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________________ ४८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १/जनवरी-मार्च २००८ a) सविचार भक्त प्रतिज्ञा b) अविचार भक्त प्रतिज्ञा यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचार भक्त प्रत्याख्यान किया जाता है। जब कि सविचार भक्त प्रत्याख्यान अर्हम्, लिंग आदि चालीस पदों द्वारा लिए जाने का विधान किया गया है। iii. इंगिणीमरण इंगिणीमरण का अर्थ है अपने अभिप्राय के अनुसार रह कर होने वाला मरण। इंगिणी शब्द का तात्पर्य इंगित अर्थात् संकेत से है। इंगिणीमरण का इच्छुक साधु संघ से निकलकर या अलग होकर गुफा में एकाकी आश्रय लेता है। इसमें वह अपनी सेवा स्वयं करता है, दूसरे से नहीं कराता। इसका कोई सहयोगी साधु नहीं होता। स्वयं अपना संस्तारक बनाता है और स्वयं अपनी परिचर्या करता है। ५. पण्डित-पण्डितमरण सम्यक्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की उत्कृष्टतम स्थिति मे जीव पण्डितपण्डितमरण को प्राप्त होता है। गुणस्थान की अपेक्षा से जीव जब बारहवें गुणस्थान को स्पर्श कर लेता है तो वह वीतराग हो जाता है, उसके कषाय समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं कषाय आश्रव पूर्ण रूप से क्षीण हो जाते हैं। तेरहवें गुणस्थान में मात्र योग आश्रव रहता है इस कारण वह सयोगी केवली कहलाता है तथा जब जीव आत्मशुद्धि की उत्कृष्टतम स्थिति चौदहवां गुणस्थान को प्राप्त करता है तो योग आश्रव भी समाप्त हो जाता है तथा जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। ऐसी शुद्ध आत्मा का मरण पण्डित-पण्डितमरण कहलाता है। आठवें गुणस्थान को प्राप्त करने पर अगर जीव क्षपक श्रेणी ले लेता है तो वह मोक्ष को प्राप्त होता है। और आठवें गुणस्थान में जीव उपशम श्रेणी ले लेता है तो ग्यारहवें गुणस्थान उपशांत मोह को प्राप्त कर नीचे गिर जाता है तथा पहले गुणस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक भी गिर सकता है। पण्डित-पण्डितमरण सर्वोत्तम मरण है।" इस प्रकार परीषहजय, उपसर्गजय संयम-साधना का मुख्य सूत्र है। इससे समभाव फलित होता है। सल्लेखना व्रत संयम-साधना का सहयोगी तत्त्व है। अतः परीषहजय एवं उपसर्गजय सल्लेखना व्रत की साधना के पूरक हैं। इनके पुष्ट होने पर सल्लेखना व्रत प्राणवान बनता है। वर्तमान युग घोर अज्ञान का युग है। मानव भौतिकता की चकाचौंध में लुप्त है। अज्ञान के कारण अनैतिकता, अशांति, कदाग्रह, आंतकवाद, संग्रहवृति, असंवेदनशीलता अमानवीय गुणों का विस्तार हो रहा है। इस कारण प्रकृति (पर्यावरण) को दूषित किया जा रहा है तथा उसका अंधाधुंध दोहन हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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