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३० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
वाला बताया है । शरीर के वर्ण और आणविक आभा द्रव्य लेश्या है तो विचार भाव लेश्या है । प्रज्ञापना सत्रहवें पद के द्वितीय उद्देशक में लेश्या के कृष्ण, नील, कपोत आदि छः भेद बताकर नरक आदि चार गतियों के जीवों में कितनी-कितनी लेश्याएं होती हैं, इनका जितने विस्तार से निरूपण करती है, उतना अन्यत्र नहीं मिलता । तृतीय उद्देशक में जन्म और मृत्यु काल की लेश्या, चतुर्थ उद्देशक एक लेश्या का दूसरी लेश्या में परिणमन तथा पांचवें में देव-नारक की अपेक्षा से परिणमन, बताया गया है। जो प्रज्ञापना की विशेषता है ।
ज्ञान और दर्शन
ज्ञान और दर्शन की मान्यता जैन दर्शन में अति प्राचीन है। ज्ञान को आवृत करने वाले कर्म को ज्ञानावरण तथा दर्शन को आच्छादित करने वाले कर्म को दर्शनावरण कहते हैं । इन कर्मों के क्षय और उपशम से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं । केवली के दोनों उपयोग एक साथ हो सकते हैं या नहीं यह एक विवादास्पद प्रश्न रहा है । आवश्यक नियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य आदि में कहा गया है कि केवली के दो उपयोग नहीं हो सकते । श्वेताम्बर परम्परा के आगम इस सम्बन्ध में एकमत हैं वे केवली के ज्ञान और दर्शन एक साथ नहीं मानते । दिगम्बर परम्परा मानती है कि केवल दर्शन और केवल ज्ञान युगपत् होते हैं ।
सिद्धसेन दिवाकर तीसरी परम्परा के वाहक हैं और उनका मानना है कि मनःपर्याय तक तो ज्ञान और दर्शन का भेद सिद्ध कर सकते हैं, किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन में भेद करना सम्भव नहीं है। दर्शनावरण और ज्ञानावरण का क्षय युगपत् होता है। उस क्षय से होने वाले उपयोग में, 'यह प्रथम होता है, 'यह बाद में होता है', इस प्रकार का भेद कैसे किया जा सकता है । अतः तर्कसंगत समाधान यह है कि केवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता । अतः जहां दिगम्बर परम्परा में केवल युगपत् पक्ष मान्य रहा है, श्वेताम्बर परम्परा में क्रम, युगपत् और अभेद तीनों पक्ष मान्य हैं । प्रज्ञापना में उपयोग और पश्यत्ता के सम्बन्ध में अन्य चर्चा नहीं है । उसके अवधि पद में अवधि ज्ञान के सम्बन्ध में भी विषय, संस्थान, आभ्यन्तर और वाह्य अवधि, देशावधि, अवधि की क्षय दृष्टि तथा प्रतिपाती अप्रतिपाती इन सात विषयों की चर्चा है । अवधिज्ञान किसमें कितना होता है इसकी विस्तृत चर्चा प्रज्ञापना में है । अत: प्रज्ञापना को इस चर्चा का द्वार कहा जा सकता है 1
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अतः हम देखते हैं कि प्रज्ञापना में साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास और भूगोल के अनेक विषयों के अतिरिक्त जैन दर्शन के दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषयों जीव- अजीव से सम्बन्धित सभी भेदो-प्रभेदों का विस्तृत विवेचन हुआ है। यद्यपि जीव- अजीव से
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