का उपयोग विवेकपूर्वक किया जाए। विज्ञान और धर्म दोनों भी जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। इन्हें अलग-अलग करके देखना निश्चित ही विनाशक होगा। संदर्भ : १. सुनंदा कुमार का आलेख- 'वर्तमान संदर्भ में बुद्ध के दर्शन की प्रासंगिकता',
दार्शनिक त्रैमासिक, जनवरी-मार्च २००१ २. समणसुत्तं, १५३ ३. शर्मा, सुरेंद्रकुमारजी का आलेख- 'शाकाहार में मांसाहारा का घालमेल' राजस्थान
पत्रिका ४/१०/०३, सम्यग्दर्शन, नवम्बर ०३
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