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प्रज्ञापना-सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : २१
आख्यायिकानिश्रित, व उपघातनिश्रित । सत्यमृषा भाषा दस प्रकार की है-उत्पन्नमिश्रित, विगतमिश्रित, उत्पन्नविगतमिश्रित, जीवमिश्रित, अजीवमिश्रित, जीवाजीवमिश्रित, अनन्तमिश्रित, प्रत्येकमिश्रित, अद्धामिश्रित एवं अद्धाद्धमिश्रित । इसीप्रकार असत्यामृषा भषा के १२ प्रकार हैं- आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, पृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छालोमा, अनभगृहीता, अभिगृहीता, संशयकरणी, व्याकृता एवं अव्याकृता । अन्त में सोलह प्रकार के वचनों -- एकवचन, द्विवचन, बहुवचन, स्त्रीवचन, पुरुषवचन, नपुंसकवचन, अध्यात्मवचन, उपनीतवचन, अपनीतवचन, उपनीतापनीतवचन, अपनीतोपनीतवचन, अतीतवचन, प्रत्युत्पन्नवचन, अनागतवचन, प्रत्यक्षवचन व परोक्षवचन का उल्लेख किया गया है। (८३०-९००) शरीरपद
__बारहवें शरीरपद में पांच शरीरों की अपेक्षा से २४ दण्डकों में से किसके कितने शरीर होते हैं । इसमें औदारिक, वैक्रयिक, आहारक, तैजस और कार्मण इन पांच शरीरों की अपेक्षा से जीवों का वर्णन है । (९०१-९२४) परिणामपद
तेरहवें परिणामपद में जीव के दस प्रकार के परिणाम बतलाये गये हैंगतिपरिणाम, इन्द्रियपरिणाम, कषायपरिणाम,लेश्यापरिणाम, योगपरिणाम, उपयोगपरिणाम, ज्ञानपरिणाम, दर्शनपरिणाम, चारित्रपरिणाम और वेदपरिणाम (१-३)। अजीवपरिणाम भी दस प्रकार का होता है- बंधनपरिणाम, गतिपरिणाम, संख्यानपरिणाम, भेदपरिणाम, वर्णपरिणाम, गंधपरिणाम, रसपरिणाम,स्पर्शपरिणाम,अगुरूलघुपरिणाम तथा शब्दपरिणाम। (९२५-९५७) कषायपद
चौदहवें कषायपद में क्रोधादि चार कषाय, उनकी प्रतिष्ठा, उत्पत्ति, प्रभेद तथा उनके द्वारा कर्म-प्रकृतियों के चयोपचय एवं बन्ध की प्ररूपणा की गई है । प्रकार के सन्दर्भ में क्रोध, मान, माया, लोभ; उत्पत्ति के सन्दर्भ में -क्षेत्र, वस्तु, शरीर व उपधि तथा प्रभेदों में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान एवं संज्वलन आदि चार कषायों का निर्देश किया गया है ।(९५८-९७१) इन्द्रियपद
पन्द्रहवें इन्द्रियपद में दो उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, और स्पर्शेन्द्रिय इन पांच इन्द्रियों का संस्थान आदि २४ द्वारों के आश्रय से जीवों का वर्णन किया गया है। दूसरे उद्देशक में इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिर्वर्तना, निर्वर्तनासमय, इन्द्रियलब्धि, इन्द्रिय-उपयोग आदि तथा इन्द्रियों की अवगाहना, अवग्रह, धारणा
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