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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
आराधना में वर्णित परम्परा में मान्य १७ प्रकार के मरणों मे से पांच प्रकार के मरणों का उल्लेख यहां किया जा रहा है
१. बाल-बालमरण २. बालमरण ३. बाल-पंडितमरण ४. पंडितमरण
५. पण्डित-पण्डितमरण १. बाल-बाल मरण
संसार समुद्र में अनादि काल से जीव अज्ञान के वशीभूत चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है। आत्मा की अवस्था का पहला सोपान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। दर्शन मोहनीय कर्म संसार को विस्तार देने वाला कर्म है। जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती है वह मिथ्यादृष्टि जीव कहलाता है। आत्मात्थान के लिए सबसे पहले, दर्शन को सम्यक् करना होता है, अपनी दृष्टि को सम्यक् बनाना होता है। जिस जीव में मिथ्यात्व, अविरित, प्रमाद, कषाय व योग पांचों आश्रव मौजूद होते हैं वह पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान मे रहता है। ऐसा जीव जब मरता है तो उसे बाल-बालमरण कहते हैं। 'जैसी दृष्टि-वैसी सृष्टि',सुन्दर सृष्टि बनाने के लिए दृष्टि (चिंतन, दिशा, सोच) को सम्यक् बनाना होता है। जब दृष्टि अविधायक होती है तब भव-भ्रमण की सीमा नही रहती है। ऐसा जीव पुनः-पुनः बाल-बालमरण को प्राप्त होता है। इसे अज्ञान-अज्ञानमरण भी कहा जाता है। २. बालमरण
जब सोच विधायक (Positive attitude) होती है तो आत्मशुद्धि प्रारंभ होने लगती है। यह आत्मविकास की पहली सीढी है। इसे 'अपूर्वकरण' कहते है। आत्मा को ऐसा चिंतामणि रत्न मिलता है जो पहले कभी नहीं मिला हो। वह चिंतामणि रत्न सम्यक्-दर्शन है। जिसने एक बार सम्यक्त्व (सम्यक्-दर्शन) को प्राप्त कर लिया, उसने अपने भवों की सीमा तय कर ली यानी वह मोक्ष का अधिकारी बन गया। कभी न कभी वह मोक्ष (निर्वाण) को जरूर प्राप्त करेगा। यह आत्मा का चौथा गुणस्थान 'अविरत सम्यक्-दृष्टि' कहलाता है। आत्मा का मिथ्यात्व समाप्त हो गया लेकिन अज्ञान (अविरति) बाकी है। चौथे गुणस्थान में अविरति, प्रमाद, कषाय योग चार आश्रव रहते हैं। इस गुणस्थान का जीव सम्यक्-दर्शन को जानता है लेकिन संसार के भोगों के प्रति बहुत लालायित रहता है। इस स्थिति के जीव के मरण को बाल मरण कहते है।"बाल का अर्थ अज्ञान है। ऐसे प्राणी के मरण को अज्ञानमरण कहते हैं।
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