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________________ विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ६७ जैन धर्म की नींव अहिंसा है। अहिंसा का पालन करते हुये जीव आत्मशांति का अनुभव करता है। आज मानव स्वार्थवश, पैसा कमाने की होड़ में सौंदर्य प्रसाधनों, चमड़े की वस्तुओं, इंसटेन्ट फुड के लिए नए-नए हिंसक मार्ग अपनाकर हिंसात्मक प्रवृत्तियों द्वारा अपनी पैठ जमाना चाह रहा है। इससे वह स्वयं हिंसक तो बन ही रहा है साथ ही साथ प्रकृति के साथ खिलवाड़ भी कर रहा है। नतीजन पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। वन्य प्राणियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं। पानी की महामारी हो रही है। जलवायु भी प्रतिकूल रुख अपना रहे हैं। हिंसा किसी भी स्तर की हो वह वर्जनीय है। अत: हमें अपने सोये विवेक को जागृत करना है। हमें सैद्धांतिक बनकर सिद्धांतों का पालन करना है। जिससे हम धर्म के रक्षक होने के साथ प्रकृति के भी रक्षक बनें। यही आज की आवश्यकता है। रात्रि भोजन त्याग अर्थात् जैन धर्म में सूर्यास्त के बाद खाना खाना वर्त्य है। रात्रि के समय प्रकाश में भी न दिखने वाले सूक्ष्म कीटाणु भोज्य पदार्थों में गिरकर भोजन विषाक्त बना देते हैं। इससे हिंसा के साथ-साथ पाचन विकृति भी होती है। यही बात विज्ञान की विभिन्न विद्या - नेचुरोपैथी, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक एलोपैथिक भी कहती हैं कि खाना जल्दी खाकर कम से कम ३-४ घंटे जागें, घूमें। देर रात में खाने से पाचन शक्ति कमजोर होती है, गैस, कब्ज जैसे रोग होते हैं। ___आज अहिंसा का उज्ज्वल रूप धूमिल हो रहा है। अहिंसा-प्रेम या मैत्री के अलौकिक सूर्य को आज परिग्रह और आसक्ति के काले मेघों ने घेर लिया है। जैन धर्म में पेड़ के पत्ते को तोड़ना भी हिंसा माना गया है। पर आज पूरे जंगल के पेड़ कट रहे हैं और पेड़ कम होने से समस्या खड़ी हो रही है- अकाल की। पेड़ भी जीवित चीज है उसे काटना हिंसा है यह आज विज्ञान को मानना पड़ा है, इसलिए वह नारा लगा रहा है- 'पेड़ लगाओं, पेड़ बचाओ।' अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान के लिए अहिंसा कितनी आवश्यक है। हिंसा के दुष्परिणामों से हमें अवगत होना पड़ेगा तभी अहिंसा का साम्राज्य फिर इस धरा पर स्थापित हो सकेगा। अहिंसा में बहुत बड़ी शक्ति है। इससे विश्व में सुख-शान्ति का साम्राज्य निर्माण हो सकता है। यह स्व-पर कल्याणक है। कोई भी धर्म बचाने (अहिंसा) का ही संदेश देता है न कि हिंसा अर्थात् मारने का। अहिंसा सब जीवों को सुख देने वाली है। इस विज्ञान युग में हर शक्तिशाली देश के पास विश्वसंहारक अणुबम है पर विज्ञान की यह बेसुमार प्रगति मानव जाति के हित में नहीं है। हम सब तभी जी सकते हैं जब हम दूसरों को जीने देगें। यही बातें अगर विज्ञान या डॉक्टर बताये तो हम उसका पालन करते हैं तो फिर हम सीधा ही अहिंसा का पालन क्यों न करें? पर मराठी में कहावत है कि 'सोनारानेच कान टोचावे लागतात।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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