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________________ ५२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ हिन्दू दर्शन की भाँति जैन दर्शन में भी पुरुषार्थ चतुष्टय की चर्चा है, किन्तु जैन दर्शन इसकी विस्तृत व्याख्या नहीं करता। मोक्ष चर्चा के सन्दर्भ में पुरुषार्थ चतुष्टय का उल्लेख मात्र हुआ है। उदाहरणार्थ ज्ञानार्णव में कहा गया है कि प्राचीनकाल से ही महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ के चार भेद माने हैं। किन्तु इस स्वीकृति के बावजूद पहले तीन पुरुषार्थ नाश सहित और संसार के रोगों से दूषित बताए गए हैं। अत: ज्ञानी पुरुषों को केवल मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करने को कहा गया है। इसी प्रकार परमात्मा प्रकाश में भी धर्म, अर्थ और काम इन सभी पुरुषार्थों में मोक्ष ही 'उत्तम' माना गया है, क्योंकि अन्य किसी में 'परम सुख' नहीं है। वस्तुतः जैनदर्शन इस प्रकार केवल मोक्ष को ही पुरुषार्थ रूप में स्वीकार करता प्रतीत होता है। धर्म पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में है तथा अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि भारतीय चिन्तन में जहाँ पुरुषार्थ-चतुष्टय प्रतिबिम्बित होता है, वहाँ जैन दर्शन दर्पण में पुरुषार्थ-द्वय ही (धर्म और मोक्ष) अवलोकित होता है। लेकिन, यह मानना कि जैन दर्शन में केवल मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है और धर्म, मोक्ष मार्ग है तथा शेष दो तथाकथित पुरुषार्थों का इस दर्शन में कोई स्थान नहीं है-एक एकांगी विचार है और कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है। एक आधुनिक व्याख्याकार के अनुसार, 'यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ और काम बाधक हैं, वे जैन दृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हेय है। लेकिन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं .... न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जैन विचारणा में समुचित स्थान है। अगर ध्यान दिया जाय तो लगभग यही स्थिति हमें हिन्दू दर्शन में भी मिलती है। हिन्दू दर्शन में भी अर्थ और काम निरपेक्ष मूल्य न होकर धर्मानुसार मर्यादित होकर ही मूल्यगत श्रेणी में आते हैं। इतना ही नहीं, जैन धर्माचार्यों ने भी काम और अर्थ को न केवल धर्मोन्मुखी बनाने पर बल दिया बल्कि ठीक हिन्दू त्रिवर्ग की धारणा के अनुरूप ही 'धर्म', 'अर्थ' और 'काम' के कुछ इस प्रकार के सेवन की अनुशंसा की कि वे परस्पर अविरोध में रहे। धर्म का स्वरूप जैन दर्शन में धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने वाली अनेक गाथाएँ हैं। वे जहाँ एक ओर धर्म के आकारगत स्वरूप पर प्रकाश डालती है वहीं वे दूसरी ओर धर्म की अन्तर्वस्तु को भी स्पष्ट करती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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