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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
अर्थ और काम :
सामान्यतः यह समझा जाता है कि निवृत्तिप्रधान जैन दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है। धर्म-पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में ही है। अर्थ
और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। लेकिन यह विचार एकांगी माना जाएगा। जैन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय है।६ भद्रबाहु ने अपनी दशवैकालिकनियुक्ति में स्पष्ट घोषणा की है कि धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य विचारक परस्पर विरोधी मानते हों किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने पर परस्पर अविरोधी है। यही बात बाद में हेमचन्द्र भी कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्म और काम पुरुषार्थों का इस प्रकार सेवन करे कि कोई किसी का बाधक न हो।
वस्तुतः जिस अर्थ और काम को जैन दर्शन में निरस्त किया गया है, वह अमर्यादित अर्थ और काम है जिसे पुरुषार्थ चतुष्टय के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं किया गया है। अर्थ और काम पुरुषार्थ-चतुष्टय में मूल्य का रूप धारण तभी करते हैं जब वह धर्म द्वारा मर्यादित होकर मोक्षोन्मुख होते हैं। जैन दर्शन के एक व्याख्याकार अमरमुनि का भी यही मत है। उनके अनुसार अर्थ जब धर्म की छाया में आ जाता है तभी वह धर्म की ही तरह दिव्य हो जाता है। लक्ष्मी जो अर्थ का प्रतीक है, देवी है, राक्षसी नहीं। अर्थ को देवत्व धर्म प्रदान करता है। धर्म दृष्टि देता है कि अर्थ कहां से आना चाहिए, उसका किस प्रकार उपयोग होना चाहिए और आगे भी कैसा रहना चाहिए। धर्म अर्थ के आने की दिशा निर्धारित करता है और आगे की गति का भी निर्देश करता रहेगा।
___ यही बात काम (भोग) पर भी लागू होती है। शरीर के जितने भी भोग हैं वे काम में आ जाते हैं। अर्थ का उपभोग भी काम ही है। यह भोग दिव्य कब बनेगा? अमरमुनि कहते हैं कि धर्म का प्रकाश अर्थ के माध्यम से सीधे काम तक जाना चाहिए, तभी वह दिव्य होगा। दूध, पानी इत्यदि साफ नहीं होता तो हम उसे छानते हैं, उसी प्रकार अर्थ को भी छानना होगा और यह छानने का कार्य धर्म करेगा। यदि अर्थ छाना नहीं गया, उसका ठीक-ठीक उपयोग नहीं किया गया तो वह अर्थ, अर्थ न रहकर अनर्थ हो जाएगा।
अर्थ की तरह काम को भी छानना होगा। काम को छानने के लिए जो छन्ना है वह है, अनासक्ति। काम यदि आसक्ति से भरा हुआ है तो वह क्षुद्र है, हीन है, किन्तु यदि वह आसक्तिरहित है तो दिव्य है। जिस काम में आसक्ति की जिन्दगी है. वह सड़कर बर्बाद हो जाता है। अर्थ और काम धर्म के प्रकाश से ही मोक्षान्मुख होते हैं।
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