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________________ प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : २७ आस्तिकाय की अवधारणा प्रज्ञापना में अजीव का निरूपण रूपी और अरूपी इन दो भेदों में करके पुद्गल द्रव्य का निरूपण किया गया है। अरूपी में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के रूप में अजीव द्रव्य का वर्णन किया गया है। किन्तु प्रस्तुत आगम में इन भेदों का वर्णन करते समय अस्तिकाय शब्द का प्रयोग किया गया है । किन्तु उनके स्थान पर द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से अस्तिकाय शब्द 'अस्ति' और 'काय' इन दो शब्दों के मेल से बना है । अस्ति का अर्थ है 'सत्ता' और काय का अर्थ यहां पर शरीर रूप अस्तिवान के रूप में नहीं हुआ है। क्योंकि पंचास्तिकाय में पुद्गल के अतिरिक्त सभी अमूर्त हैं । अतः यहां काय क लाक्षणिक अर्थ है- जो अवयवी द्रव्य हैं वे अस्तिकाय हैं और जो निरवयव द्रव्य हैं वे अनस्तिकाय हैं । किन्तु कायत्व का अर्थ सावयवत्व यदि मानते हैं तो एक समस्या यह उत्पन्न होती है कि परमाणु तो अविभाज्य, निरंश और निरवयव हैं तो क्या वह अस्तिकाय नहीं हैं । परमाणु पुद्गल का ही एक विभाग है फिर भी उसे अस्तिकाय माना है। जैन आचार्यों ने इसका समाधान किया है। यह सत्य है कि धर्म, अधर्म, आकाश अविभाज्य और अखण्ड द्रव्य हैं किन्तु क्षेत्र की दृष्टि से वे लोकव्यापी हैं । इसलिये क्षेत्र की अपेक्षा से सावयत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना वैचारिक स्तर पर की गयी है । परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और निरवयव है, वह काय रूप नहीं है किन्तु जब वह परमाणु स्कन्ध का रूप धारण करता है तो वह कायत्व और सावयत्व को धारण कर लेता है । प्रज्ञापना १८वें पद के २१वें अस्तिकायद्वार में इस पर चर्चा करती है । जीवों का स्थान संसारी और सिद्ध के भेद और प्रभेद की चर्चा करने के पश्चात् उन जीवों के निवास स्थान का चिंतन किया गया है । इस चिंतन का मूल कारण यह है कि आत्मा के परिमाण के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में अनेक मत मिलते हैं । वैदिक दर्शनन्याय-वैशेषिक, मीमांसा, शांकर वेदान्त जहां आत्मा को व्यापक या विभु मानते हैं, वहां जैन दर्शन आत्मा को सर्वव्यापक या विभु न मानकर शरीर परिमाणवाला मानता है । उसमें संकोच और विस्तार दोनों गुण हैं । जैन दर्शन आत्मा को वैदिकों की भांति कूटस्थ नित्य न मानकर परिणामी नित्य मानता है । इस विराट् विश्व में वह विविध पर्यायों के रूप में जन्म ग्रहण करता है और नियत स्थान पर ही वह आत्मा शरीर धारण करता है। कौन-सा जीव किस स्थान में है ? इस प्रश्न का चिंतन प्रज्ञापना द्वितीय पद में करती है। जैन दृष्टि से जीव की आयु पूर्ण होने पर वह नये स्थान का ग्रहण करता है । स्थान दो प्रकार के हैं - एक स्थायी दूसरा प्रासंगिक । एक जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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