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विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता
वस्तुतः सत्य है। बिना किसी पूर्वधारणा के इस सत्य को अंगीकार करना चाहिए। विज्ञाननिष्ठा कोई २०वीं शताब्दी की धरोहर नहीं है। वैज्ञानिक वृत्ति का ऊहापोह प्राचीन भारतीय वाङ्मय में भी मिलता है,
'बुद्धि: पूर्वाः वाक्य कृतिर्वेदः । '
वेद वाक्य इसलिए प्रमाण है क्योंकि उनकी रचना बुद्धिपूर्वक वैज्ञानिक ढंग से की गई है। मनु कहते हैं
"यस्तर्केण अनुसंधते स धर्माम वेदनेतर'
जो तर्क से वैज्ञानिक उहापोह से, अनुसंधान करता है वह ही केवल धर्म को जान सकता है। आचार्य चाणक्य भी कहते हैं
'विज्ञानेन आत्मा सम्पादयेत'
अर्थात् सच्चे विज्ञान से ही आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।
संसार में जिस तत्त्व की मीमांसा करनी है वह तत्त्व 'सत्य' है। सत्य और केवल सत्य की उपलब्धि ही ज्ञान का ध्येय है। दूसरे शब्दों में कहें तो 'ज्ञानेन मुक्तिः ' यह ज्ञानोपलब्धि ही मोक्ष है। विज्ञान और धर्म को मानवीय जीवन में जब तक एकदूसरे से भिन्न नहीं समझा गया तब तक अनेक विद्वानों ने (चरक, वराहमिहीर, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, कणाद, जैमिनी, भारद्वाज) जन्म लिया । साहित्य, संगीत, कला कौशल इस धरती को गौरवान्वित करते रहे। लेकिन वैज्ञानिक धर्मरूपी सूर्य छिप गया और लोगों ने अज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए तरह-तरह के धार्मिक दीपक जलाना शुरू कर दिया। फिर भी अंधकार नष्ट नहीं हुआ । विज्ञान और अहिंसा में अवरोध पनपने लगा।
भगवान महावीर ने कहा है?,
रागदीणमणुप्पाओ, अहिंसाकत्तं त्ति देसियं समए ।
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तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिदिठ्ठा । । '
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अर्थात् राग आदि की अनुत्पत्ति अहिंसा है और उनकी (राग-द्वेषादि) उत्पत्ति हिंसा | विज्ञान ने नए-नए आविष्कार किए। उदेश्य तो उनका सेवा-सुविधा का था, परंतु अहिंसा के संस्कार के अभाव में वैज्ञानिक आविष्कारों का दुरुपयोग होने लगा। आज जेनेटिक इंजीनियरिंग की सहायता से मॉडिफाइड फुड अर्थात् आनुवांशिकी संशोधित खाद्यपदार्थ बनाये जा रहे हैं। मतलब शाकाहारी खाद्य पदार्थों में जन्तुओं के
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