SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परीषह एवं उपसर्गजय के संदर्भ में सल्लेखना व्रत : रहा है। इसके बदले में प्रकृति हमें असाध्य बिमारियों, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, पानी की कमी आदि दण्ड के रूप में प्रदान कर रही है। अगर हम वर्तमान युग में मानवीय एकता, सदाचार, भाईचारा, शांति, अनाग्रह, संवेदनशीलता, नैतिकता आदि मानवीय गुणों को बढ़ाना चाहें तो हमें परीषहजय, उपसर्गजय के सिद्धान्त को आत्मसात करना होगा। परीषहजय से इच्छा - परिमाण, अनासक्ति, वैराग्य व मैत्री भावना की वृद्धि होती है। संदर्भः १. २. ३. ४. ५. ६. ७. जैन सिद्धांत दीपिका - आचार्य श्री तुलसी, ७/२३ पृ. सं. ५२ तत्त्वार्थसूत्र - ९/ २३ आगम वाणी, भगवान महावीर तत्त्वार्थसूत्र - ९/८ उत्तराध्ययनसूत्र - ३० / २७ समवायांग- समवाय २२ तत्त्वार्थसूत्र - ९/१०-१२ ८. मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम-रघुवंशम्, कालिदास, ८/८७ ९. आप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. ७७७ १०. भगवती आराधना (विजयोदया टीका) पृ. ४९, गाथा २५ की टीका, प्रकाशक- जैन संस्कृति संरक्षण संघ, सोलापुर १९. वही पृ. ४९ १२. आप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. ७७७ १३. अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे वा । भगवती आराधना (विजयोदया टीका), पृ. ५० १४. आयुषः क्षयस्य मरणहेतुत्वात् - धवला १५. स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणां बालानां च कारणवशात्संक्षयो मरणम् । सर्वार्थसिद्धि, पृ. ३६२ १६. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग-३, पृ. २७८ १७. संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।। भगवद्गीता, २/३४ १८. वही, २/२२ Jain Education International ४९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy