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५६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
लेकिन यह एक अशरीरी आध्यात्मिक अनुभूति तो है ही, जिसको पूरी सावधानी बरतते हुए, भाषा में प्रस्तुत तो, समझाने की दृष्टि से करना ही होगा और इसी प्रस्तुतीकरण में जैन दर्शन हिन्दू दर्शन की अपेक्षा अधिक समृद्ध है। हिन्दू दर्शन में तो आत्मा को अनिर्वचनीय कहकर उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित बात नहीं कही गयी, किन्तु जैन दर्शन में मोक्ष के सम्बन्ध में निश्चित तौर पर काफी कुछ कहा गया है। उदाहरण के लिए एक गाथा के अनुसार, मोक्षावस्था एक ऐसी अवस्था है जहाँ केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख, केवल वीर्य, अमूर्तता, अस्तित्त्व और सप्रदेशत्व के गुण होते है। २५
संदर्भ :
१. आयारो, वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, पृ० ८८ (२/९५ )
२. ज्ञानार्णव, शुमचन्द्र, ३/४ परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास १९७८
३. वही, ३/३-५
४. परमात्मप्रकाश, योगिन्दुदेव, २/३, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास, 1 वि.सं०
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आनन्द प्रकाश त्रिपाठी का आलेख, 'जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय', तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं, खण्ड २०, अंक १ - २, पृ० ४२
६. प्रो. सागरमल जैन का आलेख, 'मूल्य और मूल्यबोध की सापेक्षता का सिद्धान्त' श्रमण वाराणसी, जनवरी - मार्च १००२, पृत्र १०-११
७. योगशास्त्र ( आचार्य हेमचन्द्र ), पृ. १-५२
८. आयारो, पृ. २३८ (६/२/४८
९. समणी स्थितप्रज्ञा का निबंध, 'संबोधि के आगमिक स्रोत' तुलसी प्रज्ञा, पूर्णांक ९०, पृ. १३५
१०. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४७८, सम्पा०- ए. एन. उपाध्ये, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास, वि. सं. २०३४
११. आयारो, पृ. २७४, ८/३१
१२. उदयचंद जैन का निबंध समता, अक्टूबर ९३, पृ. ३७
१३. चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्ठो ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो । प्रवचनसार,
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