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________________ प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : ३१ सम्बन्धित अनेक अवधारणाओं का विकास बाद के ग्रन्थों में हुआ किन्तु उन विषयों के मौलिक रूप का दिग्दर्शन तो प्रज्ञापना ही कराती है। यही कारण है कि अंग और उपांग भी विभिन्न विषयों की विशद् चर्चा हेतु प्रज्ञापना के अध्ययन का निर्देश करते हैं । दार्शनिक जैन पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग भी विशेष रूप से इस ग्रंथ में हुआ है । आज आवश्यकता है इसके दार्शनिक प्रदेयों को रेखांकित कर उन्हें न केवल भारतीय अन्य प्रमुख भाषाओं बल्कि विदेशी भाषाओं में अनूदित किया जाए ताकि इस उपांग के विषय में अधिक से अधिक लोग जान सकें और आज के विकसित समाज और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में इसकी महत्ता का मूल्यांकन किया जा सके । सन्दर्भ : १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. अज्झयणमिणं चित्तं, प्रज्ञापनासूत्र, सम्पा० आचार्य मधुकर मुनि श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८३, गाथा - ३ वही, गा०२-३ भगवती, श० १६ उ०६, सू०५८० आवश्यक मलयगिरिवृत्ति पृ०२७० आवश्यकचूर्णि पृ० २७५ महावीरचरियं ५ / १५५ त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित १० / २ / १४६ भगवती, श० १६ उ०६, अभयदेववृत्ति सहित, आगमोदय समिति, बम्बई, १९१८ - १९२१, प्रज्ञापनासूत्र, सम्पा० आचार्य मधुकर मुनि, पद - २२ सूत्र १५६७. पण्णवणा, मूलपाठ पृ. १ इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थांगस्योपांगम्, तदुक्तार्थप्रतिपादनात् -- प्रज्ञापना मलय गिरि वृत्ति पत्र . १ प्रज्ञापनासूत्र - ३ षट्खण्डागम, पुस्तक - १. प्रस्तावना पृ-७२ ९. १०. प्रज्ञापना मलयवृत्ति पत्रांक- ६ अ ११. वही, पत्रांक- ५ अ १२. प्रज्ञापना - मलयगिरि वृत्ति पत्रांक ७ ब १३. भगवतीसार- पृ. २९१, ३९२, ३६१-६२, ३९६-९७, ४०४, ४५७, ६२७, ६८० १४. शिक्षासमुच्चय, पृ.१०४, ११२, २०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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