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________________ प्रज्ञापना- सूत्र एक समीक्षात्मक अध्ययन : २५ परिचारणापद चौंतीसवें परिचारणापद (प्रवीचार) में अनन्तरागत आहारक (उत्पत्ति के समय तुरन्त आहार करने वाला), आहार विषयक आभोग और अनाभोग, आहार रूप से ग्रहण किये हुए पुलों की अज्ञानता, अध्यवसायकथन, सम्यक्त्तव - प्राप्ति तथा कायस्पर्श, रूप, शब्द और मन के सम्बन्ध में परिचारणा-विषयोपभोग, उनका अल्प- बहुत्व इन अधिकारों का वर्णन है । (२०३२-२०५३) वेदनापद पैंतीसवें वेदनापद में शीत, उष्ण, शीतोष्ण, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, शारीरिक, मानसिक, शारीरिक-मानसिक; साता, असाता, साता-असाता; दुःखा, सुखा, अदुःखासुखा; अभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी; निदा (चित्त की संलग्नता ), अनिदा नामक वेदनाओं के आश्रय से जीवों का वर्णन है । (२०५४-२०८४) समुद्घातपद अन्तिम छत्तीसवें समुद्घातपद में वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तैजस, आहारक और केवलिसमुद्घात का विस्तार से वर्णन किया गया है । ( २०८५ - २१६७) दार्शनिक समीक्षा प्रज्ञापना का दर्शन के क्षेत्र में विशिष्ट अवदान है। भगवान महावीर के समय में श्रमण परम्परा के अन्य पांच सम्प्रदाय विद्यमान थे । उन पांचो सम्प्रदाय का नेतृत्व क्रमशः पूरण कश्यप, मंखलीगोशालक, अजितकेश कम्बल, पकुध कात्यायन और संजय वेलट्ठिपुत्त कर रहे थे। साथ ही तथागत बुद्ध की भी परम्परा उनके सामने थी। यदि हम उन सभी धर्माचार्यों के दार्शनिक पहलुओं का चिन्तन करें तो स्पष्ट होगा कि भगवान महावीर ने जीव- अजीव तत्त्वों का जैसा सूक्ष्म विश्लेषण किया, वैसा सूक्ष्म विश्लेषण उस युग का कोई भी धर्माचार्य नहीं कर सका । भगवान बुद्ध तो 'अव्याकृत' कहकर आत्मा, परमात्मा सम्बन्धी प्रश्नों को टालते रहे। जबकि जीव एवं अजीव जैन दर्शन के केन्द्रीभूत विषय रहे हैं । समस्त दार्शनिक विश्लेषण इन्हीं दो तत्त्वों के परितः घूमता है। जैन दर्शन ही नहीं अपितु समस्त भारतीय दर्शन का ध्येय है- दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति या मोक्ष प्राप्ति और मोक्ष का समूचा सिद्धान्त जीव के लिये ही तो है । प्रज्ञापना इन जीव और अजीव तत्त्वों का अनेक आयामों से विशद् विवेचन करती है। जीव एवं अजीव की चर्चा आगमों में - समवायांग, स्थानांग, जीवाजीवाभिगम, षट्खण्डागम आदि में अनेक आचार्यों द्वारा की गयी है । किन्तु जितना सूक्ष्म विवेचन प्रज्ञापना में उपलब्ध है वह अन्यत्र दुर्लभ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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