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________________ विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता : ७३ हो चुका है सिद्ध है तू शिशु अभी अज्ञान, फूल कांटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान। खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार काट लेगा अंग तीखी है बड़ी यह धार। आज हम धर्म को भूल गये हैं। लोगों कि भावुकता को आज विज्ञान किं वजह से ठेस पहुंचती है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण आज हम हमारी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। मानव जो पहले पूर्णतया भगवान पर आस्था रखता था वह अब नास्तिक बनने लगा है। विज्ञान तर्क पर आधारित है और अहिंसा श्रद्धा पर, धर्म पर श्रद्धा न होने के कारण मानव दिल कि जगह दिमाग से काम ले रहा है। वैज्ञानिक प्रगति के लिए हम अपनी संस्कृति के चिह्नों को मिटाते चले जा रहे हैं। आज के युग में विज्ञान कि लौ प्रज्वलित है जबकि हमें अहिंसा का बिगुल बजाना है। आज आवश्यकता है विज्ञान के साथ-साथ अहिंसा की ज्योति प्रज्ज्वलित करने की। विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता धर्म की परिभाषा क्या है? इस पर विवाद हो सकता है, किन्तु अहिंसा ही धर्म कि आधारशिला है, मनुष्यता की आत्मा है - इस पर कोई विवाद नही है। ऐसे तो सभी धर्मो में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है किन्तु जैन धर्म ने इसे परम धर्म स्वीकार करके विश्व मानव को एक नया मार्ग दिखाया है। कुछ लोग यह सोचते हैं कि आज के वैज्ञानिक जीवन दर्शन में अहिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है, सच बात तो यह है कि आज के वैज्ञानिक भौतिकवादी जीवन दर्शन में ही अहिंसा का सर्वाधिक महत्त्व है। हर युग में अहिंसा का सर्वाधिक महत्त्व रहा है किन्तु उसका महत्त्व विज्ञान के युग में जितना है उतना कभी नहीं था। विश्व इतिहास में पहली बार आज सभी देश एक-दूसरे के समीप आ गए हैं, आवागमन के द्रुत साधनों के कारण विभिन्न देशों के बीच की सीमा रेखायें टूट गयी हैं लेकिन वैज्ञानिक जीवन दर्शन की यह विडम्बना है कि आज दो देशों के बीच की दीवारें तो टूट गयों किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच में दीवारें खड़ी हो गयीं। भाई-भाई के बीच पिता-पुत्र के बीच तथा गुरु-शिष्य के बीच नयी दीवारें खड़ी हो गयी हैं। ये दीवारे हैं-घृणा की, ईर्ष्या की, लालच की, शत्रुता की, क्रोध तथा अज्ञानता की। इन दीवारों को विज्ञान नहीं तोड़ सकता। इन दीवारों को केवल अहिंसा की विचारधारा ही तोड़ सकती है। वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण बुद्धि का इतना अधिक विकास हो गया कि हम चंद्रमा पर पहंचने तथा हिमालय की ऊंची-ऊंची चोटियों पर चढ़ने में सफल हो गये हैं, किन्तु दूसरी ओर हमारी आत्मा का इतना पतन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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