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२८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
देवाय पूर्णकर मानव बनने वाला है; वह जीव देवस्थान से चलकर मानवलोक में आता है। बीच की जो उसकी यात्रा है, वह यात्रा स्वस्थान नहीं है । वह तो प्रासंगिक यात्रा है जिसे उपपात स्थान कहा गया है । दूसरा प्रासंगिक स्थान समुद्घात है । वेदना, मृत्यु, विक्रिया प्रभृत आदि विशिष्ट प्रसंगों पर जो जीव का विस्तार होता है वह समुद्घात है । प्रज्ञापना तीनों स्थान का विश्लेषण करती है। एकेन्द्रिय जाति की जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय जीव लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। नारक और तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देव के लिये पृथक्-पृथक् स्थानों का निर्देश किया गया है तथा सिद्धलोक के अग्रभाग में अवस्थित है ।
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प्रज्ञापना में अजीव के स्थान के सन्दर्भ में विचार नहीं किया गया है। इसका कारण है कि जिस प्रकार जीवों के प्रभेदों में अमुक निश्चित स्थान की कल्पना कर सकते हैं, वैसे पुद्गल के सम्बन्ध में नहीं । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों समग्र लोकव्यापी हैं इसलिये उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी ।
पर्याय
पर्याय शब्द का यहां अर्थ 'विशेष' है। विशेष शब्द के दो अर्थ हैं- प्रकार और पर्याय । भेदों का निरूपण तो प्रथम पद I 'था परन्तु प्रत्येक भेद में अनन्त पर्यायें हैं, यह पांचवें पद में बताया गया है। इसमें २४ दण्डक और २५ वें सिद्ध इस प्रकार उनकी संख्या और पर्यायों का विचार किया गया है। जीव द्रव्य के नरकादि भेदों व पर्यायों का विचार अनेक दृष्टियों से किया गया है। इसमें जैन सम्मत अनेकान्तदृष्टि का प्रयोग हुआ है । जीव के नरकादि के जिन भेदों की पर्यायों का निरूपण है, उसमें द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता, अवगाहनार्थता, स्थिति, कृष्णादि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, ज्ञान और दर्शन- इन दस दृष्टियों से विचार किया गया है। आचार्य मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में इन दस दृष्टियों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों में विभक्त किया है।
परमाणुवादी न्याय-वैशेषिक परमाणु को नित्य मानते हैं और उसके परिणाम पर्याय परिणाम नहीं मानते । जैन परमाणु को भी परिणामी नित्य मानते हैं, परमाणु स्वतन्त्र होने पर भी उसमें परिणाम होता है, यह प्रस्तुत पद से स्पष्ट होता है । इस प्रकार प्रज्ञापना अस्तिकाय के सम्बन्ध में एक नयी अवधारणा प्रस्तुत करती है।
जीवों के शरीर
प्रज्ञापना बारहवें पद में जीवों के शरीर के सम्बन्ध में चिंतन करती है । उपनिषदों में जिसप्रकार आत्मा के अन्नमय, प्राणमय आदि पांच कोशों का वर्णन है,
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