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________________ प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : २९ उसी प्रकार प्रज्ञापना जीव के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच भेद करती है । प्रज्ञापना की इस अवधारणा की उपनिषदों के पंचकोशों से तुलना की जा सकती है । उपनिषदों में वर्णित पंचकोशों में अन्नमय (स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है), प्राणमय (शरीर के अन्तर्गत वायुतत्त्व),मनोमय (मन की विकल्पात्मक क्रिया), विज्ञानमय (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया) तथा आनन्दमय (आनन्द की स्थिति) ये पांचकोश बताये गये हैं । जैन दर्शन में औदारिक आदि शरीर स्थूल हैं तो कार्मण शरीर सूक्ष्म शरीर है। कार्मण शरीर के कारण ही स्थूल शरीर उत्पन्न होती है। कार्मण शरीर की तुलना नैयायिकों के अव्यक्त शरीर तथा सांख्यों के अव्यक्त सूक्ष्म या लिंग शरीर से की जा सकती है। ___ चौबीस दण्डकों में कितने-कितने शरीर हैं,यह चिंतन कर बताया गया है कि औदारिक से वैक्रिय और वैक्रिय से आहारक आदि शरीरों के प्रदेशों की संख्या अधिक होने पर भी वे अधिकाधिक सूक्ष्म हैं। औदारिक शरीर तिर्यंचों को, वैक्रिय शरीर नैरयिक और देवों को होता है। वैक्रिय लब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यंचों तथा वायुकाय को औदारिक शरीर होता है । आहारक शरीर वह है जो आहारक नामक लब्धि विशेष से निष्पन्न हो। उसी प्रकार तैजस् शरीर तेजोलब्धि से प्राप्त एवं कार्मण शरीर कर्म समूह से निष्पन्न होता है । तैजस और कार्मण सभी सांसारिक जीवों में होता है। कषाय का स्वरूप प्रज्ञापना के चौदहवें सूत्र में कषाय का वर्णन किया गया है । कर्मबन्धन का कारण मुख्य रूप से कषाय ही हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारो कषाय चौवीस दण्डकों में बताये गये हैं । क्षेत्र, वस्तु, शरीर और उपाधि को लेकर सम्पूर्ण शारीरिक जीवों में कषाय उत्पन्न होता है । प्रज्ञापना में यह बताया गया है कि कितनी बार जीव को कषाय का निमित्त मिलता है और कितनी वार बिना निमित्त के कषाय उत्पन्न होता है। कषायों के तरतमता की दृष्टि से अनन्त स्तर होते हुए भी आत्म विकास के घात की दृष्टि से प्रत्येक के- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्ख्यानावरण, प्रत्यख्यानावरण और संज्वलन, ये चार स्तर हैं। ये चारो प्रकार के कषाय उत्तरोत्तर मंद, मन्दतर होते हैं। साथ ही अभोगनिवर्तित, उपशान्त और अनुपशान्त इस प्रकार के भेद भी किये गये हैं। लेश्या सिद्धान्त जैनदर्शन में लेश्या को एक प्रकार का पौगलिक पर्यावरण माना गया है । उत्तराध्ययन-बृहद्वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया किया गया है । टीकाकार ने लेश्या का अर्थ कषाय अनुरंजित योग-प्रवृत्ति किया है। दिगम्बर परम्परा में शिवार्य ने जीव के परिणाम को छाया पुद्गलों से प्रभावित करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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