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पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
डॉ० दीपक रंजन *
श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
पुरुषार्थ से सामान्यतः दो अर्थ लगाए जाते हैं - १. पुरुष का प्रयोजन और २. पौरुष अथवा पुरुष द्वारा किया गया प्रयत्न । ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन में पुरुषार्थ के दूसरे अर्थ पर अधिक महत्त्व दिया गया है। पुरुषार्थ को परिभाषित करते समय जैन संस्कृति में कहा गया है- 'पौरुषं पुनरिह चेष्टितम्' से तात्पर्य यह है कि मनुष्य यदि अपना प्रयोजन (जो मोक्ष है) प्राप्त करना चाहता है तो उसे इसके लिए स्वयं प्रयत्न करना होगा। इसके लिए किसी भी प्रकार की दैवी सहायता उसे उपलब्ध नहीं है क्योंकि जैन दर्शन ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करता है।
ईश्वरवादी दार्शनिक पद्धतियाँ प्रायः मानवारोपण के दोष से ग्रसित होती है। वे ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर देव या अवतार के रूप में नीचे खींच लाती हैं और इस प्रकार मनुष्य ईश्वर का सहायक बन जाता है। जैन दर्शन, ठीक इसके विरुद्ध मनुष्य को ही, जब उसकी शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं, ईश्वर के रूप में देखता है। उसे पूर्ण विश्वास है कि वह स्वतः प्रयत्न से ईश्वर की कोटि तक पहुँच सकता है। जैन दर्शन ने इस प्रकार मोक्ष प्राप्ति का पूरा उत्तरदायित्त्व स्वयं मनुष्य पर डाल दिया है। उसकी सहायता के लिए किसी भी दैवी शक्ति या ईश्वर का यहाँ प्रावधान नहीं है।
• पुरुषार्थ से आशय मूलतः मानव चेष्टा से है- जिसमें व्यक्ति को स्वतंत्रता भी मिली हुई है और जिसका उत्तरदायित्व भी उसे निभाना है। व्यक्ति कर्म करने के लिए स्वतंत्र है किन्तु फल भोगने का उत्तरदायित्व भी उसी का है। इसमें किसी अन्य व्यक्ति, देवता या ईश्वर का हस्तक्षेप नहीं है। मनुष्य चाहे तो ईश्वर की कोटि भले प्राप्त कर सकता है, यह मनुष्य की क्षमता के बाहर की वस्तु नहीं है। लेकिन ईश्वर से तात्पर्य यहाँ व्यक्ति का स्वयं अपना ही निजरूप है जो सभी ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है। अपने निजरूप को प्राप्त करना ही, मनुष्य का प्रयोजन है, आदर्श है। इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए जैन दर्शन के अनुसार धीर पुरुष को क्षण भर का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए- 'धीरे मुहुत्तमवि णो पमादए ।' कुशल व्यक्ति वही है जो बिना प्रमाद के पुरुषार्थ में विश्वास करता है । कुशल को प्रमाद से भला क्या प्रयोजन?"
* दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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