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________________ ४४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ जिसके मूल में समता, अभय, निर्ममत्व, अमूर्छा, अपरिग्रह आदि भावनाएं विद्यमान रहती हैं। बाह्य जगत् से निस्पृही होने के साथ-साथ स्वयं के शरीर से भी जब मोह समाप्त हो जाता है, तब आहार आदि का त्याग कर अपने आपको कृश करते हुए समाप्त किए जाने की कला जैन परम्परा में मान्य है, जिसे सल्लेखना (सन्थारा) कहा जाता है। भारतीय परम्परा में इसे समाधि शब्द से जाना जाता है। जैन परम्परा मे जहां जीने की कला सिखाई जाती है वहां मरने की कला भी सिखाई जाती है। मरने की कला सल्लेखना है। सल्लेखना एक विधिपूर्वक शरीर को बाह्य एवं अन्त:रूप में कृश करने की पद्धति विशेष है। इसे आत्महत्या की संज्ञा नहीं दी जा सकती। कष्टों से घबराकर आवेशवश अपने शरीर को समाप्त करना आत्महत्या है। सल्लेखना में आत्मशुद्धि का लक्ष्य है तथा उसमें आत्मा ही साक्षी है। सल्लेखना एक विशुद्ध साध्य के प्रति अपने आपको समर्पित करने के भावो से ओत-प्रोत होती है। सल्लेखना में औदारिक शरीर के साथ-साथ कषायों को (कर्म शरीर को) कृश किया जाता है। सल्लेखना में कषायों को क्षीण कर समभाव की स्थिति प्राप्त करने का लक्ष्य होता है। यह मृत्यु से पूर्व की तैयारी है। इसे इच्छामृत्युवरण की वैज्ञानिक पद्धति कहा जा सकता है। इसमें किसी प्रकार का दबाव व परवशता नहीं हैं। आत्महत्या में कष्ट व आवेश का दबाव होता है। आत्महत्या जीवन से ऊबकर अविवेकपूर्ण लिया गया निर्णय है। सल्लेखना अत्यन्त सोच समझकर प्रसन्नता से लिया गया निर्णय है। जब साधु या श्रावक अपने औदारिक शरीर की स्थिति को तोल लेता है कि, अब शरीर कारण विशेष से इतना कृश हो गया है कि इसका जिंदा रहना मुश्किल है। तब साधक अपने मनोबल से धीरे-धीरे अनशन के माध्यम से इसको पोषण देना बिल्कुल बंद कर देता है। यही से सल्लेखना प्रारंभ होती है। सल्लेखना परीषहजय एवं उपसर्गजय का सर्वोत्तम उदाहरण है। सल्लेखना से होने वाले कष्टों में अपने आपको साधक सम बना देता है उस स्थिति में पूर्ण समभाव में रहता है। वह समभाव की स्थिति परीषहजय की स्थिति है। समभाव व परीषहजय एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। परीषहजय का दूसरा नाम समभाव है। इसी प्रकार सल्लेखना परीषहजय की पूरक है। परीषहजय व सल्लेखना भी एक सिक्के के दो पहलू है। परीषहजय व सल्लेखना दोनों समभाव को बढ़ाते हैं। सल्लेखना एक तप है। भले ही सामाजिक स्तर पर इसे स्वीकार न किया गया हो, फिर भी जैन परम्परा में इसे तपस्या/साधना का प्रयोग कहा जाता है। इसे न तो प्रथा, न दिखावा अथवा न ही आत्महत्या की परिधि में लिया जा सकता है। क्योंकि इसका उद्देश्य मात्र अनासक्ति के क्षण में जीना है। शरीर के प्रति अनासक्त हो समाधिपूर्वक तप करना, ऐसे में मृत्यु आ जाये तो समतापूर्वक उसे स्वीकार करना संथारा है। अन्त समय में साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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