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________________ २ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८ कहा जाता है कि भगवान महावीर के पश्चात् २३वें पट्टधर आर्य श्याम पूर्वश्रुत में निष्णात थे । उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ में अपनी विशिष्ट शैली और ज्ञान का उपयोग किया जिसके कारण अंग और उपांग में उन विषयों की सम्पूर्ण जानकारी के लिये प्रज्ञापना का अवलोकन करने को निर्देशित किया गया है। प्रज्ञापना का अर्थ प्रज्ञापना का अर्थ क्या है ? इसके उत्तर में स्वयं शास्त्रकार ने बताया है जीव और अजीव के सम्बन्ध में जो प्ररूपणा है, वह प्रज्ञापना है । पद में प्रयुक्त 'प्र' उपसर्ग भगवान महावीर के उपदेश की विशेषता सूचित करता है अर्थात् जीव, अजीव का जैसा सूक्ष्म विवेचन एवं विश्लेषण भगवान महावीर ने किया है उतना सूक्ष्म उस युग के किन्हीं अन्यतीर्थिक आचार्य ने नहीं किया । प्रज्ञापना का आधार प्रज्ञापना उपांगों के क्रम में चौथा उपांग है। जैन आगम में बारह अंग हैं जिनमें दृष्टिवाद का लोप हो गया है । किन्तु बारह उपांगों में सभी उपांग उपल्ब्ध हैं । अंगउपांग के सम्बन्ध या किस अंग का कौन-सा उपांग है, यह कब निश्चय किया गया यह कहना तो कठिन है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जब संस्कृत टीकायें लिखी जाने लगी तभी इसका निर्धारण हुआ होगा। आचार्य मलयगिरि के अनुसार, यह समवायांगसूत्र का उपांग हैं । किन्तु ऐसा कोई सम्बन्ध प्राचीनकाल में जुड़ा हुआ नहीं दिखता । क्योंकि ग्रंथ का प्रारम्भ करते हुए स्वयं कर्ता ने यह प्रज्ञापना दृष्टिवाद में से निर्झरित होता रस है, ऐसा कहा है। J अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिट्ठिवायणीसदं । जह वण्णियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि ।। " अर्थात् दृष्टिवाद के विस्तृत वर्णन में से सारभूत वर्णन प्रज्ञापना में लिया गया है । किन्तु चूंकि दृष्टिबाद अपने समक्ष नहीं है, अतः इन दोनों के सम्बन्ध की कल्पना ही की जा सकती है। फिर भी प्रज्ञापना का सम्बन्ध दृष्टिवाद के ज्ञानप्रवाद, आत्मप्रवाद और कर्मप्रवाद से जोड़ा जा सकता है। षट्खण्डागम की टीका धवला में षट्खण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणीपूर्व से जोड़ा गया है । प्रज्ञापना और षट्खण्डागम के वर्ण्य विषय समान होने से प्रज्ञापना का सम्बन्ध भी अग्रायणीपूर्व से जोड़ा जा सकता है । आचार्य मलयगिरि ने वर्ण्य विषयों की समानता के आधार पर ही इसका सम्बन्ध समवायांग के साथ जोड़ा है। समवायांग में भी जीव, अजीव आदि तत्त्वों का मुख्य रूप से निरूपण हुआ है । परन्तु स्वयं कर्ता ने ऐसा कोई सूचन नहीं किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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