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७४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
हो गया है कि हम अपने पड़ोस में निवास करने वाले किसी गरीब बालक की भूख की कराह को सुनने में असमर्थ हैं। एक ओर बुद्धि का असीमित विकास हुआ है तो दूसरी ओर आत्मा तथा हृदय का असीम संकुचन। किसी विज्ञ ने ठीक ही कहा है कि इस वैज्ञानिक युग में हमारी बुद्धि तो एम०ए० की कक्षा में पहुंच गयी है किंतु आत्मा अभी बाल मंदिर में ही है। बुद्धि और आत्मा की इस दूरी को विज्ञान दूर नहीं कर सकता। इसे दूर कर सकती है केवल अहिंसा कि विचारधारा । विज्ञान ने हमें इतनी ताकत दी है कि हम विश्व को स्वर्ग बना सकते हैं, किन्तु इसके विपरीत हम विश्व को नरक बनाने में तुले हुए हैं। गांधी जी को विश्वास था कि अहिंसा धर्म, भावी विश्व का धर्म बनेगा। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि अहिंसा ही विश्व को विनाश से बचा सकती है। समाज में आदमी अकेला नहीं रहता। उसके आस-पास अनेक आदमी एवं जीव-जंतु निवास करते हैं। उन सबको इस विश्व में उसी प्रकार जीने का अधिकार है, जिस प्रकार हमें है। विभिन्न स्वभाव और विभिन्न विचारधाराओं के बीच हमें समाज में जीवन यापन करना पड़ता है इसके लिये हमारे पास सबसे बड़ी शक्ति है - सहनशक्ति और यह सहनशीलता अहिंसा से ही उत्पन्न होती है जिसकी आज के वैज्ञानिक युग को सर्वाधिक जरूरत है। मनुष्यों के बीच विचारधाराओं व विश्वासों का मतभेद हो सकता है । किन्तु इंसानियत में तो कोई मतभेद नहीं हो सकता । अहिंसा हमें इसी इंसानियत व सहनशक्ति उत्पन्न करने की शिक्षा देती है। अहिंसा की अत्यंत सूक्ष्म परिभाषा हैं वस्तुतः मनुष्यता की समस्त गतियां अहिंसा में व्याप्त होती हैं। अहिंसा ही मनुष्यता है, अहिंसा ही धर्मों का सार है, अहिंसा में मानवता की गरिमा है। संस्कृति की गरिमा भी अहिंसा से उत्पन्न हुई है। हिंसा पशुता है और अहिंसा मनुष्यता । पशु अपने मतभेदों का हिंसा से अर्थात् नख, दांत और सींग से निपटारा करता है । पशु से ऊंचा प्राणी होने के नाते आदमी का यह कर्तव्य है कि वह अपने बीच के मतभेदों को अहिंसा से हल करे ।
अहिंसा ही इस वैज्ञानिक युग को नई शक्ति और ज्योति देगी। अहिंसा विज्ञान विरोधी नहीं, वरन् विज्ञान को पूर्णता प्रदान करती है। अहिंसा ही बुद्धि और आत्मा एकता लाती है इसलिये अहिंसा को विज्ञान के क्षेत्र की आशा- किरण की संज्ञा दी गयी है।
सारांश यह है कि अहिंसा और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। अकेली अहिंसा अपूर्ण है और अकेला विज्ञान भी अपूर्ण है। हृदय पक्ष अर्थात् अहिंसा व बुद्धि पक्ष अर्थात् विज्ञान दोनों के समन्वय से ही मानव बुद्धि का परिष्कार संभव है। इसके संतुलित नींव पर ही मानव कल्याण का भव्य प्रासाद बन सकता है, अन्यथा नहीं। आज के वैज्ञानिकों के पास अहिंसा रूपी भावनात्मक, उदार और कोमल हृदय
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