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पुरुषार्थ-चतुष्टय : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में : ५५
मोक्ष
अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति ही जैन दर्शन का अभीष्ट भी ज्ञान प्राप्त करना मात्र नहीं है। मोक्ष जैन दर्शन का केन्द्र-बिन्दु है और मोक्ष से आशय दुःख से आत्यन्तिक निवृत्ति और चरम सुख प्राप्त करना है। इसीलिए जैन दर्शन में मोक्ष को पुरुषार्थ में सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है और इस मोक्ष की प्राप्ति केवल धर्म मार्ग से ही सम्भव है इसलिए धर्म भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना गया है। धर्म, यद्यपि मोक्ष की अपेक्षा से, केवल एक साधन है किन्तु साधन होने के नाते वह मोक्षमार्ग भी है। अतः उसकी महत्ता मोक्ष से कतई कमतर नहीं है।
जैन दर्शन में 'मार्ग' और 'मार्ग-फल इन दो अवधारणाओं में अन्तर किया गया है। ‘मार्ग' मोक्ष का उपाय है। उसका फल 'मोक्ष' या 'निर्वाण' है किन्तु उपाय या मार्ग आखिर है क्या? गाथा के अनुसार यह निश्चित ही 'सम्यक्त्व है। जो व्यक्ति सम्यक्-मार्ग पर चलता है, वही अन्तत: मोक्ष प्राप्त करता है। इस मार्ग के अनुसरण के फलस्वरूप ही निर्वाण सम्भव हो सकता है। जैन दर्शन में समत्व को धर्म कहा गया है। जो धर्म है वही समत्व है।" धर्म और मोक्ष एक दूसरे से साधन-साध्य रूप में सम्पृक्त हैं। एक मार्ग है, दूसरा मार्गफल है। एक उपाय है, दूसरा गन्तव्य है।
__ मोक्ष केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं जो धर्ममार्ग पर चलते है, उन्हें महर्षि कहा गया है। उन्हें महावीर, अर्हत्, वीतराग आदि नामों से भी सम्बोधित किया गया है। मोक्ष के लिए भी जैन साहित्य में एकाधिक नाम मिलते है -१. निर्वाण, २. अबाध,३. सिद्धि, ४. लोकाग्र,५. क्षेम, ६. शिव और ७. अनाबाध इत्यादि मोक्ष के ही समानार्थक हैं भले ही उनके अर्थ में थोड़ा-बहुत अन्तर क्यों न हो।
___ मोक्ष को वचन द्वारा प्रतिपाद्य नहीं किया जा सकता। उसका वर्णन असम्भव है क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति नहीं है, वहाँ तर्क-वितर्क के लिए भी कोई स्थान नहीं है। वह बुद्धि से परे है। मति द्वारा ग्राह्य नहीं है वह अकेला, ओज और प्रकाश से पूर्ण शरीर में अप्रतिष्ठित होने के कारण अशरीरी है। वह शरीरनहोकर आत्मा है,ज्ञाता है।२३ पुनः वह निराकार है, वह परिमण्डलाकार भी नहीं है। इतना ही नहीं मोक्षावस्था एक ऐसी अवस्था है जहाँ नदुःख है, न सुख है, न पीड़ा है,न बाधा है, न मरण है, न जन्म है। जहाँ न इन्द्रियां है, न उपसर्ग है, न मोह है, न विस्मय है, न निद्रा है, न तृष्णा है, न भूख है, जहाँ न कर्म है न नोकर्म है। न चिन्ता है न किसी प्रकार का ध्यान है।२४
प्रश्न उठता है, फिर उसे कैसे, किस प्रकार, समझा-समझाया जा सकता है? जैन दर्शन मोक्ष को अनुभवातीत और शब्दातीत कहकर चुप नहीं बैठ जाता, बल्कि उसका भावात्मक विवरण भी प्रस्तुत करता है। बेशक मोक्ष इन्द्रियानुभूति से परे है,
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