Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta, 
Publisher: Abhay Jain Granthalay
Catalog link: https://jainqq.org/explore/034112/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन मरु-गूर्जर कवि और उनकी रचनाएं भाग १ व्यापार सीमानेर संपादक अगरचन्द नाहटा प्रकाशक श्री अभय जैन ग्रन्थालय नाहटों को गवाड़, बीकानेर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। । योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। ।। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोधसंस्थान एवं ग्रंथालय) पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक: १२८७ बन आराधना महावार . कन्द्रको कोबा. अमृतं तु विद्या तु श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079)23276252,23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर हॉटल हेरीटेज़ की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष में अभय जैन ग्रन्थमाला ग्रन्थांक ३४ - नैन मरु-गूर्जर कवि और उनकी रचनाएं [जैन गूर्जर कवियो भाग १-२-३ को अनुपूर्ति ] भाग १ [ ११वीं से १६वीं शताब्दी तक का ] संपादक अगरचन्द नाहटा द्रव्य सहायक श्री जैन श्वेताम्बर कॉन्फ्रेन्स, बम्बई प्रकाशक श्री अभय जैन ग्रन्थालय नाहटों को गवाड़, बीकानेर मूल्य पांच रुपया बद २०३१ Phone : मुद्र क-एजूकेशनल प्रेस, फड़ बाजार, बीकानेर For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्पादकीय भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है । प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल आदि भारत की सभी प्रधान भाषाओं और धर्म, दर्शन, काव्य, कथा, ज्योतिष, वैद्यक प्रादि जीवनोपयोगी प्रत्येक विषय का जैन साहित्य प्रचुर परिमाण में प्राप्त है । ज्यों-ज्यों खोज की जाती है, नित्य नई जानकारी व सामग्री प्रकाश में आती रहती है । प्राप्त जैन साहित्य का विवरण संग्रहीत करने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई वकील - हाईकोर्ट बम्बई ने किया था । उन्होंने 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' और 'जैन गूर्जर कविओो' भाग १-२-३ के नाम से जो ग्रन्थ करीब ३५ वर्ष के निरन्तर और अथक प्रयत्न से तैयार किये थे, वे जैन श्वेताम्बर कॉन्फ्रेन्स बम्बई की ओर से संवत् १६८२ से संवत् २००० के बीच गुजराती में प्रकाशित हुए । इस भगीरथ कार्य को इतनी लगन और परिश्रम से सम्पन्न किया कि आज तक वैसा और किसी के द्वारा नहीं हो पाया । 'जैन गुर्जर कविप्रो' के तीन भागों में लगभग १ हजार कवियों एवं २०० गद्य लेखकों की ३-४ हजार रचनाओं का विवरण ४ हजार से अधिक पृष्ठों में प्रकाशित हुआ है । श्री देसाई के 'कविवर समयसुन्दर' नामक निबंध से प्रेरणा प्राप्त करके हमने (मैं और मेरे भातृ-पुत्र भंवरलाल ने जैन साहित्य के खोज का काम सं. १६८५ से आरम्भ किया और उसी प्रसंग से देसाई से हमारा सम्पर्क बढ़ता गया । जब उनका जैन सूर्जर कवियो का तीसरा भाग छप For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहा था तो हमने उन्हें अपनी खोज से जो नवीन तथा प्रशात सामग्री हमें मिली थी उसका विवरण उन्हें भिजवा दिया। तदन्तर हमारे यहां बीकानेर आकर भी उन्होंने काफी रचनाओं का विवरण तैयार किया, इसी से तीसरा भाग इतना बड़ा बन सका। हमारा शोध-कार्य निरन्तर प्रगति करता रहा, फलतः हमें उपरोक्त तीनों भागों में जिन कवियों और रचनाओं का उल्लेख नहीं हो पाया था, उनकी बहुत बड़ी सामग्री और जानकारी प्राप्त होती गई । अतः यह निर्णय किया गया कि अज्ञात कवियों और उनकी रचनाओं तथा ज्ञात कवियों और उनकी अज्ञात रचनाओं का विवरण देसाई के तीनों भागों की पूर्ति रूप में तैयार किया जाय । उसी के फलस्वरूप कई वर्षों के प्रयत्न से हमने एक बड़ा ग्रन्थ तैयार किया जिनमें ११वीं से १६वीं शताब्दी तक के कवियों और रचनाओं का विवरण इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में प्रकाशित किया जा रहा है। यद्यपि इस अवधि को अधिकांश रचनाए छोटी-छोटी हैं पर वे परवर्ती कवियों के लिए प्रेरणा-स्रोत रही हैं और विविध प्रकार की हैं। इसलिए उन छोटी-छोटी रचनाओं का भी विवरण देना आवश्यक समझा गया। १६वीं के बाद तो बड़ी-बड़ी रचनाएं बहुत मिलने लगती हैं और १७वीं शताब्दी तो जैन साहित्य और इतिहास का स्वर्ण युग है, इसलिए उस शताब्दी के कवियों और उनकी रचनाओं का एक स्वतंत्र भाग ही तैयार हो गया है। १८वीं में भी वह क्रम चालू रहा। १९वीं में कुछ मन्दता आयी और २०वीं के पूर्वाद्ध की तो बहुत थोड़े कवि और रचनाए ही ज्ञात हैं। उत्तरार्द्ध से मुद्रण का प्रसार बढ़ता गया और विवरण केवल जैन भण्डारों में प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों से ही लिया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ के नाम में भी कुछ परिवर्तन करना आवश्यक समझा गया क्योंकि श्री देसाई ने अपने ग्रन्थ का नाम 'जैन गूर्जर कविप्रो' रखा था पर उसमें केवल गुजरात के कवियों या केवल गुजराती भाषा की रचनाओं का विवरण न होकर मारवाड़-राजस्थान आदि प्रान्तों के For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन कवियों और उनकी मरु-भाषा की रचनाओं का विवरण भी काफी बड़ी संख्या में था अतः वह नाम सार्थक नहीं लगा । यद्यपि १५वीं शताब्दी तक मरु और गूर्जर दोनों प्रान्तों की भाषा एक ही थी पर १६वीं शताब्दी से उनका अन्तर स्पष्ट होता गया व बढ़ता गया, इसलिए दोनों भाषाओं का संयुक्त नाम 'मरु गुर्जर' कहना या लिखना ज्यादा उचित हैं । इसी कारण इस ग्रन्थ का नाम मरु गूर्जर कवि और उनकी रचनाएं रखा गया है । जैन गुर्जर कवित्र ग्रन्थ का प्रकाशन जैन श्वेताम्बर कॉन्फरेन्स की ओर से हुआ था, इसलिए मैंने भी अपने ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए कॉन्फरेन्स को लिखा पर उक्त संस्था ने इसके लिए केवल १ हजार रु. ही प्रार्थिक सहयोग श्री ताजमल जी बोथरा की प्रेरणा से स्वीकार किया जिससे पूरा ग्रन्थ प्रकाशित होना संभव ही नहीं था । अतः यह प्रथम भाग ही प्रकाशित होने पा रहा है । ग्रन्थ को प्रेस में देने के बाद कागजों के भाव आकाश को B गये तथा छाई भी काफी बढ़ गयी इसलिए बीच में काफी समय तक मुद्ररण रुका रहा श्रतः प्रकाशन में काफी देरी हो गई है। आगे के भागों का प्रकाशन तो भविष्य पर ही निर्भर है । इस ग्रन्थ को तैयार करने में मेरे सहयोगी भ्रातृ पुत्र भंवर लाल तथा अन्य कई व्यक्तियों का सहयोग प्राप्त हुआ है और प्रकाशन में कॉन्फरेन्स व श्री ताजमल जी बोथरा का सहयोग मिला इसके लिए उनका व अन्य समस्त सहयोगियों के प्रति मैं प्राभार प्रगट करता हूँ । प्रस्तुत ग्रन्थ के आगे के भाग भी शीघ्र प्रकाश में आयें, यही शुभ कामना है । - अगरचन्द नाहटा For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra क्र. सं. कवि का नाम १ पं. धनपाल २ वर्द्धमान सूरि ३ पल्ह कवि ४ श्रीजिनदत्तसूरि भक्त ५ धर्मसूरि शिष्य ६ श्री. लखरण (लक्ष्मण) ७ वज्रसेन सूरि ८ सिरिमा महतरा ६ प्रासिगु १० जिनपति सूरि शिष्य ११ १२ सुमति गरिण १३ शाह रयरण १४ कवि भत्तउ 31 21 33 31 १५ पाल्हरणु १६ जिनेश्वर सूरि १७ जिनेश्वर सूरि शिष्य " "" "" अनुक्रमणिका रचना का नाम ११वीं शताब्दी १ सत्यपुरीय महावीर उत्साह "" www.kobatirth.org बारहवीं शताब्दी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ वीर जिणेसर पारणउ ३ जिनदत्तसूरि स्तुति ४ श्री जिनदत्तसूरि स्तुति ५ धर्मसूरि बारह नावउं (बारहमासा) तेरहवीं शताब्दी ६ जिनचन्द्रसूरि काव्याष्टक ७ श्री भरहेसर बाहुबलि घोर जिनपतिसूरि बधामरणा गीत 5 17 पृष्ठ संख्या ६ चन्दनबाला रास १० बालाबबोध प्रकरण ११ शांतिनाथ रास १२ श्री नेमिनाथ रास १३ श्री जिनपति सूरि धवलगीत १४ श्री जिनपति सूरि गीत १५ नेमिबारहमासो रासो १६ श्री महावीर जन्माभिषेक: १७ श्री ग्रादिनाथ बोलिका १८ श्री वासुपूज्य बोलिका १६ २० शांतिनाथ बोलिका 31 For Private and Personal Use Only १ ४ ४ 27 9 9 ५ ε w १० ११ १२ १२ १३ १४ १५ १५ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __ " २१ श्री महावीर बोलिका " २२ श्री जिनेश्वर सूरि (मदनयुद्ध) जिनेश्वर सूरि शिष्य २३ मंगल गाथा २४ गुरु गुण षट्पद १७ १८ अज्ञात २५ अंबिकादेवी पूर्व भव वर्णन तलहरा २६ श्री वीर तिलक चौपाई २० कवि छल्हु २७ श्रेत्रपाल द्विपदिका १६ २१ अज्ञात २८ मयणरेहा रास २२ अमरप्रभ सूरि शिष्य २६ संख वापी पुर मण्डण श्री महावीर स्तोत्रम् । २१ २३ देल्हरिण ३० गयसुकमाल रास चौदहवीं शताब्दी २४ लक्ष्मी तिलक ३१ श्री शांतिनाथ देवरास २५ सोममूर्ति ३२ गुरावली रेलुमा .. ३३ श्री जिनप्रबोध सूरि चच्चरी ३४ जिन प्रबोध सूरि बोलिका २६ पद्मरत्न ३५ श्री जिन प्रबोध सूरि वर्णन २७ ठक्कुर फेरू ३६ श्री युगप्रधान चतुःपदिका २८ लखमसीह ३७ श्री जिनचन्द्र सूरि वर्णना २६ जिनचन्द्र सूरि शिष्य ३८ जिनचन्द्र सूरि फावर ३६ श्री जिनचन्द्र सूरि चतुष्पदी ३० सहजज्ञान ४० श्री जिनचन्द्र सूरि वोवाहलउ ३१ चारित्रगण ४१ श्री जिनचन्द्र सूरि रेलुआ ३२ खजिनचन्द्र सूरि शि.४२ युगवर गुरु स्तुति ३३ हेमतिलक सूरि शिष्य ४३ श्री हेमतिलक सूरि संधि " For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१ AM । AD ३५ ३५ ३६ ३४ ख. जिनप्रभ सूरि शि. ४४ जिनप्रभ सूरि गीत त्रय ३५ जयधर्म(ख. जिन कुशल सूरि शिष्य) ४५ श्री जिनकुशल सूरि रेल्हुया ३६ अज्ञात ४६ श्री जम्बूस्वामि सत्क वस्तु ३७ अज्ञात ४७ श्री थूलिभद्र मुनि (मदनयुद्ध) __ वर्णनाबोलि ४८ श्री शालिभद्र रेलुमा ४६ धर्म चच्चरी ५० कृपणनारी संवाद ५१ श्री चतुर्विशति जिन चतुष्पदिका ४२ शांतिभद्र ५२ चतुर्विशति नमस्कार ४३ अज्ञात ५३ चतुर्विशति तीर्थंकर नमस्कार ५४ मातृका बावनी ४५ वीरप्रभ मुनि ५५ श्री चन्द्रप्रभ कलश ४६ ख. जिनचन्द्र सूरि शि. ५६ श्री आदिनाथ बोली ४७ अज्ञात ५७ श्री नेमिनाथ बोली ५८ श्री युगादिदेव जन्माभिषेक कलश ५६ श्री युगादिदेव कलश ६० श्री चन्द्र प्रभ स्वामि कलश ६१ श्री वासुपूज्य कलश ५२ रामभद्र ६२ शांतिनाथ कलश ५३ अज्ञात ६३ श्री शांतिनाथ कलश ६४ श्री नेमिनाथ स्तवनम् ६५ श्री वीर जिन कलश ६६ श्री महावीर कलशः ३८ ३८ ३६ ४० ४८ " ४६ ५० ॥ ॥ For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७ अज्ञात ४५ ५८ ॥ x ५६ जिनपद्मसूरि ६० अज्ञात ४७ ६२ " ४८ ३ " ६५ धर्मसूरि ६६ अज्ञात ६७ श्री वीर जिन कलश ६८ सर्व जिन कलश ६६ श्री शत्रुञ्जय चतुर्विशति स्तवनम् ७० श्री स्थूलिभद्र बोली ७१ माल उघटणं ७२ आशातना षटपद ७३ शासनदेवता गीत पदानि ७४ ज्ञान छप्पय ७५ श्री समेत शिखर तीर्थ नमस्कार ७६ सम्मेत शिखर गीत ७७ श्री शत्रुञ्जय चैत्य परिवाड़ी ७८ श्री शत्रुजय महातीर्थ गीतम् ७६ स्थलिभद्र गीतम् ८० श्री सुरसण महारिषि गीतम् ८१ श्री स्थलिभद्र गीतम् । ८२ श्री वयरस्वामि गीतम् ८३ मधु बिन्दु गीतपद ८४ श्री सीमंधर स्वामि स्तवनम् ८५ गिरनार तीर्थ स्तवनम् ६८ " ७० " ७१ " rrr mr m ७४ शांतिसूरि ७५ अज्ञात ७६ " ७७ मंत्री धारिसिंह ७८ देवचन्द्र सूरि ७६ अज्ञात ८७ श्री नेमिनाथ धुल ८८ रावण पार्श्वनाथ वीनती ८६ जिनस्तवन ६० साऊका पार्श्वनाथ स्तवनम् ९१ कोका पार्श्वनाथ स्तवनम् ६२ महुरा पार्श्वनाथ जिन विज्ञप्ति ८० ॥ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३ अज्ञात ८४ राजशेखर ८५ उदयकरण ८६ विनयप्रभ ८७ अज्ञात ८८ मेरुनंदन r ६३ श्री आदिनाथ कलश १४ श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम् ६५ श्री जीराउला पार्श्वनाथ स्तोत्रम् ५६ ६६ श्री फलवद्धि पार्श्व स्तोत्र ६७ श्री सीमंधरस्वामि स्तवनम् १८ श्री विमलाचल आदिनाथ स्तवनम् ६० ९६ श्री अतरीक पार्श्वनाथ स्तवनम् पन्द्रहवीं शताब्दी १०० श्री गौतम स्वामि छंद १०१ श्री गौतम स्वामि छंद १०२ स्थूलभद्र छंद १०३ स्थूलभद्र छंद १०४ गौतम रास १०५ अंचल गच्छनायक गुरुरास १०६ जिनोदयसूरि गुरण वर्णन १०७ प्रथम नेमिनाथ फागु १०८ द्वितीय नेमिनाथ फागु ६७ १०६ जंबूस्वामि फाग ११० द्वितीय नेमिनाथ फागु १११ वसंत फागु ११२ श्री जयतिलक सूरि भास M M " ८६ रत्नशेखर सूरि ६० कान्ह ६१ पहुराज ६२ जयसिंह सूरि ६८ ६३ राजतिलक ९४ जयशेखर सूरि ६५ गुणचन्द सूरि ६६ अज्ञात द ६७ " ७१ ६६ जयकेशर मुनि १०० अज्ञात १०१ जयतिलक सूरि ११५ जयतिलक सूरि चउपई ११६ श्री जयतिलक सूरि भास ११७ गिरनार चैत्य परिपाटी For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३ ७४ ७६ ७७ ७८ १० " ११८ आबू चैत्य परिपाटी १०२ जयतिलक सूरि शिष्य ११६ श्री नेमिनाथ रास १२० सोपारा विनती १२१ आदिनाथ विवाहलउ १०३ अज्ञात १२२ मेरु तुग सूरीश्वर रास १२३ नागपुरीय गच्छ सुगुरु फाग १०५ उ.