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२४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८
आहारपद
अट्ठाईसवें आहारपद के पहले उद्देशक में सचित्ताहारी आहारार्थी कितने काल तक, किसका आहार करता है, क्या सर्वात्मप्रदेशों द्वारा आहार करता है? कितना भाग आहार करता है? क्या सर्वपुद्गलों का आहार करता है, किस रूप से उसका परिणमन होता है ? क्या एकेन्द्रिय शरीर आदि का आहार करता है ? लोमाहार और मनोभक्षी क्या है -आदि का विचार किया गया है (१-९) । दूसरे उद्देशक में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति-- इन तेरह अधिकारों का वर्णन है । (१७९३-१९०७)
उपयोगपद
उनतीसवें उपयोगपद में साकार उपयोग और अनाकार उपयोग इन दो उपयोंगों की चर्चा की गयी है । साकार उपयोग के आठ भेद होते हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मति - अज्ञान, श्रुत- अज्ञान व विभंगज्ञान । अनाकार उपयोग चार होते हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन व केवलदर्शन। (१९०८१९३५)
पश्यत्तापद
तीसवें पश्यत्तापद में भी पूर्ववत साकारपश्यत्ता और अनाकार - पश्यत्ता ये दो भेद बताकर पुनः साकारपश्यत्ता के श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मति - अज्ञान, श्रुत- अज्ञान व विभंगज्ञान भेद और अनाकार पश्यत्ता के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन व केवलदर्शन आदि तीन भेद किये गये हैं । (१९३६१९६४)
संज्ञीपद
इकतीसवें संज्ञीपद में संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी के आश्रय से जीवों का वर्णन है । (१९६५-१९७३)
संयतपद
बत्तीसवें संतपद में संयत, असंयत और संयतासंयत के आश्रय से जीवों का वर्णन किया गया है । (१९७४-१९८०)
अवधिपद
तैंतीसवें अवधिपद में विषय, संस्थान, अभ्यंतरावधि, बाह्यावधि, देशावधि, क्षय-अवधि, वृद्धि - अवधि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती- इन द्वारों की व्याख्या की गयी है । (१९८१-२०३१)
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