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पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
जिस प्रकार सभी मूल्यों का स्वरूप आदेशात्मक होता है उसी प्रकार जैन दर्शन में भी धर्म के आदेशात्मक स्वरूप पर स्पष्ट आग्रह है। आचार्य महाप्रज्ञ, 'आज्ञायां मामको धर्मः ' सूत्र द्वारा, अपने ग्रन्थ सम्बोधि में धर्म को परिभाषित करते हैं। इस सूत्र का आगमिक स्रोत आयारों में देखा जा सकता है। आचारांग में स्पष्ट कहा गया है- 'आणाएं मामगं धम्मं" अर्थात् आज्ञा में ही धर्म का गूढ़ तत्त्व छिपा हुआ है। इसके रहस्य को जानने वाला ही उसको प्राप्त कर सकता है।"
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धर्म की एक अन्य परिभाषा जो उसके स्वरूप को सुस्पष्ट करती है हमें निम्नलिखित सूत्र में मिलती है- 'धम्मों वत्थुसहावो।" अर्थात् धर्म वस्तु का स्वभाव है। सामान्यतः जब हम कहते हैं कि अग्नि का धर्म जलाना है, जल का धर्म शीतल करना है या वायु का धर्म बहना है तो यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य कथित वस्तुओं के स्वभाव से ही है। अतः मानव परिप्रेक्ष्य में पूछा जा सकता है कि मनुष्य का स्वभाव क्या है जिसे धर्म कहा जाय? स्पष्ट ही मनुष्य का सार उसकी चेतना में है। जो मनुष्य जीवित नहीं है, वह जड़ है। शरीर निश्चित ही मनुष्य का एक पक्ष है किन्तु यह गौण है। चेतन शरीर स्वतः मूल्यवान है और शरीर परतः मूल्यवान है। अतः कहा जा सकता है कि जो चेतना का स्वलक्षण होगा वहीं मनुष्य का वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने धर्म को समझने के लिए चेतना के स्वलक्षण स्वभाव को जानना होगा। आयारो में कहा गया है- 'समिया धम्मे" अर्थात् धर्म समता में है या समता ही धर्म है। समता और धर्म में कोई अन्तर नहीं है जो समता है वह धर्म है और जो धर्म है, वही समता है जिस प्रकार आत्मा ज्ञान है और ज्ञान आत्मा है (अप्पा णाणं, णाणं अप्पा) उसी तरह समता और धर्म एकरूप है। " कहा गया है कि चारित्र ही धर्म है और धर्म निश्चित ही समता है। १३
धर्म से आशय जहाँ वस्तु के स्वभाव से है, वही क्षमा आदि दस भाव भी धर्म है। क्षमा आदि ये दस भाव हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य।" ये सभी दस धर्म वस्तुतः वे कर्त्तव्य है जिनके निर्वाह से मनुष्य अपने स्व-भाव में स्थित हो सकता है।
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संक्षेप में धर्म जैसा कि हिन्दू दर्शन में कहा गया है, अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों की ही सिद्धि कराता है।" उसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है और यदि हम उसकी रक्षा करते हैं तो वह भी हमारी रक्षा करता है-धर्मो रक्षति रक्षितः । ठीक वैसे ही जैसे यदि किसान अपने बीजों की रक्षा करता है तो वे ही बीज उसे भविष्य में भरपूर फसल देते है। धर्म न केवल विषय-भोगों में निहित दुःख को कम करता है, वरन् निःश्रेयस, परम पुरुषार्थ मोक्ष को भी प्राप्त करने का राजमार्ग है।
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