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________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक १ / जनवरी-मार्च २००८ वैदिक धर्मानुयायियों में जो ख्याति और महत्त्व गायत्री मंत्र का है, बौद्धों में त्रिसरण / त्रिशरण मंत्र का है, जैनों में वही ख्याति और महत्त्व नवकारमंत्र का है। समस्त धार्मिक और सामाजिक कृत्यों के आरम्भ में इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है। जैन समाज की सभी शाखाओं में यह समान रूप से प्रचलित है। नवकार मंत्र एक लोकोत्तर मंत्र है। इसमें किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण रूप में विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन, स्मरण, चिन्तन, ध्यान एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयात्मक मंत्र है। लौकिक मंत्र आदि सिर्फ लौकिक लाभ पहुँचाते हैं, किन्तु लोकोत्तर मंत्र लौकिक और लोकोत्तर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं। इसलिए नवकारमंत्र सर्वकार्य सिद्धिकारक मंत्र माना जाता है। सभी धर्मावलम्बियों ने अपने-अपने धर्म में एक मूलमंत्र को स्थान दिया है, परन्तु वे नवकार महामंत्र से भिन्नता रखते हैं, क्योंकि उन मंत्रों में प्रतीक रूप में व्यक्ति5- पूजा को प्रथम स्थान दियागया है, जबकि नवकारमंत्र में व्यक्ति-पूजा के स्थान पर गुणपूजा को महत्त्व दिया गया है। व्यक्ति-पूजा में शक्ति सीमित होती है, जबकि गुणपूजा की शक्ति असीम, अनंत होती है। नवकारमंत्र में गुणपूजा की प्रधानता है, व्यक्ति-पूजा की नहीं । 'अभिधान राजेन्द्रकोष' में 'णमो' शब्द के तीन प्रकार दर्शाये गये हैं- १. समुत्थानपूर्वक (काय से) २. वचनपूर्वक (वचन से) ३. लब्धिपूर्वक (भाव से)। वही नमस्कार कर्मक्षय का हेतुभूत बनता है जो मन-वचन-काय से किया जाता है। जहाँ नमस्कार करने का परिणाम ही नहीं है वहाँ नमस्कार द्रव्य-नमस्कार की श्रेणी में आता है । फलत: वह कर्मक्षय का निमित्त नहीं बन सकता। किसी भी या कैसी भी आत्मा को नमस्कार करने से कर्मक्षय नहीं होता है। उसके लिए योग्य उत्तम आत्मा जो श्रेष्ठ स्थान पर रहता है जो परमेष्ठी कहलाता है, उसे नमस्कार करने से कर्मक्षय होता है। " जगत् के सर्वोत्तम श्रेष्ठ स्थान पर स्थित आत्माएँ पाँच हैं- अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनको पंच-परमेष्ठी कहा गया है, क्योंकि अरिहन्त का मार्गोपदेशितपना, सिद्ध का शाश्वतपना, आचार्य की आचार पालनता, उपाध्याय का विनय गुण एवं साधु का सहायकत्व गुण अत्यन्त उत्कृष्ट होने से ये पाँचो पूज्य हैं, श्रेष्ठ हैं, नमस्करणीय व परमश्रेष्ठ पुरुष हैं।' जगत् में इन पाँचों के अलावा कोई परमश्रेष्ठ पुरुष नहीं है, अत: इन पाँचों में समाविष्ट आत्माओं को किया गया नमस्कार ही कर्मक्षय में निमित्त बनता है। नवकार महामंत्र चौदह पूर्वों का सार है। विश्व की समस्त शाब्दिक विशिष्टता, ज्ञानराशि चौदह पूर्वों में समा जाती हैं। इसलिए इस महामंत्र को महासागर की उपमा दी गई है। यह केवल मंत्र ही नहीं, अपितु महामंत्र है। यह महामंत्र क्यों है इसके समाधान में कुछ तथ्य निम्न है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525063
Book TitleSramana 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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