मुनि रत्न गणि शि. १२४ तपागच्छ गुरु नामावली १०६ अज्ञात १२५ श्री रत्नसागर सूरि भास १०७ " १२६ सुहगुरु चउपई १२७ श्री गुरु गीतम् १२८ तपागुरावली ११० वच्छ भण्डारी . १२६ आदिनाथ घनल १११ जिनवर्द्धन सूरि १३० पूर्व देश तीर्थमाला ११२ अज्ञात १३१ वर. गुरुवावली ११३ सिद्धसूरि १३२ पाटण चैत्य परिपाटी ११४ ख.जिनभद्रसूरि शि. १३३ खरतरगुरु गुण छप्पय ११५ देवदत्त ख. १३४ जिनभद्र सूरि धूवड़ ११६ मरदूदास १३५ जिनभद्रसूरि गीतम् ११७ जिनभद्रसूरि शिष्य १३६ श्री जिनभद्रसूरि गीतम् १३७ श्री जिनभद्रसूरि अष्टक ११८ धनराज १३८ मंगल कलश विवाहलु १३६ ११६ अज्ञात १४० नगरकोट चैत्य परिपाटी १२० सोमसुन्दरसूरि शि. १४१ देव द्रव्य परिहार चौपाई १२१ प्रज्ञात १४२ मृगा पुत्र कुलक १२ जयशेखरसूरि शि. १४३ उपधान सन्धि ८७ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२३ अज्ञात 37 १२४ १२५ १२६ सज्जरण सुत १२७ प्रज्ञात 77 १२८ "" "" १२६ १३० १३१ १३२ हरिकलश १२ "1 3:5 37 १३३ पद्मानंद सूरि १३४ अज्ञात १३५ १३६ परमानंद ? १३७ अज्ञात १३८ माणिक्य सूरि १३६ डुंगरु १४० धनप्रभ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ कयलपाट मंडरण पार्श्व स्तवनम् १४५ कयलवाड पार्श्वनाथ स्तोत्र १४६ श्री नाडुलाई महावीर स्तवनम् १४७ श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम् १४८ श्री चतुर्विंशति जिन स्तवनम् १४६ धर्माधर्म विचार ६३ ६३ ६४ ६४ ६५ ६५. ६६ ६६ ६७ ६७ ६८ हह && १६० श्री चउवीसवटा श्री पार्श्वनाथ चैत्य ६६ १६१ श्री चउवीसवटा पार्श्वनाथ स्तुति १०० १६२ वर्द्धनपुर चैत्य परिपाटी स्तवनम् १०० १६३ द्वादश भाषा-निबद्ध तीर्थमाला १०० १६४ कोशा प्रतिबोध १०१ १०२ १०२ १०३ १०३ १०४ १५० नदीसरवर चउपईं १५१ विमलाचल आदिनाथ स्तवनम् १५२ धर्म प्रेरणा दोहा १५३ कुरुदेश तीर्थमाला स्तोत्रम् १५४ पूर्व दक्षिण देश तीर्थमाला १५५ श्री गुजरात सोरठदेश तीर्थ माला १५६ बांगड़ देश तीर्थमाल स्तोत्रम् १५७ दिल्ली मेवाती देश चैत्य परिपाटी १५८ प्रदिश्वरं वीनती १५६ जीरावत्या वीनती १६५ शत्रुञ्जय चैत्य परिपाटी १६६ शत्र ुञ्जय चैत्य परिपाटी १६७ राजीमती उपालंभ स्तुति १६८ प्रलंभडा बारहमासा १६६ श्री नेमिनाथ झीलगा For Private and Personal Use Only ह १ ६२ २ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४१ रत्नाकरमुनि १४२ अज्ञात 23 १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ समरा १४८ राजलच्छी १४६ अज्ञात १५० कवियरण १५१ जयमूर्ति गरिण १५२ प्रज्ञात "" १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ १५८ १५६ १६० १६१ शांति सूरि "" 93 22 11 17 17 "" 22 33 "1 १६२ मतिशेखर १६३ अज्ञात (केहरू ?) १६४ अज्ञात १६५ कल्यारण चन्द्र www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० श्री नेमिनाथ वीनति १७१ श्री गिरनार भास १७२ गिरनार वीनति १७३ श्री नेमिनाथ वीनति १७४ बारहव्रत चउपई १७५ सुगुरु समाचारी १७६ नेमि चरित रास १७७ शिव चूला गणिनी विज्ञप्ति १७८ कीर्तिरत्न सूरि फागु १७६ मातृका फाग १८० मातृका १८१ दीपक माई १८२ आत्म बोध मातृका १८३ शृंगार माई १८४ वैराग्य चउपइ १८५ सुभाषित दोहि १८६ योगी वाणी १८७ सोधति नगर शांतिनाथ स्तवन For Private and Personal Use Only १०५ १०५ १०६ १०६ १०७ १०७ १०८ १०६ १०६ ११० १११ ११२ ११२ ११३ ११३ ११४ ११४ ११४ १८८ जीराउलि वीनती ११५ १८६ विमल मंत्री रास ११६ ११६ १६० श्री अर्बुदाचल हीयाली सोलहवीं शताब्दी ११६ १६१ बावनी ११७ १६२ जिनभद्र पट्टे जिन चन्द्र सूरि गीत ११७ १६३ रयरणावली ११८ १९४ कीर्तितरत्न सूरि वीवाहलउ १.१६ १.३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ww ०. ०० १२६ १७ ~ ~ १६५ श्री कीति रत्न सूरि चउपई १६६ विनयचूलागणिनी १६६ हेमरत्नसूरि फागु १६७ अज्ञात १६७ अमररत्नसूरि फागु १६८ सेवक १६८ शालिभद्र फागु १२१ १६६ लखमसीह १६६ शालिभद्र चौपई १७० देपाल २०० कायावेड़ी सझाय १२४ १७१ जयानंद २०१ ढोला मारू की वार्ता दोहाबद्ध । १२४ १७२ धनसार २०२ उपकेश गच्छ ऊएसागस १७३ कीरति २०३ श्राराम शोभारास १७४ लब्धिसागर सूरि २०४ वीशी १७५ कोल्हि २०५ कंकसेन राजा चौपई १७६ पद्ममंदिर २०६ गुणरत्नसूरि विवाहलउ २०७ श्री देवतिलेकोपाध्याय चौपाई १७७ क्षेमराज २०८ फलवर्धी पार्श्वनाथ रास १७८ अज्ञात २०६ प्रभव जबूस्वामि वेलि १३२ १७६ जयवल्लभ २१० नेमिपरमानंद वेलि १८० कनक २११ वल्कल चीर ऋषि वेलि १३३ १८१ सालिग २१२ बलभद्र वेलि १८२ अज्ञात २१३ हेमविमलसूरि विवाहलउ १३५ २१४ हेमविमलसूरि फाग। १३५ १८३ विनयरतन २१५ सुभद्रा चौपई १३६ १८४ हेमध्वज २१६ जैसलमेर चैत्य परिपाटी १३७ १८५ अज्ञात २१७ परनिंदा चौपाई १८६ भक्तिलाभ २१८ श्री जिनहंससूरि गुरु० १८७ भावसागरसूरि शिष्य २१६ चैत्य परिपाटी १४० १८८ विनय अज्ञात २२० महावीर २७ भवस्तवन or or WWW or १३६ १४० १४ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ १८६ कमल धर्म . २२१ चतुर्विशति जिनतीर्थमाला १६० धर्म समुद्र २२२ सुदर्शन चौपई १४२ १६१ विद्यारत्न २२३ मंगल कलश रास १४३ १९२ उ० हर्ष प्रिय २२४ शाश्वत सर्वजिन द्विपंचाशिका १४५ १६३ भाव उपाध्याय २२५ विक्रम चरित्र रास १४६ १६४ विनयसमुद्र २२६ विक्रम पंचदण्ड चौपइ २२७ नमिराजऋषि संधि १५० २२८ नमिराजऋषि कुतं २२६ चित्रसंभूति कुलक २३० इलापुत्र कुलक १५२ पूर्ति रूप संक्षिप्त विवरण २३१ साधु वंदना गाथा १०४ महिमा २३२ शील रास गाथा ४४ मोती० २३३ सिंहासन बतीसी चौपाई सं० १६११ बीकानेर अनुप० २३४ नल दवयंती चरित्र सं० १६१४ मोती० २३५ चौवीसी अभय २३६ बह्मचरी गाथा ५५ अनुप० १९५ पार्श्वचन्द्रसूरि २३७ चौवीसी अभय २३८. गच्छाचार पंचाशिका गाथा ५० अभय ० २३६ षडविंशति द्वार गभित वीर - स्तवन सं० गाथा ६५ अभय० १६६ अज्ञात २४० वाहणनु फाग गाथा १२ । सं० १५८७ प्र० १९७ पागम माणिक्य २४१ जिनहंस गुरु नवरंग फाग गाथा २७ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६८ प्रज्ञात १६६ देवसुंदर २०० माणिकराज २०१ उदय रत्न २०२ धरणचंद २०३ खेम २०४ ऋषिविजय २०५ माणिकसुंदर २०६ अज्ञात "" २०७ २०८ दयारत्न शिष्य २०६ ईसर सुरि १६ "" www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ साधु वंदना गाथा २४७ २४३ आषाढ भूति सझाय गाथा ८४ सं० १५८७ २४४ नल दमयंती चरित्र रास सं० १५६० २४५ अजापुत्र रास सं० १५६८ २४६ चित्रसेन पदमावती दि० For Private and Personal Use Only नाहर ० जयपुर वृ० ज्ञान ० गाथा ११०२ २४७ नेमिरास गाथा ३३ सं० १५६६ २४८ अठारह नाता सझाय गाथां १०१ २४६ नेमिश्वर चरित्र २५० नेमिनाथ रास २५१ चंपकमाला चौपइ गाथा ६४ २५२ श्री दयारत्न वारणारस गीतम् गाथा 4 दि० जयपुर २५३ ईसर शिक्षा गाथा २६ २५४ नंदिषेरण ६ ढाल० गाथा ७६ प्र ० अभय ० पुण्य ० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू-गर्जर जैन कवि और उनकी रचनाएं पध ग्यारहवीं शताब्दी (१) पं० धनपाल (महाराजा भोज के सभा पंडित) (1) सत्यपुरोय महावीर उत्साह पद्य १५ प्रादि:--जिणव जेण दुट्ठ कम्म, बलवंता मोडिय, चउ कसाय पसरत जेण, उम्मूल वितोडिय, तिहुयण-जगडण-मयण सरहि, तणु जासु न भिज्जइ। इयर नरहि सच्चउरि-वीरू, सो किम जगडिज्जइ ॥१॥ अन्त:-कोरिट, सिरिमाल, धार, आहाडु, नराण, अहिलवाडउ, विजयकोट्ट, पूण पालित्ताणु । पिक्खिवि ताव बहुत्त ठाम, मणि चोज्जु पईसइ, ज अज्जवि सच्चरि वीरू, लोयणिहि न दीसइ ॥१३॥ सहस्सेण वि लोयणह, तित्थु न होई नियतह, क्यण सहस्सेहि गुणनतुट्छु, निट्ठियहि थुगतह । एक्क जीह 'धणपालु भणइ, इक्कु ज मह नियतणु, कि वनउ सच्चरि-वीरू, हउ पुणु इक्काणा ॥१४॥ रविव सामि पसरतु मोहु, नेहुंड्य तोडहि, सम्मदंसणि नाणु चरणु, भडु कोहु विहाडहि । करि पलाउ सच्चरि-वीरू, जइ तुहु मणि भावइ, तइ तुटुइ 'धणपालु जाउ, जहि गयउ न आवइ ॥१५॥ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २] मरू-गूर्जर जैन कवि पं० घणपालकृतः श्रीसत्यपुरमंडन-श्रीमहावीर उत्साहः समाप्तः। प्र. जैन-साहित्य संशोधक ख० ३ अं० ३ वि० तिलकमंजरी रचयिता, महाकवि शोभनमुनि के भ्राता। बारहवीं शताब्दी (२) वर्द्धमान सूरि (२) वीर जिरणेसर पारणउ गा० ४३ आदि:- जस निसुणह एकग्ग मण, धम्मि धरेविण चित्तु । वीर जिणिदह पारणउ, कोसबियहि ज वित्त ॥१॥ अन्तः-वद्धमाण सूरिहिं पणय, हरिपत्थु थुइ वाय । __ भवि भवि तेम पसीय महु, जेम थुणतुह पाय ।।४३।। श्रीवीरजिनेश्वरस्य पारणकं समाप्तमिति । [ सं० १२८६ लिखित प्रकरण पुस्तिका, ताडपत्रीय प्रति-मणिसागरसूरि संग्रह, कोटा, पाटण भं० सूची पृ० ४१२ ] प्र० हिन्दी अनुशीलन वर्ष ३ अंक २ वि० वर्द्धमान सूरि ११-१२ वीं शताब्दी में दो हो गये है१ खरतर विरुद पाने वाले जिनेश्वरसूरि के गुरु वद्ध'मानसूरि समय सं० १०५५ से सं० १०८० । २ द्वितीय अभयदेवसूरि के शिष्य, समय सं० ११३० से ११७२ संभवतः उपर्युक्त रचना द्वितीय वर्द्धमानसूरि को होगी। For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कह कवि [३ बारहवीं सदी (३) पल्ह कवि (३) जिनदत्तसूरि स्तुति छप्पय १० मादि:-जिण दिइ आणदु चडइ, अइ रहसु चउग्गुरगु, जिण दिइ झड़हड़इ पाउ, तर निम्मल हुइ पुगु, जिण दिट्ठइ सुदु होइ कट्ठू, पुवुक्किउ नासह, जिण दिट्ठइ हुई रिद्धि, दूरि दारिद्द .पणासइ ।। जिण दिट्ठइ हुइ सुई धम्म मइ, अबुहहु काइ उइखहु । पहु नव फणि मंडि उ 'पास' जिरण, अजयमेरि कि न पिक्खहु ।१। अन्तः-वक्खाणियइ त परमतत्त जिण पाउ पणास इ । आराहियइ त वीरनाहु, कइ ‘पल्ह' पयासइ । धम्मु तु दय संजुत्त जेण, वर गइ पाविज्जइ। चाउ तु अण खंडियउ जु, बंदिरणु सलहिज्जइ । जइ ठाउ त उत्तिमु मुणिवरहवि, पवर वसहि हो चउर णर तिम सुगुरु सिरोमणि सूरिवर, खरतर सिरि जिणदत्त वर।१०। (१) इतिश्री पट्टावली षटपदानि । संवत् ११७० वर्षे अव युगाद्य पक्षे ११ तिथौ श्रीमद्धारानगयीं श्रीखरतर गच्छे विधि-मार्ग प्रकाशि, वसतिवासि श्री जिणदत्त सूरीणां शिष्येण जिन रक्षित साधुना लिखितानि । (२) इतिश्री पट्टावली ।। संवत् ११७१ वर्षे पत्तनमहानगरे श्री जयसिंह देव विजयि राज्ये श्री खरतर गच्छे योगीन्द्र युगप्रधान वसतिवासी जिनदत्तसूरीणां शिष्येण ब्रह्मचंद्र गणिना लिखिता। शुभं भवतु । श्री पार्श्वनाथाय नमः । सिद्धि र तु ॥ प्र० अपभ्रंश काव्य-त्रयी। ऐति० जन काव्य संग्रह पृ० ३६५ For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू गूर्जर जैन कवि (४) श्री जिनदत्त सूरि शि० या भक्त (४) श्री जिनदत्तसूरि स्तुति पद्य १६ अपूर्ण पादि- जो अमारणु सिरि बद्ध मारण, मय माण विवज्जिउ । सिद्धि पुरधिनि वद्धमाणु, भव पंजरु भजिउ ॥ लोयालोय पयासणिक्क, मुरु भुयण दिवायरु । सो जिणिदु नय अमर विदु, वदिवि करुणायरु। सथुणिहि वीर जुगपवर गुरु, गुरु भावह संठविय मणु । जिण सासण गयणंगण तरणि, सिव-पहगमण महासमणु ।।१।। अंत अप्राप्त .. [ जैसलमेर ताडपत्रीय प्रति क्र० १५६ पत्र ५७ से ५६ में अपूर्ण प्राप्त ] प्र० यु० जिनदत्तसूरि, परिशिष्ट न० ३ (५) धर्मसूरि शिष्य (५) धर्मसूरि बारह नावउ (बारह मासा) गा० ५० आदि-तिहुयण मणि चूड़ामणिहि, बारह नावउ धर्मसूरि नाहह । निसुणेहु सुयणहु नाण सणाहह, पहिलउ सावण सिरि फुरिय।।१। कुवलय दल सामल घरगु गज्जइ, नमद्दलु मंडल झुणि छज्ज इ । बिज्जुलडी झवकिहिं लवइ मणहरू, वित्थारेवि कलासु । x अन्त-अट्ठाइय वरिसेहिं जसु लोए समागमु । अहिय मासु संपत्तो सो सहिय मणोरम् ॥४८॥ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री० लखण तेरहवीं सदी तहि वदउ जस सूरि सुहकारु, तब सिरि कन्ह वयंस पयारु । धर्मसूरि बारह नावउ संतह, हरउ दुरिउ सुह कर पढतह || ४६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विन्नतिय निमुणेहि, सासण दिवि सायरु | नंद धर्मसूरि लोए, जां चन्द दित्रायरु ||५०|| इति बारह नावउ सम्मतं - इसके पश्चात् रविप्रभ सूरि रचित धर्म सूरि स्तुति है । प्रभय प्राप्ति स्थान - पाटण भंडार - ताडपत्रीय प्रति पृ० ३७ । प्रतिलिपि - जैन ग्रन्थालय । प्र० हिन्दी अनुशीलन वर्ष ६ अं० ४ तेरहवीं शताब्दी (६) श्र० लखण (लक्ष्मण) (६) जिनचन्द्रसूरि काव्याष्टम् गा० ८ प्रादि- अभय सूरि सिरि सीसु सगुण, जिणवल्लहु दिट्ठउ । तसु पट्टह जिणदत्त सूरि, अवट्ठमि बइट्ठउ | दिव्वं नाण पहाण वलिण, ज कियउ अचंभमु । वालराणि लिन मग्गि सगुरि, रासल अगुब्भमु || गुरु पारतंतु अगमहि भतु, जिणयत्तसूरि फुड, उच्चरिवि । दुजा वढि सुहु, तुझ धम्मु कमि कमि करिवि ॥ १ ॥ अन्त- अज्जु दियहु सकयत्थु, अज्जु नर वन्नु सुहावउ । अज्जु वारु रमणीउ, अज्जु सवच्छरु आवउ ॥ अज्जु जोउ जयवंतु, अज्जु महु करणु पियंकरु | For Private and Personal Use Only [ ५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू-गूर्जर जैन कवि अज्जु मित्तु सुह महत्तु, अज्जु गह रासि सुहंकरु ॥ सकयत्थु अज्जु लोयण जुयलु, हिप्रद अज्जु वढि यइ सुहु । गउ पाउ अज्ज दूरंतरिण, दिट्ठइ गुरु जिणचंद पहु ॥८॥ कृतम् श्रावक लखणेन, पत्र २ अभय जैन ग्रन्थालय वि० दूसरे एवं तीसरे पद्य में 'लखणु भणइ' पाठ है। (मणिधारी) जिनचन्द्र सूरि का समय सं० १२११ स १२२३ तक का है। (७) वज्रसेन सूरि (देव सूरि शिष्य) (७) श्री भरहेसर बाहुबलि घोर गा० ४५ आदि-पहिल रिसह जिणिदु नमेवि, भवियहु निसुणह रोलु धरेवि । बाहुबलि केरउ विजउ ॥१॥ सयलह पुत्तह राणिव देवि, भरहेसरु निय पाट ठवेवि । रिसहेसरि संजमि थियउ ॥२॥ मध्य-देवसूरि पणमेवि सयलु, तिय लोय वदीतउ वयरसेण सूरि भणइ एह, रख रंगु जु वीतं ॥२५।। अन्त-अवरु म करिसउ मारणु ए, वयरसेणसूरि वज्जर ए। भावण तिण भावेउ, जिव भावी भरहेसरिहि, तउ केवल पावेहु ए, राजु कारंता तेण जिव ।।४५।। वि० वादि देवसूरि शि० वज्रसेन सूरि का समय सं० १२३५ के लगभग सं० १४३० लि. प्रति में । प्र० शोध पत्रिका ३/३ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सिगु तेरहवीं सदी [ ७ ( 5 ) सिरिमा महत्तरा ( स्व ० जिनपति सूरि प्राज्ञानुवर्ती साध्वी ) (८) जिनपति सूरि वधामणा गीत गा० २० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदि - भासी नयरी वधावणउ, प्रायउ जिणपतिसूरि जिणचदसूरि सीसु प्राइया लो । सं० १२३२ के लगभग वधावणउ वजावि सुगुरु जिनपतिसूरि प्राविया लो। आंकणी । मध्य- हाले महतो इम भणड, संघह मणोरह पूरि । बारहसे बत्तीसा ए, मासि जेठह सुद्धि तीजह । जि० । ८ । सिरिमा महत्तर इम भणइ डव पहु होसइ कांइ ॥ प्रन्त-घरि घरि हुनउ वधामणउ, सरगहि रंजियउ जिणचंद सूरि । प्रासिया नयरि वधावणउ ।। २० ।। (६) प्रासिगु [ अनूपसंस्कृत लायब्र ेरी ] वि० यह रचना साहित्यक भाषा में न हो कर बोलचाल की सरल भाषा में है। प्रति भी १७ वीं शती से पूर्व की प्राप्त नहीं है अतः भाषा में कुछ परिवर्तन हुआ। संभव है । ( पाठ भेद सह प्र० हिन्दी अनुशीलन वर्ष १२ अं० १ ) सिगु (शांति सूरि भक्त ) (९) चन्दनबाला रास गा० ३५ जालोर For Private and Personal Use Only आदि - जिण अभिनवि सरसइ भणए, पुविहि भरह खेत्रि ज वीत । वीर जिरणदह पारणाए, निसुणउ चंदनबाल चरितु । १ ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि प्रथम लील कसमीर करती, ललिय लोल कल्लोल वहंती । अठदल कमल मज्झि उप्पत्ती, सकल सबल अम्हि तालह दिन्ति ।। २ ।। अन्त: संखेपिणी जिण दिन्नं दाणु, वीर जिणंदह केवल नाणु । चंदण पढम पवत्तिणिय, परमेसरह निव्वाणह जति । वत्तीमासय वित्त तहिं. अखलिउ सुहु सिद्धिहि माणति ॥ ३४ ।। एहु रासु पुण वृद्धिहि जंति, भाविहि भगतिहिं जिणहरि दिति । पढइ पढावइ जे सुण इ, तह सवि दुक्खइं खइयह जंत्ति । जालउर न उरि आसुगु भणइ, जम्मि जम्मि तूस उ सरसत्ति ॥३६।। ॥ इति श्री चन्दनबाला रासः ॥ (सं० १४३७ की प्रति से ) प्र० राजस्थान भारती ३/३-४ वि. इस कवि का जीवदया रास सं० १२५७ सहजिगपुर में रचित है जिसमें कवि ने अपना विशेष परिचय दिया है (प्र. भारतीय विद्या भा-३) दे० ज० गु० क० भा० ३ पृष्ठ० ३६५ - (१०) जिनपतिसूरि शिष्य (१०) बालावबोध प्रकरण गा० ११६ आदि - पणमवि जिणवइ देउ गुरु, अनु सरसह सुमरेवि धम्मुवएसु पयंपियइ, सुणि अवहाणु करेवि ।।१॥ मध्य - दाणु न दिज्जइ भोग न भुजहि, मुय पियय मपिय माइ सुसिजहि देव गुरु वि तिण सम वि गणिज्जहिं, जुत्ताजुत्तहिं नवि याणिज्जहि ॥६॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ह कवि बारहवीं सदी मन्त-धम् मुवएसं पयं पाराहेहिति जे महासत्ता । चारित्त चंदन धलिय तिजया जाहिति ते सिद्धि ॥११६॥ [जीवदया प्रकरण काव्य त्रयी में सानुवाद प्रकाशित (११) श्री जिनपति सूरि शि० (ख) (११) शांतिनाथ रास (अपूर्ण प्राप्त) (स० १२५८ के लगभग) प्रादि-पंचमु भरह नरिंदो, जिणवइ सोलसमो, संति सुहुंकर कदो, पणमिय पय पड़िवनउ । चरिउ किंपि पभण उतसु नाहह, गुरु चूडामणि भुविय पावह । त नि मुणतह भवियह सत्रणिइं. भरियहं अमीय रसायण म घणि उौं । रवेडि नयरि जो सति उद्धरणि कराव्यु, विहि समृदय ससुभत्ति जिणवइसूरि ठावियु ॥ अन्त-अप्राप्त इस में खेडनगर के शांति जिनालय का उल्लेख है जो कि उद्धरण साह कारित और सं० १२५८ में जिनपति सूरि द्वारा प्रतिष्ठित हुप्रा था । (प्रति - अपूर्ण, जेसलमेर भण्डार) (१२) सुमति गणि (ख० जिनपति सूरि शिष्य) (१२) श्री नेमिनाथ रास गा० ५८ (सं० १२७० के लगभग) For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० ] पण आदि -- पणमवि सरसइ देवी, सुय रयण विनूसिय नेमि सुरासो, जण निसुणहु सूसिय ॥१॥ अन्त - सिरि जिणवइ गुरु सीमिई, इहु मणहर भासु । नेमि कुमारह रइड, गणि सुमइणि रासु । ५७॥ सासण देवी अबाई, इउ रास दियतह i विग्घू हरउ सिग्घु, संघह गुणवंतह |५८६ | मरू- गूर्जर जैन कवि वि० श्री सुमति गणि की दीक्षा सं १२६० में हुई थी । इनकी सबसे बड़ी रचना 'गणधरसार्धशतक वृहद् वृत्ति' सं० १२६५ की है जिसका परिमाण १२१०५ श्लोकों का है । [१४ वीं १५ वीं शती की लिखित २ प्रतियां, जैसलमेर भंडार] प्र० हिन्दी अनुशीलन वर्ष ७ अं० १ अन्त - (सं० १२७७) (१३) शाह रयण ( ख० जिन पति सूरि भक्त श्रावक ) (१३) श्री जिनपति सूरि धवल गीत गा० २० सं० १२७८ के लगभग प्रादि- वीर जिरणेसर नमइ सुरेसर, तस पह पर्णामय पय कमले । युगवरं जिनपति सूरि गुण गाइसो, भत्तिभर हरसिहि मनि रमले |१| For Private and Personal Use Only अन दिगंतरे बार सतहोतरे, मास असादि जिण अणसरी ए । मन्न सुर भाणहि सिय दसमी दिवसहि, पहुतउ सूरि अमरापुरी ए ॥१६॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आसिगु तेरहवीं सदी [ ११ एहु श्री जिणपति सूरि गुरु जुगपवरु, 'साह रयण' इम थुइ ए समरइ जे नर नारि निरंतर, तहा घर नव निधि संपजइ ए ॥ २० ॥ ( ० ऐ० जैन काव्य संग्रह पृ० ६ मूलप्रति - सं० १४९३ लिखित अभय जैन ग्रन्थालय संग्रह ग्रन्थ पुस्तिका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४) भत्तउ ( ख० जिन पति सूरि श्रावक ) (१४) श्री जिन पति सूरि गीत गा० २० सं० १२७८ लगभग आदि - वीर जिणेसर नमीउ सुरेसर, तस पह पणमिय पय कमले । युगवर जिनपति सूरि गुणमंडन, गुण गण गाइसो मति रमले ||१|| अन्त चरण कमल नरवर सुर सेवइ, मंगल केलि निवास हुए । थूभह-रथण पालणपुर नयरिहिं तिहुषण पूरइ ए आसहुए ||१६|| लोणउ कमलेहि भमर जिम भत्तउ, पाय कमल पर्णामिय कहइ । समरइ ए जे नर नारि निरंतर, तिहां घरे रिद्धि नव निहि लहइए ||२०|| प्र० ऐ० जैन काव्य संग्रह पृ० ८ दि० शाह रयण एवं भत्तउ रचित गीत द्वय में छई पद्य व पंक्तियां तो एक ही हैं। दोनों गीत एक दूसरे से प्रभावित हैं । For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ ] मरू-गूर्जर जैन कवि (१५) पाल्हणु (१५) नेमि बारहमास रासो पद्य १६ पादि-कासमीर मुख मंडण देवी, वाएसरि पाल्हणु पणमेवी । पदमावतिय चक्र सरि नमिउ, अंबिका देवी हवीनवउ॥ चरिउ पसायउ नेमिजिण केरउ, कवित्तु गुण धम्म निवासो। जिम राइमइ विप्रोणुमओ, बारहमास पयासउं रासो ॥१॥ १५ वें पद्य में भी 'पाल्हण भणए' कवि का नाम प्रयुक्त है । अन्त-इण परि भणिया बारहमासा, पढत सुणंतह पूजउ प्रासा। रायमइ नेमिकुमर वहु चरिउ, संखेविण कवि इणि परि कहि। अबिक देवि सासण देवि माइ, सघ सानिधु करिजउ समुदाइ ॥१६॥ '१० सं० १२८८ में रचित आबू रास में भी पाल्हण कवि का नाम है। दोनों रचनाएं एक ही कवि की होनी चाहिए । दोनों रचनाएं एक ही प्रति में उपलब्ध हुई हैं। जन गूर्जर कविओ भा० ३ पृ० ३९८ में नेमिरास, पाबूरास राम (?) कवि कृत होने की सभावना की है पर ये दोनों पाल्हण रचित ही हैं। (सं० १४२५ के लगभग जिनप्रभसूरि परंपरा में लिखित संग्रहप्रति, बीकानेर वृहत् ज्ञान भण्डार) प्र० सम्मेलन पत्रिका (१६) जिनेश्वर सूरि (ख० जिनपति सूरि शि० समय १२७८-१३३१) (१६) श्री महावीर जन्माभिषेकः गा० १४ For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रा० लखण तेरहवीं सदी [ १३ आदि-सिद्धत्थ महानर राय वंश, सर राय हंस मुणि रायहंस । तेलुक्कनाह जुगदीह वाह, जय चरम जिणेसर वीरनाह ॥१ तुह मज्जणु जे जिण कुणहि भव्य, ते पावइ संपइ नाह सब्व । उच्छिन्न रुद्द दारिद्द कंद, पणयामरचिंद जिणिद चंद ॥२ साधन्न पुन्न सकयस्थ वीर, सिरि तिसलदेवि जसु उयरि धीर । उपन्नु सयल तेल्लुक नाहुं, तहु गुण गण रयणह सलिल नाहु ।।३ सुर सिहरि मिलिय चउस ट्ठि इंद, जम्मक्खणि तक्खणि तुह जिविंद । के ऊर मउड़ कड़ि सुत्तहार, चल कुडल मंडिय भत्ति सार ॥४ अन्त-जम्माभिसेउ कय तिजग सेउ, भवियण मिन्नासिय पाव लेउ । तुह करहि देव देविंद विंद, असुरिंद फणिंद स जोइसिंद ॥१३ जेम मेरुम्मि अमरेसरा मज्झणं, करहि तुह वीर गिरि धीर दुह तज्जरणं । सद्द सुवियड्ड तह फुणहि जे संपयं, सुत्त रिहिणाउ ते लहहि परम पयं ।।१४ इति श्री महावीर जन्माभिषेकः कृतः श्री जिनेश्वर सूरिभिः १ (सं० १४३७ लि. प्रति से २ बीकानेर जिन हर्ष सूरि भंडार प्रति (१७) जिनेश्वर सूरि शि० (१७) श्री आदिनाथ बोलिका गा०८ रचना स्थान-बाहड़मेर For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४] आदि : अन्त अन्त www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ता पुहवि पहाणइ सग्ग समाणइ वल्लउ वाहड़मेरि ता तहिवि जिणहरु अच्छइ मणहरु जोउव निज्जइ मेरि ता नाभिहि नंदर नयणारणंदणु रिसह जिणेसरु देउ । ता सहि वदिज्जइनिच्छइ फिट्टइ पावह लेउ ॥८ मरू गूर्जर जैन कवि : सा पूइउ मज्जिउ पुन्नु उवज्जिउ सामिउ हरिसह पूरि ता जगह पहारण गुणह निहाणू वदिउ जिणिस र सूरि ता मिलिया लोया पूयह जोया, चित्ति भयउ चमकारु ता इणि परि महिमा का इहि रम्मा पावहि सुक्खु अपारु ॥८ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय (१८) श्री वासु पूज्य बोलिका गा० ४ पाहणपुर आदि : ता पल्हणपुरि गोरी विनंति करइ जु प्रिय निसु हु ! ता दूसम कलि सूसमु श्रवयरिउ यउ दुहह जलंजलि देउ || ता चल्लहि सामिय मयगल सलहउ जसु करेसु । ता विजाउरि विहि मंदिर पणमिसु वासुपुज्जु तित्थेसृ । ७ ग्रंथ दृष्टव्य है | : ता छं छं छररं प्राउज वजहि वीण वेणु अइ रम्म । ता तु बुर सरि महुर सरि गायहि गायण खोड़हि कम्म || ता वासपुज्जु तित्थयरु पसंसहि सु गुरु जिरणेसर सूरि ता भवियहु जण मण वंछिउ पावहु दुरिउ पणासह दूरि ||४ (सं० १४३७ लि० प्रति से) विशेष विजाउरि - बीजापुर के सम्बन्ध में बुद्धि सागर सूरि का For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रा० लखण तेरहवीं सदी [ १५ (१९) श्री वासु पूज्य बोलिका गा० ४ र० विजलपुर .. आदि : ता उत्तर दिसिहि नारि ज हुँदी, चल्लिय मणि विहसति । ते चड़िय तुरगिहि पवण वेगिहि, मिल्हवि घरु पइसति ।। सा हरषिय चितिहि बह सुपवित्तिहि. विज्जलपुर वर आय । ता पहु सुपुज्ज वदावि प्रियं मह, ते पणमहि पहु पाय ॥