SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परीष एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत : ४५ संस्तारक (संथारा) मात्र का आश्रय लेकर देहत्याग करता है, इसे ही सल्लेखना कहते हैं। सल्लेखना मरण पूर्व की जाने वाली अनासक्तपूर्ण पद्धति का नाम है। मरण का स्वरूप १० मरण के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों ने अपने-अपने मत व्यक्त किए हैं, जिसका अर्थ 'मरण' या 'मृत्यु' ही किया है। अर्थात् मरण को समस्त शरीरधारी जीवों का स्वभाव (प्रकृति) माना है । " मरण' शब्द 'मृ' धातु से बना है, जो भाव अर्थ में ल्युट् प्रत्यय लगकर बना है ।" जिसका अर्थ है - प्राणों का परित्याग | मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम ये सभी एकार्थ वाचक हैं।" इसका दूसरा अर्थ एक प्रकार का विष भी किया गया है। १२ जैन दर्शन में मरण के सम्बन्ध में कहा गया है कि 'प्रस्तुत आयु से भिन्न अन्य आयु का उदय आने पर पूर्व आयु का नाश होना मरण है । १३. 'अनुभूयमान आयु नामक पुद्गल का आत्मा के साथ विनष्ट (वियोग-पृथ्कत्व) होना मरण है। धवला में आयु क्षरण को मरण का कारण माना गया है। १४ अपने प्राणों से प्राप्त हुए आयु का, इन्द्रियों का और मन, वचन व काय इन तीनों बलों के कारण विशेष के मिलने पर नाश होना, मरण है। "मरण के दो रूप हमें मिलते हैं- प्रथम लोक प्रसिद्ध मरण, जो सामान्य व्यवहार में देखा जाता है तथा दूसरा प्रतिक्षण आयु १६ १७ क्षीण होना भी मरण ही है। जिसे क्रमशः तद्भव मरण (लोक प्रसिद्ध मरण) एवं नित्य मरण ( प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना) कहते हैं। अतः आत्मा का शरीर से अलग हो जाना ही मरण है। जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे पर्याय या शरीर को धारण करता है, तो जिस शरीर पर्याय को आत्मा छोड़ता है, वह मरण है। गीता' में मरण का अर्थ अकीर्ति किया गया है। सज्जन (सदाचारी) की अकीर्ति ही उसका मरण है। जिसका लोक में यश, गौरव, सम्मान, प्रतिष्ठा आदि न रहे उसकी स्थ मरण से कहीं बुरी होती है। आत्मा के सम्बन्ध मे कहा गया है कि "जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त करता रहता है। १८ यहां पर जीवात्मा द्वारा जैन दर्शन में सात प्रकार जो पुराने शरीर को छोड़ने की बात कही गई है, वही मरण है। १९ " का उल्लेख मिलता है, उनमे से एक मरण भय भी है। अतः यह शाश्वत सत्य है कि सभी जीव मरणधर्मा हैं। मरण के भेद-प्रभेद जिस प्रकार सल्लेखना का परीषहजय एवं उपसर्गजय के साथ गहरा सम्बन्ध है, ठीक उसी प्रकार सल्लेखना का मरण के साथ अन्तः सम्बन्ध हैं, क्योंकि सल्लेखना एक व्रत है जिसका पद्धतिपूर्ण ढंग से साधक पालन करता है। भगवती For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy