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४२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८
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की भी आवश्यकता है, परीषह साधक के लिए बाधक नहीं, साधक है। अतः परीषहों के उत्पन्न होने पर उसे समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। उपसर्गजय - नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव गति के जीवों द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को उपसर्ग कहते है। इनको समभाव से सहन कर लेना उपसर्गजय कहलाता है। उपसर्ग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। साधु के २२ परीषह बताऐ गये हैं जिन पर वह विजय पाता है। उयराध्ययन', समवायांग और तत्त्वार्थसूत्र' में २२ परीषहजय का वर्णन इस प्रकार है :
क्षुधा - भोजन सम्बन्धी कष्ट को शांति से सहन करना। २. पिपासा - पानी सम्बन्धी कष्ट को समभाव से सहन करना।
शीत - ठंडी हवा व हिम को शांति से सहन करना। ४. उष्ण - गर्मी के कष्ट को समभाव से सहन करना।
दंश-मशक - मच्छर, कीड़े, मकोड़े आदि के काटने से उत्पन्न कष्ट को सहना। अचेल - वस्त्र रहित या अल्प वस्त्र सहित हो जाने पर किसी प्रकार की चिंता नहीं करना। अरति - संयम के प्रति अधैर्य को सहन करना। स्त्री - स्त्री को निहार कर काम-किल न होना स्त्री-परीषहजय है। चर्या - किसी गृहस्थ या घर आदि मे आसक्ति न रखकर ग्रामानुग्राम विचरण करना।
निषद्या - जंगली जानवरों की आवाज सुनकर भयभीत न होना। ११. शय्या - सोते समय उंची-नीची, उबड़-खाबड़ शय्या को सहन
करना। १२. आक्रोश - प्रतिकूल वचन व व्यवहार पर आक्रोश न आना।
वध - तीक्ष्ण शस्त्रों से वध होने पर वध करने वाले के प्रति राग-द्वेष
न करना। १४. याचना -- भिक्षा के समय दीनता न लाना।
अलाभ - अभिलक्षित वस्तु न मिलने पर सम रहना। १६. रोग- शरीर में रोग उत्पन्न होने पर समभाव रखना। १७. तृण स्पर्श - तृणों पर शयन करने पर होने वाले कष्ट को समभाव से
सहन करना। १८. जल्ल - पसीना, कीचड़, धूलि आदि के शरीर पर इक्कठा हो जाने
पर उसे दूर करने का प्रयास न करना। १६. सत्कार-पुरस्कार - प्रशंसा-निंदा की स्थिति में सम रहना।
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