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श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ जनवरी-मार्च २००८
विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
हिमांशु सिंघवी*
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें प्रेम धार नहीं। वह विज्ञान नहीं अभिशाप है, जिसमें अहिंसा और प्यार नहीं।।
आधुनिक युग विज्ञान का युग है। आज का मानव विज्ञान के अनेक साधनों द्वारा प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का पर्दाफाश कर चुका है। विज्ञान आज मानव जीवन से इस प्रकार घुल-मिल गया है कि उसे जीवन से पृथक् करना असम्भव है। आज विज्ञान मानव जीवन का अनिवार्य तथा अभिन्न अंग बन गया है। सर्वप्रथम मानव ने रहस्यों को जानने के लिए धर्म का सहारा लिया था व आज वह विज्ञान के माध्यम से उन सभी रहस्यों को जानने तथा समझने का प्रयास कर रहा है, जिन्हें प्राचीन समय का मानव समझने की कोशिश में लगा रहा, पर सफल न हो सका। 'धर्म' नाम सुनते ही हमारे मन में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अक्रोध आदि बातें विचरित होने लगती हैं। अहिंसा और विज्ञान में जो विरोधाभास प्रतीत होता है, वास्तव में वह विरोध नहीं है, वह तो विकास मार्ग के दो भिन्न-भिन्न साधन हैं, जिनमें कुछ अंतर होना स्वाभाविक है। सच्ची अहिंसा का न तो कभी विज्ञान से विरोध रहा है और न होगा। दोनों ही सत्य मार्ग के दो सोपान हैं, जिनका एक ही लक्ष्य है। अतः विज्ञान तथा अहिंसा एक-दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं।
विज्ञान एक दृष्टिकोण है, जिसके अनुसार किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना की सम्भावना उस समय तक स्वीकार नहीं की जाती है, जब तक कि कोई कारण हमारे सामने प्रत्यक्ष न हो। विश्वास उसी पर किया जाता है, जिसका प्रयोगात्मक अध्ययन किया जा सकता है। अतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण उन विचारों और धाराओं को कोई महत्त्व नहीं देता जो कोरी कल्पना और अंधविश्वास पर आधारित हों। दिन के साथ रात, प्रकाश के साथ अंधकार और सुख के साथ दुःख जुड़े हुए हैं। संसार में अच्छाई के साथ बुराई है, पुण्य के साथ पाप भी है, वरदान के साथ अभिशाप भी है। दुनिया की प्रत्येक वस्तु की भाँति विज्ञान भी द्वि-आयामी है। वह मानव को एक ओर विकास के शिखर की ओर भी ले जा रहा है तो दूसरी ओर विनाश के गर्त की ओर भी *१८/६५५चौपासनी हाउसिंग बोर्ड, जोधपुर, राजस्थान
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