१ अन्त : ता पच्छिम रभ कंठ रयणारि जे हुंती निय ठाणि । ता कर जोडि वि निन्नवउ नरिंदह पहवेगेण पराणि ।। ता वासपुज्ज विजलपुर नयरह थपिउ जिरणेसर सूरि । ता मोपहु पणमतिल्ह पसंसइ दुरि उ पणासइ दूरि ॥४॥ (सं० १४३७ लि. प्रति से) (२०) शांतिनाथ बोलिका गा० ४ र० श्रीमालनगर आदि : ना उत्तर दक्षिण पूरब पच्छिम बह दिसि हंती नारि । ___ ता कर जोड़े विगा नाह नमेविरणु वयगा इक्कू अवधारि ।। ता दूसम काली पहु सिरमाली अदबुदु सणियइ तित्थु । . . ता इहि भवसायरि दुक्ख हायरि भवियह जण बोहित्थु ।।१।। अन्त : ता धन पुनवती बहु गुणवंती अमर पसंसहि सग्गि । ता दाणु दियावहि महिम करावहि सुगुरु वयणि विहि मग्गि ।। ता सिरमाळह मडणु पाव विहंडणु थप्पि जिणसर सूरि ता भवियहु वंदहुजिव चिरुनदहु दुरिउ पणास इ सूरि ॥४॥ प्रति - १५ वीं शती की संग्रह प्रतियों में For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ ] मरू-गूर्जर जैन कवि (२१) श्री महावीर बोलिका गा० ८ प्रादि : ता गुज्जर नारिहि इह संसारिहि मणि हूयउ पारणंदु । ता तिसलह नदणु कम्म विहिडण वंदह वीर जिणिदु ।। ता कणयह कलसू अमियह वरिसू सु भइ मणहर दडु । ता सहियह दिट्ठइ पाऊ फिट्टइ रोरु जाइ सय खंडु ।। १ अन्त : ता उदय विहारू सारोद्धारू कारिउ कुलधरि मति । ता असुर सुरिंदा खयर नरिंदा पक्खिवि सीम् धुणं ति । ता तास पइट्ठा कियइ विसिट्टा सीस धुणाति उ इदु । ता धम्म कहतू जगि जयवंतू जिणिसर सूरि मुर्णिदु ॥८ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय वि० उदय विहार के उत्तर के कुलधर का ऐतिहासिक उल्लेख । (२२) श्री जिनेश्वर सूरि (मदन युद्ध) चन्द्रायण गा० १२ आदि-हेलि पंचकुसुम सरि विसरु नमिभ्जइ करि घर वर सारंगो मइ समरि जिणीवउ सूरि जिरणेसर गुण ठवि नण सुचंगो रइ भणइ मयण सुणि सत्त, कहं तुह मिल्हि करह को दंडो सो अजउ न जित्त, केवि जिप्पइ जिणीसर सूरि पयंडो ॥१॥ अन्त-रइ वारिउ न हिउ संचरिउ घणु धरि करि उन्भड़ मयणु । . तं हणइ जिरणेसर सूरि गुरु, गहिवि बंभु खग्गह रयणु ॥१२ । प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनेश्वर सूरि शि० तेरहवीं सदी [ १७ (२३) मंगल गाथा ४ आदि--जो मंगलु सिरि रिसह नाह मरु देविहि दिन्नउ जो मगलु नेमिहि कुमार सिव देवि पवन्न उ जो मगलु पहु पास नाइ वम्मा इवि किज्जइ जो मंगलु च उवीसह जिणह, सुरनाह करहि मेरू वरहि । सो मगलु चउविह सु सघ सणि, मिलि ठवियउ सासण सुरिहि ॥१॥ अन्त- कर उ संति संघस्स सति जुगपवर जिणेसर । सति सयल लोयस्स सति उद्दयह नरेसर ॥ .अइग-एविहि जाइ राइ विससेणइ नदर । चक्क लच्छि परिचत्त जयइ जिण पाव विहंडणु । कमट्ट कर हि धड़ पंच मुह भविय लोय भव भय हरगु । जय जयहि जयहि जय संनियर संतिनाह सिव सह कर गु ।।४ । (२४) गुरु गुण षटपद गा० ८ प्रादि -जिण वल्लह पमुहाणं, सुगुरुणं जो पढ़ेइ वर-कप्पं । मंगल-दीव मि कए, सो पावइ मंगलं विमलं ॥१॥ अन्त–जिण वल्लह जिणदत्तसरि जिणचन्द्र जु जिणवइ तुय सुव्वई आसीस दिति जिरणेसर सूरि भुणिवइ । उयहि जाम जलु रहइ गयणि जाम मह दिणेसरु । ताम पयासिउ सूरि धम्मु जुगपवरु जिरणेसरु ।। For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि विहि संघुस नंदउ दिणण दिगु, वीर तित्यु थिरु होउधर । पूजन्ति मणोरह सयल तहि कव्वट्ठ पढंति नारि नर ।।८।। इति षटपदम् [प्र० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० १ ] (१८) अज्ञात (२५) अंबिकादेवी पूर्व भव वर्णन तलहरा गा० ३० आदि -- .......................... तिलोत्तम रंभ रइ ॥४॥ सीलिहिं जणुसीता दवदति राणी, अजरणं सुदरी रायमइ । सोहग सुदरि जगह पहाणी, जाविहि निम्मल निम्मविय ॥५॥ अन्त–बुहयण वयणह किंपि सुणेवि, किंपि मुणिय निय मइ बलिण । चरि उ तुम्हार उ वनिउ देवि, पूरि मणोरह अम्ह तणइ ।।२६ । ने मि जिरणेसर चरण अभोय, महुँयरि अबिक देवि तुहुं। संघह सानिधु करि सुहभौय, देहि मणछिय उदरिद्धि ॥३०॥ जिनप्रभसूरि परम्परा की सं० १४२५ लगभग लि० प्रति, बीकानेर वृहत् ज्ञान भण्डार For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कवि छल्ह तेरहवीं सदी [ १९ (१६) अज्ञात (२६) श्री वीर तिलक चौपई गा० १२ आदिवास पुज तित्थ करु देउ, जसु तणि कला नं लब्भइ छेउ ।। विज्जलपुरि विहि चइतिणि वेसु वीर तिलक खेतल न उ वेसु ।।१। अन्त - नेउर रुणरुण झणकारु, वीर तिलक गुणवंतु अपारु । गेवरु नच्चइ मज्झिम रयणि, वासुपुज्ज परमेसर भुयणि ।।१२।। निसुणहु वीर तिलक तणउ चरिउ, सुख संपइ हुयइ नाय इ दुरिउ ॥ अांचली ॥ सं० १४३७ लि० प्रति जैसलमेर भंडार (२०) कवि छल्ह (२७) क्षेत्रपाल द्विपदिका मा०८ आदि--सुम्मई डहडहंतु अइसहउ गरुयउ सद्द. नहयले । घुम्मइ सघणघोरु जण भोसण मेहल र वउ महियले ।। रुगु झुणु रुणु झणंत ने उर सरु पाया लघु पहुत्तउ । नच्चइ खित्तवालु जिण मदिरि बहु पाणंद जुत्त प्रो।।१।। अन्त-जाइ सु पंथ कुसुम सेवित्तिय जो तुह भत्ति पूयए । विलसइ सुज्जु सुक्खु बहु विह परि दुक्खु न होइ तहक्कए । दिव्वाभरण दिव्व देवंग समीहिय तासु संपए । जो तुह पढइ सुणइ खित्ता "हिव इम कवि छल्हु" जपए ।।८।। स० १४२५ के लगभग की लि० प्रति For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २० ] आदि www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू-गूर्जर जैन कवि (२१) अज्ञात ( २८ ) मयणरेहा रास गा० ३६ तां राणी । र रूबह लीला दवंदती, रायमए जिम नेहु करती ॥६॥ समकितु अविचल हियइ धरती, जिण गणहार पय पउम नमंती | चन्द्रजसे कुमर सोहंती, गमइ दीह सा बहु गुणवंती ॥७ ॥ ग्रह जातरि ईसि हसंती, उरि एकावलि हारू वहती । करयलि लीला कमलु करती, कल कंठी जिम किंपि भांति ॥ ८ ॥ परख मणिरहु राम्रो, हा धिगु पेखइ कम्म विवाओ । पेखिउ मयणा मुह रमणीसरू, तो सायरू जिम नहासिउ नरेसरू ॥ ६ ॥ जं नवि वेय पुराण सुणीजइ, जं चिय पामरि लोइ हसीजइ । तपि नरेसर मंडिउ कजू, पेखउ मयण महाभड़ रजू ||१०|| कुलि कमलेहिम बुद्धि करतर, नियगुण वल्ली अग्गि दहंतउ | हाहारत तिहुयणि पावतउ, मणिरहु मयणा मदिरि पत्तउ || ११|| अन्त -- जिणहरि पूजिउ मल्लिनाडु, पवतिणी पण मेई । मिल्हिउ वालह तणउ नेहु, तउ दिक्खा लेई ॥ कुमरह सयलह जिणह वर्याणि पड़िबोहु करती । केवल नार धरेवि मयण, सा सिद्धि पहूती ||५|| सयलह रयणह वयर रयणु, जिव मूल न जाए । तिम जिम सामणि सीलु - रयरणु कवि कहण न माए । वीर जिरणेसर जाम तित्थु, अनुसूरू पयासइ । For Private and Personal Use Only ता चिरूनंदउ एहु चरिउ, अनु मयण महासइ |9|| छ ॥ मयण रेहा रास समाप्तः ॥छ । प्र० हिन्दी अनुशीलन Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमर प्रभसूरि शि० तेरहवीं सदी [ २१ (२२) अमर प्रभसूरि शि० (धर्मसूरि पट्ट पाणंद सूरि शि०) (२९) संख वापी पुर मण्डव श्री महावीर स्तोत्रम् गाथा २१ आदि -- सिरि सिद्धत्थ नरेसर नंदण गुण निलय, पणय भवियण जण देसिय सासय पय । दुरिय दुरत दबानल विज्झावण जलय, तिहुयण मण आणंदण वीर जिणंद तया ॥१ जण मण चिन्तिय पूरण सुरतरु समचरण पुव्व भवंतर संचिय कलिमल अवहरण । संखवाविपुर मडण खडण भव भयह, वद्धमाण जिणवइ जय पामिविय परमसुह ।।२ अन्त-अवणि वर रमणि रमणीय सुर सुन्दरं, सुर विमाणुव्व अवयण्ण मिह सुन्दर संखवावीय वर गुट्ठि कारावियं, जयउ जिण भवणु मुत्तुग मंडव जुयं ।।४ वाइ गइ राय निछलण पंचाणणो, धम्मसूरित्ति उद्धरिय जिण सासणो सेण सिसि संखवावियू सुपइटिओ, जुगल निहि वरिसि (११९२) वीर जिण सामिग्रो ।।५ भत्ति उल्लसिय घण पुलय पुलय कलिय यंगया संखपुर पवर सिरि तिलय मिह जे सिया वद्धमारण जिण थुणइ ते वंछिया झत्ति पावंति निम्भति सह सपया ॥६ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ ] मरू-गूर्जर जैन कवि धम्मसुरि पट्टि आणंदसरि मुणिवरो, अमरपहसूरि तसृ पट्टि नव दिणयरो। तासु सीसेण निय भत्ति भरि पणमित्रो सिद्धि सुह देउ पहु वीर जिणसामिग्रो ।।७ कुमय तय दिणिदो पायनम्मामरिंदो. भविय कुमय चदो वद्धमाणो जिणिदो । परमसुह निवासं मुत्ति कंता विलासं, ववगय भव पास देउ नाणप्पयासं ॥८ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (२३) देल्हणि (श्री देवेन्द्र सूरि प्राज्ञा से रचित) (३०) गयसुकमाल रास गा० ३४ आदि- पणमेविणु सुयदेवी सुय रयण विभूसिय पुत्थय कमल करी ए कमलासणि संठिय ।।१।। पभणउौं गय सुकुमार चरित्तु पुवि भरह खिति ज वित्त । अंत- सिरि देविंद सूरिदह क्यो, ख मि उवसमि सहियउ गय सकुमाल चरित्तू मिरि देल्हणि रइयउ ॥३३॥ एह रास सुयडेयह जाई, रक्खउ सयलु संघु अंबाई । एह रासु जो देसी गुणिसी, सो सासय सिव सुक्खहं लहिसी।।३४।। (जैसलमेर भंडार) प्र० राजस्थान भारती ३।२ वि० यदि देवेन्द्रसूरि प्रसिद्ध कर्मग्रथं के कर्ता हों तो उनका समय स० १३०० के लगभग है अतः इस रास का रचना-काल इसी के आसपास होना चाहिए। For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्ष्मी तिलक चौदहवीं सदी [ २३ चौदहवीं शताब्दी (२४) लक्ष्मी तिलक (ख० जिनेश्वर सूरि शि०) (३१) श्री शान्तिनाथ देव रास गा० ६० सं० १३१० लगभग आदि--- सति जिरणेसर चरण कमलु कमलह आवासू । उत्त सिय निय उत्तमग सुरहियदस आस् । सवण महू मवु चरिउ तासु विरइमु संखेवी। नाचहु भवियह भाव सारु सिंगार करेवी ।। १ अन्त-- एह रास जे दिति, खेला खेली अइ कुसल। बंभसति तह संति, मेघनादु वि खेतल करउ ॥५८ एहु रासु बहु भासु, लच्छितिलय गिणि निम्मयउ । ते लहति सिव वासु, जे नियमणि ऊलटि दियहि ॥ ५६ महि कामिणि रवि इंदु , कुन्डल जुलिण जास हइ । ताम सति जिण चदु , अनुइउ रासुवि चिरुजयउ ।।६० प्र० सम्मेलन पत्रिका भाग ४७१४ वि० उपाध्याय लक्ष्मीतिलक बड़े विद्वान थे। इन्होंने स० १३११ डाल्हादनपुर में प्रत्येकबुद्व चरित्र (ग्र० १०१३०) और स० १३१७ जालौर में श्रावक धर्म प्रकरण (स्वगुरु जिनेश्वर सूरि कृत) वृहद वृत्ति (ग्र• १५१३१) की रचना की। For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ ] मरू-गर्जर जैन कवि (२५) सोममूर्ति (३२) गुरावली रेलुआ गा० १३ आदि-वसहि मग्गु जिणि पयड करि सहि अणहिल पाटणि वाईय जगि जस ढक्क । सो जिरणेसर सुरि गुरु रयण मणि झायहिं जे नर ते ससारह चुक्क ।।१ नर जुग पहाण गुरु चरिय हारु निय कठि ठवउ तिय लोय सारु । ए मुक्ति रमणि जिमु तुम्ह वरेइ ॥ आंचली ।। अन्त ----एह गुरावलि जो पढइ जो मणि अवधारइ रगिहिं जो गायइ । सोममुत्ती गणि इय भणइ सो नरु संसारह दुहह जलंजलि देइ ॥१३ मूल प्रति जै० भ० प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय वि० सोम मूत्ति रचित जिनेश्वर सूरि संयम श्री विवाह वर्णन रास हमारे ऐ० ज० का० सं० में प्रकाशित है जिसका समय सं० १३३१ के लगभग है। अन्य रचनाओं के लिए दे० ज० गु० क. भा० १ पृ० ७ भा० ३ पृ. १४७५ । (३३) श्री जिन प्रबोध सूरि चच्चरी गा० १६ आदि --विजय उ विजयउ कोड़ि जुग जिन प्रबोधसूरि राउ । विप्फुरत वर सुरि गुण रयण अलकिय काउ ॥१ अन्त --- जिण प्रबोध सूरि गुरु तणिय जे चाचरि पभणति । सोममुत्ति गणि इम भणइ पुण्ण लच्छिति लहति ।।१६ For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्मरत्न चौदहवीं सदी [ २५ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय जिन प्रबोध सूरि का प्राचार्यकाल सं० १३३१ से ४० तक का है (३४) जिन प्रबोध सूरि बोलिका गा० १२ आदि-तिय लोय सामिणि हस गामिणि, देव कामिणि पणमिया । अन्नाण वल्लरि दलण कत्तरि, मणि धरेविणु सारया । सिरि सुगुरु जिरणेसर सूरि पट्ट, गयण भूसण दिनमणी संथुणिसु सिरि जिण प्रबोध सूरि गुरु, भक्ति गुरु चूड़ामणि ॥१ अन्त-जह तुम्हि रुद्दह भव समुद्दह, पारु वंछहु भविजणा । जिण प्रबुद्ध सूरि बोहित्थ गिन्हहु, ताऊ हो निच्चल मणा ।। लघेवि वेगिण जिमु भवोयदि, जिट्ठि पुरु पावहु थिर । इमु सोममुत्ती भणइ तसु पय, भत्तउ वपरं वरं ॥१२ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (२६) पद्मरत्न (३५) श्री जिन प्रबोधसूरि वर्णन गा० १० आदि-पुहवि पहाणइ थाराउद्रि धण कणय समिद्ध ए । जायउ जो जगिसारु श्रीचन्द कुलि गयणि भाणु सिरिया देवि कुखि उप्पन्नउ गुणह भंडारु ॥१ अन्त --एसउ गुरु जिण प्रबोध सूरि जो पणमए, आविचल भाविहि जो सुमरेइ । For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ ] मरू-गूर्जर जैन कवि पउम रयण मुनि इम भणए सो मण बंछिउ फलो दुलहो तुरिउ - लहेइ ॥१० प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (२७) ठ. फेरू (खरतर जिन चन्द्रसूरि भक्त) (३६) श्री युग प्रधान चतुः पदिका गा. २८ सं १३४७ कन्नाणा प्रादि-सयल सुरासर वंदिय पाय, वीर नाह पणमवि जग ताय । सुमरे विणु सिरि सरसइ देवि, जुगवर चरिउ भणिसु संखेवि ॥१ अन्त-संघ सहिउ फेरू इम भणइ, इत्तिय जुग-पहाण जो थुणइ । पढइ गुणइ निय-मणि सुमरेइ, मो सिवपुरि वर-रज्जु करेइ ॥२६ तेरह सइतालइ (१३४७) महमासि, राय-सिहर वाणारिय पासि । चंद्र-तगुरुभवि इय चंउपइय, कन्नाणइ गुरु-भत्तिहि कहिय ॥२७ सुरगिरि पंचदीव सब्वेवि, चंद सूरि गह रिवख जिवेवि । रयणायरधर अविचल जाम, सघु चउव्विह नंदउ ताम ॥२८ ( प्रकाशित राजस्थान भारती वर्ष ६ अ. उ. ४ ) प्रकाशित पत्राकार-जिनदत्त सूरि ज्ञानभंडार सूरत प्रकाशित-रत्नपरीक्षादि ग्रंथ सप्तक वि० इस कवि के द्रव्यपरीक्षा ( मुद्रा शास्त्र ), धातोत्पत्ति, रत्नपरीक्षा, गणितसार, वस्तुसार और ज्योतिषसार प्रादि प्राकृत भाषा के ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनचन्द्र सूरि शि० चौदहवीं सदी [२७ (२८) लखमसीह (ख० जिनचंद्रसूरि भक्त श्रावक) (३७) श्री जिनचंद्रसूरि वर्णना रास गा० ४७ ऐति. आदि -पास जिणेसर वीतराहु, पणमेविरणु भत्ति । कर जोडवि सुय देवि नमिवि, कारउ विन्नती।। चरिऊ रइसु मणि रायहंसु, पहु जिणचंद सूरि नचहु भवियह भावसारु, गय कलिमलु दूरि ॥१ . अन्त- जुग पहाण पह जिणचंद सूरि, पयट्ठउ निय पयाव जसु पूरि । 'लक्खम सीहु' वन्नवइ अवधारि, अम्ह हिव कुग्गइ गमरणु निवारि॥ प्रतिलिपि:-अभय जैन ग्र'थालय वि० जिनचंद्रसूरि जी का प्राचार्यकाल सं० १३४१ से ७६ तक (२६) जिनचंद्रसूरि शिष्य (३४) जिनचंद्र सूरि फागु गा० २५ आदि-अरे पणमवि सामिउ संति जु, सिव वाउलि उरि हारु । अरे अणहिलवाड़ा मंडणउ, सव्वह तिहुयण सारु ।। अरे जिणपबोह सूरि पाटिहि, सिरि सजमु सिरि कंतु । अरे गाइवउ जिणचंदसूरि गुरु, कामल देवि कउ पूतु ॥१ अन्त-मध्य में त्रुटित मालवा की बाउल भणहि, सयलहं लोयहं मांहि । For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि सिरि जिणचन्दसूरि फागिहिं, गाहिं जे अति भावि । ते बाउल अरु पुरुसला, विलसहिं सिवसुह सावि ॥२५ प्र. प्राचीन फागु संग्रह (३९) श्री जिणचन्द्र सूरि चतुष्पदी गा० १० आदि-पहिलउौं प्रणमवीर जिणिदु, जसु पय सेव करइ अमरिंदु । युगप्रधान जगि हूयउ नामि, तसु पट्टि श्री सोहम सामि ॥१ अन्त-मेरु महीधर जा गिरि सारु, महियलि जा जिणि धम्म विचारु । जावय चदु सूरु दिप्पंतु, तिम जिण चन्दसूरि भुवि जयवंतु ॥१० प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रंथालय (३०) सहजज्ञान (ख० श्री जिनचन्द्रसूरि शि०) (४०) श्री जिनचन्द्र सूरि वोवाहलउ गा० ३५ प्रादि-..... तहि सु जामो कुले नयरि तहि निवसए, नर रयणु मंति केल्हा भिहाणो ॥३ विविह विन्नाण वर धम्म कम्म जूया, रेहए रूवधर गेह लच्छी। सीलगुण धारिणी तासु सहचारिणी, सरसई महर झुणि वीण वाणी ॥४ अन्त - एह जुगपवर वीवाहलउ जे पढइ, जे दियइ भाविया रंगभरे । ताण सासण सुरा हुति सुपसन्न, सहजज्ञान मुनि इम भणए ॥३५ प्रतिलिपि-अभय जैन नथालय For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनचन्द्रसूरि शि० चौदहवीं सदी [२९ (३१) चारित्र गणि (श्री जिनचन्द्रसूरि शिष्य) (४९) श्री जिनचन्द्र सूरि रेलुया गा०९ आदि-जिण प्रबोध सूरि राय पट्टिवर कमल दिवायरु पडिउ सुद्ध जय धम्मु। देवराज कुलि गयण चंदु सिरि कामल पउमिणि कुखिहिं हंसु उपन्नु ॥१ अन्त-सिरि जिणचंदसूरि जुग पहाणु जे गायहि भाविहि भगतिहि चितह रंगि। 'चारितु' निम्मलु पालिविण त नर अनु नारिय पावई सिव सुह- रंगि ॥६ रेलुया भास श्री जिनचन्द्रसूरि पदानि सर्वांण्यपि चारित्र गणि कृतानि । (३२) ख० जिनचन्द्रसूरि शि० (४२) युगवर गुरु स्तुति गा. ६ आदि-देधाकुलि सिरि देवराय, मंती सुपसिद्धउ । कोमल देवि कलत्त तासु, सील हि सुपसिद्धउ । ताण पुत्तसिरि खंभराउ, बालुवि गुण सायरु । लइय दिक्ख गुरु राय पासि, सिक्खइ किरिआयरु ।। जावालि नयरि वीरह भुवणि, जिणपबोह गुरु चक्कवइ । जिणचंदसूरि तसु नामु परि, गुरु उच्छवि निय पय ठवइ ॥१ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० ] मरू-गूर्जर जैन कवि अन्त-गणहर सुहम्म सामिय पमुह, दुप्पसहसूरि पज्जते । वंदे कय कल्लाणे, गुणप्पहाणे गुणविहाणे ॥६ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (३३) हेमतिल कसूरि शि० (४३) श्री हेमतिलक सूरि संधि गा० ४० आदि-पाय पणवि सिरि वीर जिगदह, अनु सिरि गोयम सामि मुणिदो। हेमतिलय सूरिहिं गुण लेसो, संधि बंधि हउ किंपि भरणेसो ॥१ अत्थि नयरू नायोरू पसिद्धउ, घण कण कंघण रयण समिद्धउ । तहि निवसइ गंधीय कुल मंडणु, वीजउ साहु दुहिय दुह खडगु ।२ असत तस घरि धरणि पहाणी, सीलि विमल किरि सीता राणी। तासु उयर सरि हंस समाणू, पुत्रु उवन्नउ पुन्न पहाणू ॥३ दोलउ नामु निरूपम लखणु, सरल सहावु विणीय वियक्खरणु । कंचण गोर सरीर प्रमाणू, दिणि दिणि वढइ सोहग सारू ।।४ सो कलिय कलागमु, रूवि मयण समु, चउद(१४) वरिस नउ जं थियउ। तं जण मण मोहह, महियलि सोहइ, सुर कुमारू जं अवयरिउ ॥५ बड्डइ गछि वाइयदेव सूरि, अणुकमि सिरि जयसेहर सूरि ।। सुविहिय विहिहिं विमुहि विहरता, अन्न दिवसि नायउरि पहूता ॥६ अन्त-साठि(६०) वरिस व्रतु पालिउ निम्मलु, सात जात करि लियउ __चरण फलु मम्ह सव्वाउ वरिस चहत्तरि(७४), मास तिन्नि ते पूरिय सस्वरि ।३७ For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनप्रभसूरि शिष्य चौदहवीं सदी [१ हव पुण थाकई जे दिण केई, सफल करउ ते अणसणु लेई । इम भणि संधु कमावइ सुहमणु, एगारस दिण पालइ अणसणु ॥३८ मुणिहिं गुणीतइ समइ सुहारसि, बाहत्तरइ माह वदि बारसि । गच्छ सीख देविणु मह चित्तू, हेमतिलय सूरि दिव संपत्तू ॥३६ जस महिम करंतइ, जणि गुणवंतइ, जिण सासरण उज्जोइयो । सो गुरू निय गच्छह, अणु मणि सत्थहं, संघह मण वंछियदियो ॥४० इति श्री हेम तिलक सूरि संधि ॥ प्र० परिषद पत्रिका प्राप्ति-अभय जैन ग्रन्थालय (३४) ख० जिनप्रभसूरि शिष्य (४४) जिनप्रभसूरि गीत त्रय सं० १३८५ लगभग (१) आदि के सलहउ ढीली नयरु हे, के वरनउ वखाणू ए । जिनप्रभसूरि जग सलहीजइ, जिणि रंजिउ सुरताणू ए॥" अन्त-ढोल दमामा अरु नीसाणा, गहिरा वाजइ तुरा ए। इण परि जिणप्रभसूरि गुरु प्रावइ, संघ मणोरह पूरा ए ॥६ (२) आदि-उदयले खरतरगछ गयणि, अभिनवउ सहस करो सिरी जिणप्रभसूरि गणहरो, जंगम कलपतरो॥१ तेर पंचासियइ पोस सुदि पाठमि सणिहि वारो। भेटिउ प्रसपते महमदो, सुगुरि ढीलिय नयरे ॥२ अन्त-सानिधि पउमिणि देवि इम, जगि जुग जयवंतो नंदउ जिणप्रभसूरि गुरो, संजमसिरि तणउ कंतो ॥१० For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३२ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू- गूर्जर जैन कवि प्र० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ११-१२ इसी तरह का एक अन्य गीत तथा जिनप्रभसूरि के शिष्य एवं उनके पट्टधर जिनदेवसूरि के २ ऐतिहासिक गीत भी साथ ही प्रकाशित हैं । मूलप्रति अनेक अन्य रचनाओं के साथ वृहत् ज्ञान भंडार, बीकानेर में सं० १४२० के आसपास की लिखित है । (३५) जयधर्म ख ० जिनकुशलसूरि शि० (४५) श्री जिनकुशलसूरि रेल्हुया गा० १० प्रादि- धनुधनु जेल्हड मंतिवर धनु जयतल देविय इत्थिय गुण संपन्न । जीह तर इ कुलि अवयरिउ परवाइय गंजणो सिरि जिनकुशल मुदि ॥ १ अन्त - सिरि जिण चन्दहसूरि सीसुवर सीळ संभूसिउ वंदहि जे सविचार ते नर नरसुरसिद्धि सुह तव चरण, संसाहिय पावहि नातु अप्पारु ॥ १० इति श्री जिनकुशल सूरि रेल्हुया कृतिरियं जयधर्म गणिका प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय श्री जिन कुशल सूरि का आचार्य काल सं. १३७७ से १३८६ है । For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात आदि अन्त www.kobatirth.org चौदहवीं सदी ( ३६ ) प्रज्ञात (४६) श्री जम्बू स्वामि सत्क वस्तु ( वस्तु छंद २१ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंबु दीवहभरह खित्तंमि रायग्गहु वर नरु, उसभदत्तु तर्हि सिट्टि निवसइ । तसु गेहिणि धारिणिय, तासु पुत्त जंबू भणिज्जइ || उवरोहिण सबणह तणइ, कुमरु मनाविउ जाव । श्रट्ठ कन्नवर रूव घर, बप्पु वरावर तांत्र ॥। १ • इत्थ चितहिं २ चोर सइ पंच, far जम्मु अम्मह तणउ, वारवार कुकम्मि वट्टई । एहु कुमरु वर भोजपुर, परिहरेवि धम्मेण वट्टइ । नव हियं पुण पंचसय ( ५०६ ), पड़िबुद्धा तहि ठावि । जंबु कुमरु संजम लियइ, दियइ सु सोहम्म सामि ॥२० सुअतुल संजम २ पवर चारित वर सील संजम सहिय, दुहिय जीव संसार तार । करुणामय मयरहर, रोय-रोय निच्छइ निवारणु जय जय गणहर धम्म वर, जय जय सिव सुह समि सयल संघ दुरियई हरउ, गणहरु जंबूउ सामि ॥ २१ For Private and Personal Use Only [ ३३ (सं० १४३७ लि०) प्र० साहित्य ( पटना मासिक) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ ] मरू-गूर्जर जैन कवि (३७) अज्ञात (४७) श्री थूलिभद्र मुनि (मदन युद्ध) वर्णना बोली गा० ८ प्रादि-सुरराय समहरि करवि निज्जिय, चक्कवइ हरि हलधरा । पायालि पन्नघ सेव मन्नहि, कवण मत्त नरेसरा ॥ तसु कुसुम सरि जो दण्ड खण्डिवि, बाण पसरु विहडिउ । सिरि थूलिभद्दिण तेम निज्जिउ, जेमू कहवि न निज्जिउ ॥१ मन्त-कोवि नियतणु तविण सोसइ, कुविन रनिहिं निवसएं । किवि कोवि पिइ सेवालु भक्खइ, सोवि तू प्रासंकए । जो वेस धरि चउमासि निवसवि, सरण भोयण सत्तउ । तसु थूलभद्दह पाय पणमहु, जिणि मयशु नहु जित्तओ ।।८ (सं० १४३७ लि. (३८) अज्ञात (४८) श्री शालिभद्र रेलुआ गा०९ आदि-राजगृही उद्यान वनि कमि वीरु सम्सरिउ, धन एसउ सालिभद्द. निय नियरिय मनु हरषियउ त्रिभुवन गुरु पूछियउ वंदाविसु सुभद्र ॥१ अन्त -धनउ अनए सालिभद्र तुम्ह गेहि पहूता तई नहु वंदिया कांई। अणसणु लेवि भागया पहुता देवलोकिहिं कोड़िय कम्म घणांई ।। जे० भ० प्रति (प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय) For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी [ ३५ (३६) अज्ञात (४९) धर्म चच्चरी गा. २० आदि-सुमरेविणु सिरि वीर जिरणु, पणिसु सावय-धम्म जो आराहइ इक्कमणि, सो नरु पावइ सम्मु ॥१ अन्त-जे पाराहइ गुरु चलण, जिणवर धम्मु करिति । संसारिय सुह अणुभविय, सिवपुरि ते विलसंति ॥२० प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (४०) अज्ञात (५०) कृपण नारी संवाद गा० ९ पादि-किवण पभणइ २ निसुणि घर घरणि महु वित्तउजइ करह धवहि प्रत्थु धरणिहि खणेविणु । खज्जतउ तुट्टिसह करिउ वासु भुक्खी प्रत्थेविण । तंदुल संचह तुस वयह हिंडइ लिल्लिर वेसि बंभण पहियम पाहुणा दुक्की कहवि म देसि ।।१ अन्त-निसुणि सुन्दरि २ किवणु पभरणेवि । सति सीलि तुहु उत्तमिय तुहज देवि अपछर पसिद्धिय । धनु एह करतार तिपरु जेण मज्ज तुहु धरणि दिन्हिय For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू-गूर्जर जन कवि खाह पियह धनु विद्रवह वाहि अवारिय सत्तु ।। जं जं भावहि तं करहि, किवणु भणइ विहसंतु ॥६ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (४१) अज्ञात (५१) श्री चतुर्विशति जिन चतुष्पदिका गा० २७ प्रादि-माय पियर लंछण नयर तणु पमाण वर वन्न भिहाण सत्त-ठाण संजुत्त जिण । चउवीसवि घण गुणह निहाण, अरशु दिणु सुमरहु भविय जण ।।१ अन्त-पढइ गुणइ सो सुणइ विचारु, सो नरु पावइ मोख दुवारु । सासण देवि हरउ दुह दूरि, पूरउ संघ मणोरह भूरि ॥२७ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय . ४२ शांतिभद्र (५२) चतुर्विशति नमस्कार गा० २५ आदि-पढम जिणवरजण मणाणद, सरनाह संथुय चलण भरह जणय जय पढम सामिय । संसारवण गहण दव चत्त दोस अपवग्ग गामिय ।। लोयालोय पयासयर, पयडिय धम्माहम्म सविहाणउतह रिसह जिण, दुज्जय निज्जिय कम्म ॥१ अन्त-जसु सावयरसाहु वर चित्त सुपसत्थ सुपसन्न मण निसि विरामि थिरु करिवि नियमण For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी [३७ चउवीसह तित्थयर सुप्पहाइ जे थुणहिं अणु दिणु । ते संसारि महा जलहि, उत्तारहिं अप्पाणु, पावह दुक्खह खउ करहि, “संति भद्द, कल्लाणु ॥२५ विहाणांका चतुर्विशति जिन नमस्काराः लिखिता श्री पालापुरे आनंदमूर्ति मुनिना। (सं० १३८५ लि० संग्रह प्रति ज० भ० क्र. १३२६) (४३) अज्ञात (५३) चतुर्विशति तीर्थकर नमस्कार गा० २५ आदि-देव तिहयण पणय पय कमल कमलायर । कय चलण कमल गब्भ समवन्न सामिय रिसहेसर। पढम जिण पढम धम्म धुर धरण धोरियं । अट्रावइ गिरिवर सिहर सेहर पुरिस पहाण । ताह तहट्ठिय भव जलहि जे न किय तुह आण ॥१ अन्त-इय निम्मल गुण गण वद्धमाण, पहु पणय पाय कमलाणं । आ संसार सेवा महु दुज्ज जिणिंद चंदाणं ॥२५ सं० १३८५ लि. सग्रह प्रति जै० भ० For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि (४४) अज्ञात (५४) मातृका बावनी गा० ६४ प्रादि-भले भणं माई घुरु जोइ, धम्मह मूलु सु समकतु होइ । समकतु विशु जा क्रिया करेइ, तातइ लोहि नीरु घालेइ ।।१ अन्त-एहु विचारु हियइ जो धरइ, सूघ धम्मु विचारिउ करइ । सुहुगुरु तणा चलण सेवंति, ते नर सिद्धि सुक्खु पावंति ।।६४ जइ संसारु तरेव उ करउ, सतगुरु तणा वयण अणुसरहु । जइ संसारह करिस उ छेहु, सुद्धधमु विचारिउ लेहु ।।१ अांचली ।। प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय - (४५) वीरप्रभ मुनि (५५) श्री चन्द्रप्रभ कलश गा०१६ आदि-अस्थि इह भरहि वर नयरि चंदाणणा, जत्थ रेहति नर नारि चंदाणणा। करइ तहिं रज महसेण पुहवीसरो, चंग चउरंग बल कलिउ नय ईसरो ॥१ अन्त-सड्ड सगुणढ जे न्हवहिं चंदप्पहं, विहिय मुहकोस बहु तो सहय कुप्पहं । कुगुरु कुग्गाह परिचत्तइय विहिरया, लहहि ते झत्ति निव्वाण सुह संपया ॥१६ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौदहवीं सदी इय वीरपह मुणिणा, रहउ चंदप्पहस्स देवस्स । जम्मा भिसेय महिमा, दिसउ सुहं सयल संघस्स ॥१७ प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय (४६) ख० जिनचन्द्रसूरि शि० (५६) श्री आदिनाथ बोली गा० ७ श्रादि- जो भुवण भूमण नाभि कुल-नर, वंसि वंस महद्धओ । मरुदेवि देवनई सुवन्न, कमल सिरि वसहद्धभो || वर राय मुणि केवलि जिणह धुरि, पंचसय धरणुहुच्चो । सेत्तुज्ज मेरि गिरिम्मि सुरतरु, आदि नाहु सु नंदन ॥१ अन्त - सोहम सामिण कमिण जिरगेसर, सूरि गोयम तुल्लनो तसुपट्टि सिरि जिणपबुहसूरि, तासु पद विज्जालउ जिणचन्दसूरि गुरु वएसि, जत्त करर जि पिक्ख ए सिंत्तुज्जि संठिय कउडि जक्खह, पमुह संघह रक्खए ॥७ वि. जिनचन्द्रसूरि का प्राचार्यकाल सं० १३४६ से १३७६ तक का है प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय (४७) अज्ञात (५७) श्री नेमिनाथ बोली गा० ७ आदि - धनु धनु धनु सोरठ देसि पसिद्धउ, जिणि गिरवरु गिरनारु । उत्तंगु सु तोरण जसु सिरि सोहइ, भुवणि भुवर श्रइ चारु ।। For Private and Personal Use Only [ ३९ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० ] मरू-गर्जर जैन कवि तसु मज्झि निविट्ठउ जलहर वन्नउ, सामिउ नेमि कुमारु । जिणि हेलई जित्तउ नव जुम्वण भरि, तिहण रगडण मारु ॥१ मन्त-रेवइ गिरि मंडणु पाव विहंडण, तिहुयण पणमिय पाय । भत्तिहि सथुणियउ इणि मणि रहिय उ, इकु तुहं जादव राय ।। तिम तिम तिम करि मह भालथलि, जिम हुइ नेमि तिल उ सुपहाणु जय जय जय जियवर तुह परमेसरु, जाम गयणि ससि भाणु ॥७ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (४८) अज्ञात (५८) श्री युगादि देव जन्माभिषेक कलश गा० २० मादि-निसुरणेहु भविय लोयह रोलवइ ऊण इक्कु वणयम्मे ... मद मयणादि भन्नइ जम्माभिसेयं च रिसहस्स ।। १ अन्त–त घणु सारि भवियणहु जिणह अभिसे उ विहिज्जइ । राय सोय जर मरण झत्ति, सुजलं जलि दिज्जइ ।। विहि करहु सरहु सुहगुरु वयण, भविय लोय भव भय हरण चित्त घड़ि न्हवरण रिसहेसरह, नर नरवर संतिहि करण ॥२० प्रतिलिपि-प्रभय जैन ग्रन्थालय (४६) अज्ञात (५९) श्री युगादि देव कलश गा० ५ आदि-जस्स पय पकयं निप्पडिम स्वयं ... सुर असुर नर खयर वयसी कयं । For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org atara सदी तस्स रिसहस्य भसीइ मज्जण विहि, foपि पभणेमि तुम्हि कुणह सवणातिहि ॥ १ अन्त-विमल गिरि मंडणं नाभिनिव नंदणं, जमणारदणं कम्म निक्कंदणं । तयस्तु सारेण भो न्हवउ भवियण जणा, सिव वहू होइ जिमु तुह उच्छ्रय मणा ॥५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे (५०) अज्ञात (६०) श्री चन्द्रप्रभ स्वामि कलश गा० ११ आदि - देव देविद विदेण गिरि मंदरे, देव चंदप्पहस्सामिणो सुन्दरे । जम्म मज्जण महो जह समारंभिश्रो, किंपि जंपेमि संपइ तहा विहिप्रो ॥१ आगया तत्थवित्थिन्न सुर सत्यया, वियड़ मणि मउड़ दिप्पंत तयणु [ ४१ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय गयण तम कंड खंडण पहा मंडला, मंडिया खंड तरतु खंडसा तरमत्थया । अन्त - गुल गुलिड के विकिवि घणघणं हेसियं किवि करहि केवि तिन्निवि सुरासंतयं । केवि हल बोलु किवि उपफलंती तथा, केवि पूरंति नंदि For Private and Personal Use Only खडला ||२ समादिया ॥ १० ॥ सारिणी सावया मज्जणं, चंदपह सामिणो कुणहु दुह तज्जणं । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ ] मरू-गूर्जर जैन कवि कलिल संघट्ट. सुविसट्ट. परिफिट्टए, तेसि भद्दतु निच्चंपि परिवट्टए ॥११ प्रतिलिपि- अभय जैन ग्रन्थालय (५१) अज्ञात (६१) श्री वासुपूज्य कलश गा०८ प्रादि-जइ जय२ पह देव वस पुज्जु, विज्जलपुर सिरितिलउ सयल लोय लोयण सहकरु । जिट्ठ मासि सिय नवमि, मणुय लोय उइन्नु मणहरु तहिं वसुपुज्ज नरेसरह, रज्जु समिद्धिहि पत्त. गेहु निहाणिहिं बहुविहिहिं, भरिउ सुरेहि निरत्त ॥१ अन्त-एय मग्गिण२ परम विच्छड्डि, छठे विणु संकमणि न्हवणु रयहि सिरि वासुपूज्जह । कल्लाणय सव्व दिण मंगलिक्क तियलुक्क पुज्जह काहल संख मुयंग तहिं, वायहि मंगलतूर । दसण निम्मलु करिवि जिव, पावह सिव सुहपूरु ।।८ (५२) रामभद्र (६२) शान्तिनाथ कलश गा० १० प्रादि-असुर सुरिंद नरिंद विंद, वंदिय पय पउमह । संति जिणंदह न्हवण समां, वज्जिय छल छउमह ।। For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात अन्त www.kobatirth.org चौदहवीं सदी अवर कज्ज सावज्ज सव्वि, वज्जिय कय पुन्नह । नवउ कलसु हउ भणिसु तुम्हि, भवियहु प्रायन्नहु ॥ १ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - दप्पण भद्दासण नंदिवत्त, सिरिवच्छ मच्छ तह कलस जुत्त । वर वद्धमाण सत्थिय विसिट्ठ, जिण पुरओ विहिय इय मंगलट्ठ || १० इय सन्ति जिणंदह उवरि गिरिदह, अमरवद्दहि किउ न्हवण जिम तिव तुम्हिवि म्हावउ जिम सुहु पावहु, 'राम भद्द * पभइ इम ॥ ११ श्रादि-संति नाह२ जम्मि प्रभिसेउ | (५३) अज्ञात (६३) श्री शांतिनाथ कलश गा० ६ * 'पाठान्तर राच भद्द. ' प्रतिलिपि - प्रभय जैन ग्रन्थालय [ ४३ सिहरम्मि मणिहरि विमल बहल रयण रवि कंति सुंदरि । तियसिद सयलिवि मिलिवि कुणहि भत्ति विहिसारु मंदिर || नज्जइ लोयह विहि परह, विहि दरिसणइ निमित्तु परिवारच्छर नट्ट भरु, तहि पयड़हि सुपवित्त ॥ १ प्रन्त - तदणु मग्गिण सह सुवियड्ढ, जिण संति मज्जरण करहिं । विहि जिणंद भवरमि संपइ, तिण सयल सुविहिहि । कलियड चिथ कालि सुह, फलिय संसइ (सिद्धि) 1 पयड़ पथंड पहावधर, लद्ध समग्ग समिद्धि ||६ For Private and Personal Use Only प्रतिलिपि - - अभय जैन ग्रन्थालय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४ ] www.kobatirth.org ------ आदि - जयति जगति सस्वन्न ेमिनाथो विशस्वच्छतममधिक कान्तिः सृष्ट मोहोपशान्ति । उदित विदित चित्रस्फूर्जं दुच्चैश्चरित्र - स्त्रिभुवन जन बन्धुः पुण्य लावण्य सिन्धुः । १ (५४) अज्ञात (६४) श्री नेमिनाथ स्तवनम् गा० २३ - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ―― अन्त तं देव देव दे विन्दे, किउ जय जयकास्त । सवि इन्द्राणी जीतउ जाणिउ, कभहि मंगल चारुत । सव्वह वीरह ऊपरि, वंदू प्रास मुदतुत | पूजउ पूजउ नेमि कुमारू, निव्वुइ कंतुत ॥२३ मरू- गूर्जर जैन कवि अन्त- -ताम जिणवरु मणवि सुरनाहु । प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय (५५) अज्ञात (६५) श्री वीरजिन कलश गा० १४ आदि - नमिर सुरवर पवर सिरि मउड़ मणि किरण, निम्मल बहुल कायकंति । सोहियस सुंदरु संसार घण घणदहण, दुट्टु कंम्म निट्ठवण पच्च । पंचिन्दिय करिवर दलरणु, जम्मण मरण विणासु । भाइ जिदिह पयकमलु, भावं पणमवि तासु ॥ १ For Private and Personal Use Only जोड़ेवि कर सिरि घरइ, खमह नाह अतुलिय परक्कम । नव जाण तुज्भ बलु वीर, दमिय कंदप्प दुद्दम । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौदहवीं सदी पुण विज्जाहर सुर गणह, जंपइ एहु सुरिंदु | लेवि कलस मा चिरु करहु, न्हावहु वीर जिणिदु ॥ १४ ( सं० १४३७ लि० प्रति से) (५६) अज्ञात (६६) श्री महावीर कलश: गा० २९ आदि - पण मेवि तिजयनाहं, सिद्धत्थ महानरिद अंगरुहं । वीरं गिरिवर धीरं, तस्सभिसेयं थुणिस्सामि ॥ १ ॥ अन्त — जेम सुर सेलि जिरणु हविउ सुर सामिणा, तेम जालउरि विहि-मंदिरे भवियणा । हवहु पुज्जहु थुणहु, भावु धरिणिय मरणे, संति जिम होइ नर, नरवरह तक्खणे ॥। २६ प्रतिलिपि - प्रभय जैन ग्रन्थालय (५७) अज्ञात (६७) श्री वीर जिन कलश गा० ५ [ ४५ आदि - जम्म मज्जणि जम्म मज्जणि, जिणह वीरस्स । पारद्धई सुरगणिण मेरु, सिहरि इ देण चितिउ । किम सहिसइ तुच्छ तणु जल, पवाहु सुर खित्त इत्तिउ । पुणु सुणिउ जिण बलु कलिउ, इउ चितंतु सुरिंदु For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ ] मरू-गूर्जर जैन कवि लीलई चालिउ वीर जिणि, वाम कमगि गिरिन्दु ॥ १ अन्त-ताम सुरवइ ताम सुरवइ, वयण संभंत । सहसच्चिय सुर असुर, सुपसत्थ तित्थु नीरह भरिऊण मणिमय कलश, कुणह न्हवण समकालु वीरह पसरिय पडु पडिरव भरिय, भुवर्णाभतर पूर अप्फालिय तियसेहिं तहि, चउविह मंगलतूर ॥५ प्रतिलिपि-प्रभय जैन ग्रन्थालय (५८) अज्ञात (६८) सर्व जिन कलश गा० ५ (चतुर्विशति जिन कलशः) आदि-जंम्म मज्जणु२ भणउं उसभस्स ।। मजिय संभवमभिणंदणह, सुमइ सुप्पभ* सुपास नाहह ।। ससि सुविहि सीयल जिणह, सिरि सिज्जंस जिण वासुपुज्जह । विमलमण तह धम्म जिण. संनि कुथु अर मल्लि । मुणिसुव्वय नमि नेमि जिणु, पास वीर जिण वल्लि ॥१ अन्त--तयणु गारिण (तयशु गारिण) सब भो भव । अपुव्व वत्याभरण, भूसियंग मणि रंग चंगय प्राण द वाहप्पवह न्हविय, गल्लयल पुलय संगय करहु सव्व तित्थेसरह, मज्जणु मह वह सेउ सिवपुरम्मि तुम्हवि भवइ, जिव लहु रज्ज भिसेउ ॥ ५ * सुपम सुप्पास मिंण प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी [ ४७ (५६) जिनपद्मसूरि (सं० १३८६ से १४००) (६९) श्री शत्रुञ्जय चतुविशति स्तवनम् गा० २६ पादि-जग मंडण गुण पवरं, सत्तजय धरणि........रं । सुह सारं भवतार, भयवार-थुणिसु जिणवरि ॥१॥ ना ि........ई, मुरदेवि पुत्तं जणाणंदण। वसह वर लंछण दुरिय, भ... "ण मंडलं ॥२॥ अन्त-तिय लोय भूसण दलिय दूसरगु, विबुह तोसण संगउ । इय माय ताय सरीर लंछण, देह कतिहि संत्थुउ॥ सिरि माणतुग विहार संठिउ, सुप्पइट्ठिउ जिणगणो । जिण पउमसूरि सुरिंद वंदिउ, दिसउ सुक्खु गुरगुल्लुणो २६ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय जिनपद्मसूरि दे० ज० गु० क. भा० १ पृ. ११ (६०) अज्ञात (७०) श्री स्थूलिभद्र बोली गा० २८ पादि-सुर राय समहरि करवि निज्जिय, चक्कवह हरि हलहरा । पायालि पन्नग सेव मन्नहि, कवण मत्त नरेसरा ।। तस कुसुम सर कोदंड खंडवि, बाण पसरुवि हिडिउ । सिरि पूलिभद्दिण तेम निज्जिउ, जेम किणिवि न निज्जिउ ॥१ मन्त-कोवि निय तरण तषिण सोसाइ, कोवि रंनिहि निवसए । For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि किरि कोथिवि प्रिय सेवालु भक्ख इ, सोवि तुह आसंकए ।। जो वंस घरि चउमासि निवसइ, सरस भोयण सत्तउ । तस थूलभद्दह पाय पणमहु, जिणि मयण तुहु जित्तउ ॥८ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (६१) अज्ञात (७१) माल उघटणं गा० १८ पादि-सयल तियलुक्क गंजि रवं, महबलदलण लद्ध माहप्पो। वसहक पवर चियो, प्राइ जिणिंदो सुहं देऊ ॥१ अन्त-दाणवंतह२ सुकुलि उपत्ती। . धणु धन्नु कंचण बहुलु, दाणि होइ वर रूववंतउ । दाणेण जगि वल्लहउ, दाण दित्ति सुकलत्त जुत्त उ । मत तंत मूलिय सवइ, सिज्झिहि दाण फलेण । जिणवर मुह उग्घाडणइ. निय घणु दिज्जइ तेण ॥१८ प्रतिलिपि-प्रभय जैन ग्रन्थालय (६२) अज्ञात (७२) आशातना षटपद २ पादि-करहु दीह संसारु, जिण प्रासायण वारहु । आसायण मिच्छन्नु, अप्पु दुग्गह मन धारह । For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी [ ४१ अन्त-विहि करहु अविहि मण परिहर उ, सुगुरु वयणु झाय? सुगणु । भव जलिहि तरह वज्जहु नरहु, जिण-मंदिरि तंबोलु पुणु ॥२ प्रतिलिपि-अभय जन प्रन्थालय (६३) अज्ञात (७३) शासन देवता गीत पदानि गा ८ आदि-वाघ वाहणि विमाणि आरुही, भमइ सग्ग मच्चु पायाले । मण वंछित मनोरथ पूरइ, जिण-शासणि संघ सानिध करे ।।१ अन्त-अष्ट मंगलिकि प्रष्ट पूय करि, अष्टकि जे ध्यायते । तासु तणइ धरि अफलिय फलियइ, सासण देवि पसाइयए । प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (६४) अज्ञात (७४) ज्ञान छप्पय (वस्तु छंद) नाणु सुरतरु नाशु सुरतरु, नाणु सुरघेणु । चिन्तामणि नाणु जगि, कामकुभ जिम नारा सुहकरु । अन्नाण भर तिमिरहरु, नाशु भाणु कल्लाण मन्दर । भव उत्तारण भयहरणु, अंधह नयण समाणु । झायहं गायहं नितु नम, मणि तणि वयणि हि नाणु ॥१ For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० ] मरू-गूर्जर जैन कवि (६५) धर्मसूरि (७५) श्री समेतशिखर तीर्थ नमस्कार गा०८ प्रादि- असुर अमर खयरिंद, पणमिय पय पंकय । जस सिरि बीस जिणिद, पत्त सासय पय संपय । वर अच्छर सुर सरिय सरिस, तरुवर सुमणोहर । सो समेय गिरिंद नमउ, तित्थह सिर से रह ॥१ अन्त- इय सम्मेय गिरिंद वीस, जे सिद्ध जिणेसर, मोह गुरूय तम तिमिर पसर, भयहरण दिरणेसर । ते संघु अतिअ भत्तिराइ, सपसाइ महामुणि, धम्मसूरि पायाण दितु, चितिय सुह जे मुणि ॥८ प्रतिलिपि -- अभय जैन ग्रन्थालय (६६) अज्ञात (७४) सम्मेतशिखर गीत (अपूर्ण) आदि-खयर नरिद सुरिदिहि वंदिउ हदियरु, मणिकंचण रयणामय भूमिहिं अइ पवरु; वीस जिणेसर पचम कल्लाणिहि महिउ, सिरि सम्मेउ नमंसह बहु अइसइ सहिय ॥१ मन्त-दिपंत रयण मणि कति सारु, सम्मेय सिहर भव सयह पारु । कलि काल कलुस जण मण निएवि, संपइ नर दुग्गम विहिउ देवि ॥१३ For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org चौदहवीं सदी [ ५१ सम्मेय गिरिहि सुविसाल तीरि, सुपवित्त विमल वर कुंड नीरि । पsिबिंब पड़ पच्चक्ख तित्थ, जिरण प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६७) अज्ञात (७७) श्री शत्रुञ्ज चंत्य परिवाड़ी गा० २९ प्रादि- सामिय रिसह पसाउ करि, जिम से जि चड़ेवि । चेत्र प्रवाडिहि सवि नमउ, तीरथ भाव घरेवि ॥१ अन्त - नेमि जिरणेसरु पाज मुहि, ललतासरि जिण वीरु । पालीताणइ पास जिरंतु, नमिउ लहि भव तीरु ||२८ एहिजि चेत्य प्रवाड़ि नर, पढई गुणई निसुगति । सिरि सत्रु जय जात्रफलु, ते निश्चई पावंति ॥२६ प्रतिलिपि- - श्रभय जैन ग्रन्थालय (६८) अज्ञात (७८) श्री शत्रुंजय महातीर्थं गीतम् गा० ५ प्रादि- तित्थ माझि सेतुज खित्तु सिद्धि सारो । नितु लगउ जिव भमसि भवजल पारो ॥१ अन्त - प्रभु दरिसणि अमृतकुंडि प्रम्हि न्हाइला | पुरबिल दुकृत कर्म प्राजु घोइयला ||५ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ ] मरू-गूर्जर जैन कवि (६६) अज्ञात (७९) स्थूलिभद्र गीतम् गा० १२ आदि-भरत खेते पाडलिय पुरे नवमु नंदराओ सकटाहल पूत्तु थूल भद्दो, सो लेइ व्रतु जिणि जुवकालि कंदपु दालियओ रंजिउ राउ मुनि जिणि, विषय सुख अवगनिउ पंच मुष्टिकु लोचु कियउ, सो नमहु थूलभद्द ॥१॥ आंचली अन्त-गुरु णिय मन्निविसो गयो, निय गुरह पासि । आलोवंतउ करुण सरि, अनुमन रहसि सुद्ध भावेण जिणि पंकु पखालिउ, गयउ सो मुणिवर देवलोके । १२ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (७०) अज्ञात (८०) श्री सुदरिसण महारिषि गीतम् गा० १३ प्रादि-उसभुदत्त चंपावरि सेठी अरइ दंत पियकता सुभगु कुमार उम्ह इसिहिं पालकु मुनि सिंहु कियउ प्रसंगो । कन्नु डुलइ किरि अमिय, पईसइ सुणिवि सुदरिसण जिन्ह दीठउ से नयण ति धन्ना, मयण करडि हरि लीलो ॥१ अन्त-देवदत्ता गणिका तसु खोभई, ना खोभइ गिरि धीरु । अभया वितरि ठाइहिं खोभइ, तउ हुव केवल वीरो ॥१३ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी [ ५३ (७१) अज्ञात (८१) श्री स्थूलिभद्र गौतम् गा०८ आदि-सीह सप्प धरि कुव कंचण मणि, संपत्तउ मुणि राउ। दुक्कर कारउ वरनीजइ, थूलभद्द मुनिराओ ।।१।। अन्त–तासु देखि गुण गुरि मन, रंजिउ दुक्करु भासइ । तस गुण थुणिवि करिवि जो भासइ, तसु घरि सिरि आवासइ ।। प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (७२) अज्ञात (८२) श्री वयरस्वामि गीतम् गा० ७ आदि--भरतखेते तुववण पुरे, धणघर सेठि घरि । हेउ विमाणह चवियउ, ता सुनंदा उवरि ॥१ अन्त-दस पूरवधरो वइर सामि, अनिक लबधि जूतो। सूठि गाठे अणसणु लेयाओ, पहुत उ मुनि देवलोके । ७ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (७३) अज्ञात (८३) मधु बिन्दु गीत पद गा० ८ आदि-प्रभवु भणइ नव जोवण परिणिय, अट्ठ रमणि जगि सार : For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४ । मरू-गूर्जर जैन कवि काम-भोग भोगवि तुहुं प्रामिय, मेल्हिवि जंबु कुमारा ॥१ अन्त-प्रभवु चोरु पंचसय परिवारितु जबू स्वामी प्रतिबोधिला । अट्ठ रमणि सउ सुधर्म सामि पासि, संजम भारु तिणि लयला ।।८ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (७४) शांतिसूरि (८४) श्री सीमंधर स्वामि स्तवनम् गा० ८ आदि-जंबू वर दीवह महा विदेह, सणि धणि घणहां सय पंच देह । सीमंधर स्वामी विहरमाण. वसहंक-सयर सोवन्न माण ॥१ अन्त–संदेशे पोलग कर देव, ऊमाहउ हीय न मा. ईणि खेत्रि वसंतां खति पूरि, दय मुक्ति भणयं श्री शांति सूरि।। प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (७५) अज्ञात (८५) गिरनार तीर्थ स्तवनम् गा०६ . प्रादि-गिरि उज्जितह गरि जाइसु, वादिसु नेमि कुमारो। इय संसारु समुद्द तरेविशु, पाविसु मारेव दुवारो॥१ अन्त-पूरव धरमिणि इउ माणइ प्रभु, वीनतड़िय अवधारि । इसु संसारह खरी निवीनी, प्रावरणु गमरणु निवारि ॥६ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंत्री घारिसिंह चौदहवीं सवी (७६) अज्ञात (८६) गिरनार तीर्थ स्तवनम् गा० ५ प्रादि-हिव आसालु पहुतउ हिलिए, पाउस पहिलउ मासु । अंबरि जलहरु उदयलि हलिए, गोयलि रासु रमेसु ।१ अन्त-मिलिहुंणि सहिय समाणिय हिलिए, कुसुमह करडु भरेसु । निमि जिण पूज कराविसु हिलिए, भव संसारु तरेसु ॥५ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (७७) मंत्री धारिसिंह (८७) श्री नेमिनाथ धुल गा० ८ प्रादि-सहजि सलूणड़ी नारि, मिलीअ स तेवड़ तेवड़ी ए। राउलड़ा घर बारि, नेमि कुमर वर जोयती ए॥१ पूच्छइ पूच्छइ राजकुमारि, कहिन बहिन वर किमु हुउ ए । सणउ तम्हि सहिय बिच्यारि, जिण परि वर मंइ पामिउ ए ॥२ अन्त-इण परि नेमि कुमार, गुण गाई सवि कामिणी ए। राणीय राजिमती भत्तार, मंत्रि धारिसिंघ स्वामिणी ए॥ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५६ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७८) देवचन्द्रसूरि (८८) रावण पार्श्वनाथ वीनती गा० ९ आदि- रावण मंडण पास जिण, पणमउ तुह पय सामि । महुयर के तकि कुसम जिम, मरण लीणउ तुह नामि । १ अन्त - कलि कप्पद्दम पास जिण, पयड़इ तुह पय सेव । देवचंद सूरिप्पमुह, पाव पंक गय लेव ॥८ मरू - गुर्जर जैन कवि रावण मंडण भव भय खंडण, पास जिणेसर पय कमल । जे तुझ नमसिइ भत्तिई पसंसई, ते नर पावई सुह अमल || प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय (७८) अज्ञात (८९) जिनस्तवना गा० १७ आदि- नमिर नर पवर सिरि, हीरमणि अच्चियं. नमवि सिरि सारया, देवि पय पंकयं । तयण गुरुराय कम, कमल वदिय सयं भत्त भवियाण, संपावए सुह सुयं ॥ १ अन्त -भव भमण भंजण मोहगंजण, सज्ज रज्जन अत्थउ, दुह दुरिय वारण सुक्ख कारण, प्रवर किंपि न पत्थउं । निय देवी देवा चरण सेवा, करण करुणा सायरा, दइ दाण वंछि पाव वंचिय, सयल सेवई सुरतरा ॥१७ For Private and Personal Use Only प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org चौदहवीं सदी ( 50 ) अज्ञात ८० (९०) साऊका पार्श्वनाथ स्तवनम् गा० १० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदि - सिरि सोहंत फणामणि मालं, श्रमि चंद सरिस सम भालं । , रवि ससिहर कुडल संकासं वंदे साऊ जिनहरि पासं ॥ १ सायर सरिहर निरमल काय, मोंड़िय मयण महाभड़ि वायं । पूरिय [मन] वछित [ सहु] आस, वेदे साऊ जिणहरि पासं ||२ अन्त - वंम्मा कुविख सरोवर हंस, अससेण नरवइ पयड़िय वंसं । केवल लच्छि विलास निवास, वंदे साऊ जिणहरि पास ॥ देखिय साऊय सेठि विहार, सुरपति भुवण सरिस जगि सारं । धंनु सु वरिस दिवसु सुमासं, वंदे साऊ जिणहरि पासं ॥ १० प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय (८१) अज्ञात (९१) कोका पार्श्वनाथ स्तव० गा० ३० अपूर्ण [ ५७ भविक लोक तम्हि मन माहि ध्याउ, आदि - प्रससेणि रायकुलि अवतरीउ, हेला मांहि जीणइ जग उधरीउ, उदयउ अभिनव चंदो ॥१ तावि माए विहि ऊयरिइं धरीउ, वाणारसी नयरी अवतरीउ, की मनि प्रारदो ॥२ अन्त - कोकउ पारिसनाथ बखाणंउ, साम्ह कई गुण पार न जाणु चितामणि अवतारो ||३० For Private and Personal Use Only .... प्रतिलिपि - प्रभय जैन ग्रन्थालय Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि (८२) अज्ञात (९२) महुरा पार्श्वनाथ जिन विज्ञप्ति गा० १२ आदि-महुरपुरी सिरि प्राससेण, वामा दिवि नंदणु तिहुयण पहु सिरि पासनाहु. घण दुक्ख विहंडणु भविप्रण जण भव भमण ताव, पसमण वर चंदणु अमिय कति तणु जट्ठि देव, देवासुर रंजन ॥१ अन्त-इम महुरनिवासं, जो थुणइ भावि पासं । विहिय मण नासं, दिन्न दोसप्पवासं । जणिय कुगइ तासं, छिन्न कम्मट्ठ पासं । बहु सुह सुविलासं, सो लहइ सिद्धि वास ।।१२ प्रतिलिपि-अभय जन ग्रन्थालय (८३) अज्ञात (९३) श्री आदिनाथ कलश गा० २२ प्रादि-सयल दीवाण मज्झे, जंबू दीवम्मि प्राइमेरम्मि । भारह खित्ते जामो, मुणिराओ लोय विक्खायो॥१ लोयविक्खाउ मुणिराउ गुण सायरो,पढम सिद्धीइ पयउंम जग दिणयरो। भव समुद्दमि निवडत जण तारओ, न्हवहु जिण न्हव हु जिणु सिद्धि सुहकारभो ॥२ अन्त–त दुहहरु सुहकरु न्हवण जिणंदह, भवियहु फुणहु भत्ति गुणवंतह । त जिणिपरि चउसठि सुरिदिहिं विहिउ, तिणि परि सयलु तुम्ह मई कहियउ ॥२१ For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजशेखर उदयकरण चौदहवीं सदी [ ५९ मेरु सिहरमि इंदेहि जह विहि कउ, पढम जिण न्हवणु भत्तीइ बुह सम्मउ तयणुसारेण भो भवियणा संपयं, तह कुणहु जह लहहु सासय सिव पयं ।।२२ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (८४) राजशेखर (९४) श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम् गा०१० आदि-कमठासुर माण गिरिद पवि भवियंग सरोज विबोह रविं। सुरराय विणमिय णेग महं, विनुवामि जिणेसर पास महं ॥१ अन्त - सिरि प्रससेण नरेसर जाओ, इंदनील नीलुप्पल कारो। रायसिहरि संपूइय पामो, पासु पसीयउ मे जिणराप्रो ॥१० प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय वि० राजशेखर सूरि दे० जे० गू० क० भा० १ पृ० १२ भा० ३ पृ० ४१२ (८५) उदयकरण (९५) श्री जीराउला पार्श्वनाथ स्तोत्रम् गा०९ भादि -जीराउलि मंडण पासनाह, पय पउम सुसेवय नागनाह । मण वंछिय तरु गण फलण राह, महि मंडलि गुरु महिमा सणाह ।।१ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० ] मरू-गूर्जर जैन कवि अन्त-सिरि पास जिणेसरु भुवण दिसरु, जीगउलि रमणी तिल उ । सुरनर गणि महियउ भाविण मइथुणिय उ, उदयकरण भवि भवि सरगु ।। प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (९६) श्री फलवद्धि पार्श्वनाथ स्तोत्रम् गा० ८ आदि -जय फलवद्धिय पुरि रमणिहार, जय पास जिणेसर भवण सार । जय जण मण चितिय सुह दतार, जय दस दिसि पसरिय जस विचार ॥१ अन्त-फलवद्धिय मंडण दुरिय विहंडणु, पास जिणेसर उदयकरणु। तुह चलणि विलग्गउ ह इत्तउ मग्गउ, भवि महु तुह सय सरणु ॥८ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (८६) विनयप्रभ (बोधिबीज) श्री जिनकुशल सूरि शि० (९७) श्री सीमंधर स्वामि स्तवनम् गा० २१ आदि-नमिर सुर असुर नर विंद वंदिय पयं, रयणि कर कर निकर कित्ति भरपूरियं । पंच सयं धणुह परिमाण परि मंडियं, थुण भत्तीइ सीमंधरं सामिय॥१ For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विनय प्रभ चौदहवीं सदी [६] अन्त- इय भवण भूसण दलिय दूसण, सव लक्खण मंडणो । मद मान गंजण मोह भंजण, वाम काम विहंडणो ।। सुर राय रंजणु नाण सण, चरण गुण जय नायको । जिण नाह भवि भवि तात भव मे, बोधिबीजह दायगो ॥२१ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय - (९८) विमलाचल आदिनाथ स्तवन गा०१३ .. आदि-मुख संमुखं नयपले देन दीठउ, तहे जाणि मो अन्न न अमीय मीठ 3 जदा नंदि हसामि ने पाल लागउ, तदा देव मह मोह नउ द्रोह भागउ ।।१ अन्त- इम भोलिम सामिनी भगति कीधी, असंख्यात मू पुण्यनी वृत्ति सीधी। न माग जगन्नाथ हउ किंपि बीजउ, विभो आभव देहि मे बोधि बीजं ॥१३ प्रतिलिपि -- अभय जैन ग्रन्थालय (८७) अज्ञात (९९) श्री अंतरीक पार्श्वनाथ स्तवनम् गा० ५ प्रादि--जय जिणेसर जय जिणेसर पास जिण नाह । अंतरीय माहप्पुहिव, एणि कालि तुह देव दीसइ । सिरि सिरपुर वर तिलय, कित्ति सयलि तिहुयणि सलीसइ । नाम मति सुमरंतयह, दुरिउ पणासइ दूरि । For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ । मरू-गूर्जर जैन कवि हे पत्तउ तुह पय सरणि, दुट्ठ कम्म मह चूरि ॥१ अन्त-पोस दसमिहि पोस दसमिहि जम्मु सुपसिद्ध । वाणारसि वर नयरि, प्राससेण नरनाह मंदिरि ॥ वम्मा उरि संभामिउ, मेरु सिहरि न्हविउ पुरंदरि । कमठ असुर गय मय महणि, केसरि जिम बलवंतु । सिरिपुर मंडणु पास जिगु, अंतरीउ जयवंतु ॥५ प्रतिलिपि -अभय जैन ग्रन्थालय पंद्रहवीं शताब्दी (८८) मेरूनंदन (ख० जिनोदय सूरि शि०) (१००) श्री गौतम स्वामि छंद गा० ११ (सं० १४१५ लगभग) आदि-अट्ठ छंद दस दूहड़ा, छपदु अडिल्ला दुन्नि ॥ जे निसुणइ गोयम तणा, ते परिवरियइ पुन्नि ॥१ अन्त-गोयम सामिउ मई थुणिउ, इम गरुयउ गुणवन्तु । संघ मेरुनंदण वणिहिं, सुरतरु जिम जयवन्तु ॥११ वि० मेरूनंदन की सब रचनाओं की प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय कवि के सम्बन्ध में दे० जैन गू. क. भा० १ पृ० १८ भा० ३ पृ. ४२०, १४७७ For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेरूनंदन [६३ पन्द्रहवीं सदी (१०१) श्री गौतम स्वामि छन्द गा०१० आदि--ता सुरतरु जिम जयवन्तु महावणि, सुरभंडारि जेम चिन्तामणि । दिणमणि जिमं सोहइ गयणंगणि, तिम जिण सासणि सिरि गोयम गणि॥१ अन्त-नियमण वछिय कज्जि नमइ, जसू सुरनर किन्नर । इद चंद नागिंद असुर, विज्जाहर मुणिवर । उच्छव मंगल रिद्धि विद्धि, जसु नामि पयासइ । रोग सोग दोहग्ग दुरिय, दुरतरि नासई । सो वीर सीस सूरीस वरु, महिम गरिम गुणि मेरु गुरु । सिरि गोयम गणहरु, जयउ चिरु, सयलसंघ कल्याण करु ॥१० (१०२) श्री स्थूलिभद्र मुनीन्द्रच्छंदांसि गा०८ आदि-जो जिण सासणि कमल वणिहि, हंस जेम विक्खाउ । सो वन्निसु सोवन्न तणु, थूलिभद्द मुणिराउ ॥१ अन्त-थूलिभद्दु मुणिवरु जयउ, घण गुण रयण निहारणु । सयल सघ मंगल करण, धीरिम 'मेरु समारा ।। (१०३) श्री स्थूलिभद्र मुनीन्द्र छंदांसि गा० २५ प्रादि- मेरु समाणु जु सीलि पसिद्धउ, कोस वेस रस रंगि न विद्धठ । मलिउ मयण बल जिणि अलवेसरि, जयउ सुथूलिभद्द, मुणि केसरि । १ For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ ] मरू-गूर्जर जैन कवि अन्त-गुणवंतह सिरि तिल उ, निलेउ दंसण चारित्तह । अच्चब्भुय वर चरिय, भरिउ मंदिरु तव सत्तह ।। भद्दबाहु पहु सूरि पट्ट उदयाचल दिणयरु । चरम चउद्दस पुव्व धारि. सेवय जण सुहयरु ।। उभियउ हत्थु जिणि सील गुणि, महिम सुरद्द,म देव कुरु । सो थूलिभद्द, संघह जयउ, मयण विडंबणु मेरु गुरु ।।२५ (८६) रत्नशेखर सूरि (१०४) गौतम रास सं० १४१९, थिरउद्दपुर, गाथा ७५ आदि-ओंकार तुम्ह माय वीर, सिरिवन्न महन्तो। हिय कमल झाएवि ध्यावेइ, वीरु जिणवर अरिहन्तो । अणिसु गोयम स्वामि तणौ, गुण संथव रासो । जिण निसणो भो भविय लोय, मणि हरषि उलासो ।।१।। पुहवि पसिद्धो मगहदेस, वर गुम्वर गामि ।। सार सरोवर कूव वावि, वणिक्कण अभिराम् ॥ तहि निविसई वस भूई नांवि, दिय राउ पसिद्धउ । गोयम गुत्त पवित्त वसु, बहु रिद्धि समिद्धउ ॥२॥ अन्त-जयवंतव जिण शासनि राज, परव महोच्छवि मंगल गाज। पहिलो विरधि वधावणी भणहि गुणहि जे गोयम रासौ ॥ प्रष्ट महासिधि नवइनिधि तहि धरि निश्चल करहिं निवासी ॥७४।। चौदहस यह गुणीसइ बरसै थिरउदपुरि गरुवउ मणि हरसं, रास एहु गोयम तणौ रयण सिहर सुरी दिहि कियो चौबिह संघ विविह परं ।। For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कान्ह पन्द्रहवीं सदी [ ६५ रिद्धि वृद्धि मगल सिरि दियो ॥७५।। इति सप्तमी भाषा । इति श्री गौतम स्वामिरास समाप्ता। लिखित ब्रा० देवीदासेन सा. पदार्थ पठनार्थम् । ___ महौ० विनयसागर जी गुटका नं. ८६ ॥ वि० इस गुटके में इसके बाद संजयि अध्ययन, अर्थ सहित सं० १५६२ श्रावण सुदि १२ सा० पदार्थ पठनार्थ लिखा हुआ होने से उपरोक्त रचना का भी लेखनकाल १५६२ संभव है। (६०) कान्ह (श्रीमाल छांडाकुल) (१०५) अंचल-गच्छनायक गुरू रास गा० ४० सं० १४२० खंभात आदि-रिसह जिणु नमिवि गुरु वयण अविचल धरी, पंच परमेट्टि महमतु मनि दृढु करी। अंचल गच्छि गछराय इणि अणुकमिई, सगुरु वन्नेसु गुरु भत्तिभरवि क्कमिइं ॥१ अन्त-खभाइत वर नयर मझारि, दीवाली दिनि अनु रविवारे, संवत चऊद विसोत्तरइ ए ॥३७ श्रीमाली छांडा कलि जाउ, कान्ह तणइ मनि लागउ भाउ, नवउ रासु सो इम करह ए ॥३८ तस घरि विलसइं मंगल माल, तास कित्ति पसरई चउसाल, महिमंडलि सा रुण-झणइ ए ||३६ लच्छी तास सयंवरि पावइ, एउ रास जो पढइ पढावइ, कान्ह कवीसर इम भणइ ए ॥४०. इति श्री गच्छ नायक गुरू रास For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू-गूर्जर जैन कवि प्रति-मुनि पुण्यविजयजी संग्रह कवि की अन्य रचना दे० ज० गू० क० भा० ३' पृ० १४८१ (६१) पहुराज (ख० जिनोदयसूरि भक्त श्रावक) (१०६) जिनोदयसूरि गुण वणन गा० ६. स० १४२० लगभग आदि - किणि गुणि सोववि तवण, सिद्धिहिका भति तुम्ह हो मुणिण । संसार फेरि डहणं, दिक्खा बालाणए गहण ॥१॥ अन्त-फल मन वंछिउ होइ जि किवि, तुइ नाम पयासय । तुझ नाम सुणि सुगुरु सेर, दारिद पणासइ ।' नाम गहणि तुय तणय सयल, श्रावय उस्सासहि । जिण उदयसूरि गणहर रयरगु, सुगुरु पट्टधर उद्धरण पहराज भणइ इम जाणि करि, सयल संघ मंगलु करणु ॥६॥ प्र० ऐ० जैन काव्य संग्रह पृ० ३६-४० . जिनोदय सूरि आचार्यकाल सं० १४१५-१४३१ For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयसिंहसूरि पन्द्रहवीं सदी [६७ (६२) जयसिंहसूरि (कृष्णर्षिगच्छीय) (१०७) प्रथम नेमिनाथ फागु गा० ३२ सं० १४२२ आसपास प्रादि-पणमिवि जिण चउवीस पइ, सुम रवि सरसइ चित्ति । नेमि जिणेसर के वि गुण, गाएमउ वहु भति ॥१ जादव कुल सिंगारु पह नेमिकमारो। समुद्र विजय नरहि, पूतु, सिवदेवि-मल्हारो ।। सोहग सुदर तरुणदेह, गुण गण भडारो। सिसिरि रत्तउ गणइ चित्ति, ससारु असारो ।।२ अन्त-भास-इम विलवतिय रायमई, नेमिनाह परिचत्त । परियर कह नवि बूझवइ, विरहानल सतत्त ॥३१ दाणि दलिछ दलेवि, लेवि सं जमु भरु दुद्ध। . केवल नाणु लहेवि, सिद्धि, पत्त उ नेमीसह । भविय जिणेसरभवण रंगि, रितुराउ रमेवउ । कन्हरिसी जयसिंहसूरिकि उ फागु कहवउ ॥३२॥ प्रकाशित-प्राचीन फागु-संग्रह पृ० १२-१६ (१०८) द्वितीय नेमिनाथ फागु गा० ५३ ___ सं० १४२२ आसपास प्रादि-वंदिदि सिवदिवि नंदनु, चदनु जिम जगि सारु । गाइसु नेमि कृपागरु, सागर गुणहं अपारु ।१ .. समुद्रविजय नृप संभवु, दंभु विवज्जितु चित्ति नेमि न यौवनि माचइ, राचइ साचइ तत्ति ।।२ अन्त-केवल नाणिहि वाणिहि, छेदि उ ससय कंदु । सीघउ सिवपुरगामिउ, सामिउ नेमि जिणिंदु ॥५२ For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८] मरू-गूर्जर जैन कवि कीघउ कन्हमुनीसर, गणहरू जयसिंहमूरि। फागु रे सुणतह गुणतह, पापु पणासइ दूरि ॥५३ प्रकाशित-प्राचीन फागु-संग्रह पृ० १७-२१ (६३) राजतिलक (? विजय तिलक) (१०९) जंबूस्वामी फाग गाथा ६० सं० १४३० प्रादि-वंदवि वीर कृपानिधि, सानिधि दान अपार । पामीय सुहगुरु आयसु, गाइसु जंबकुमारु ।१ मगधदेशमुखभूषण, दूषणरहित निवासु । नगर राजगृह राजए, गाजए जगि जसवासु ॥२ अन्त--फागु वसंति जि खेलइ, बेलइ सुगुण निधान विजयवंत ते छाजइ, राजइ तिलक समान १५६ चउदह तीस संवच्छरि, मुच्छरि मानि विमत्तु जंबुय गुण अनुरागहिं, फागिहिं कहीय चरित्तु ।।६० प्रकाशित-प्राचीन फागु-संग्रह पृ० २५-३० (६४) जयशेखरसूरि (महेन्द्रसूरि शि०) (११०) द्वितीय नेमिनाथ फागु गाथा ४९ सं० १४४० आसपास आदि-पणमिय शिवगतिगामीय, सामीय सवि अरिहंत । सुर नर नाह नमसिय, दंसिय सयल दुहंत ।१ For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गुणचंदसूरि www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंद्रहवीं सदी गाइ मण प्रणुरागिहि फागिहिं नेमिकुमार | जिणि जगि सयल विदीतउ, जीतउ भुजबल मारु | २ अन्त - प्रगणिय राजल वयस्णु, दाण संवत्सर देई ।. रेव गिरिवर सामिसाल, संजमसिरि लेई | चउपन दिणि अकलंक, विमल केवलसिरि पामिय । घणइ कालि राइमइ सरिसु, सिवि पत्तउ सामिउ ४८ नवजुव्वभरि सील. सबलु, सोहागिहि सारो । मणवंच्छिय फलदेउ देउ, सिविदेवि मल्हारो | सिरि महिंदष्पहसूर सीसि जयसेहरि कीजइ । 1 फागु एउ भवियणि वसंत ऋतु रसिंहिं रमीजइ । ४६ प्रकाशित - प्राचीन फागु संग्रह पृ० २४२-१=२४२-७ दे - जैन गु० क - भाग १ पृ० २४ भाग ३ पृ० ४२४-२६-१४०८ (६५) गुणचंदसूरि ( १११ ) वसंत फागु गाथा १६, १५वीं शताब्दी प्रादि- अहे फागुण फली अ बीजोरडी, पुहतलु मास वसंत । afi aft तर कूपला, केसू कसम अनंत । १ कामिणि कारण भमरलु, भमतु माझिम राति । काची कलिय म भोगवी, भोगवी नव नवि भाति ॥२ मन्त - अहे नइ हरि मइ आराहीउ, नवि जागु सिवराति । गोरी कंठ न ऊतरि, माहरी उत्तम जाति । १५ For Private and Personal Use Only [ ६९ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७० ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू- गूर्जर जैन कवि अहे वसंतक्रीडा तीह अति करि, आणंद मुनिनि पूरि । मनरंगि एम बोलि, श्री गुणचंद्रसूरि । १६ प्रकाशित - प्राचीन फागु-संग्रह पृ० ५५-५६ (६६) अज्ञात (११२) श्री जयतिलकसूरि भास गा० १० प्रादि- सरसति करिन पसाउ, गणधर तपागच्छ मंडणउ । गाइ जतिलकसूरि, दुख दारिद्र विहंडणउ ॥ १ चालि सखीय गुरु वांदीइ, रिद्धि वृद्धि सू सविचार जास पसाइ नांदीइ | हरिपाटि, दिणयर जिम जग विस्तरद ॥२ चालि० प्रचली अन्त-देव भवनि ध्वज लहलहइं, घरि घरि गूडी उछाह । जिण सासणि वद्धामणउ, श्रावक मनिहि उच्छाह ॥६ इण परि सवे सुहासिणी, वंदीय दियइ श्रासीस । पास पसाइ श्री संघ, प्रतपत्र कोड़ि बरोस । १०. For Private and Personal Use Only प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंद्रहवीं सदी (६७) अज्ञात ( ११३ ) २ श्री जयतिलकसूरि भास गा० ९ आदि - नागनयर मुख मंडणउ, पणमीय पहु पास । गाइसु सहिगुरु ब्रम्हतणां, जिम पूजइ आस ॥ १ तपागच्छ मुनिवर गहगहई, चंद्रकुल राजहंस । श्री जयतिलक सूरि जीणीइं, मुणि जण प्रवयस ॥२. अन्त - चितामणि सुरतरू समउ, कलि कामघट एउ । चितित फल सेवक तणा, देयइ दूसमि सोय ॥८ देशना दुख दच्च उल्हवइ, अभयसिंह सूरि सीसुः । भास पढतां पूजिसि, नितु प्रास जगीस ॥ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय (६८) अज्ञात ( ११४) जयतिलकसूरि भास गा० ७ प्रादि - थंभणपुरवर मंडणउ, पणमीय पास जिण सामि । [ ७१ श्री जयतिलक सूरि गाइसो, नव निधि जहनइ नामि ॥१ गुरु मुनिरयण, जीतउ मोहमयण, नयण निहालिसु श्रापणइ ए । सही ए अतििहं उत्साहो, लीजइ सुकृतलाहो, श्री जयतिलकसूरि उबाहो ॥२ अन्त - वचन सुधारसि वरसय, दरसय ए सिरपुर माग । रयणाधर गच्छ पालइए, टालइए पाप तु लाग ॥६ For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७२ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू- गूर्जर जैन कवि अविहि जेह सिरि कर निसय, निवसय तीन गुण ग्राम । चितामणि सुरतरु समउ, कामगवी जेहनउ नाम ॥७ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय ( ६ ) जयकेशरमुनि ( ११५) जयतिलकसूरि चउपई गा ३२ प्रादि- सामिणि सरसति तद पसाइ, नितु मन वंछित कवित कराइ । अम्मनि आज ऊपनु भाउ, भगतिहि वन्निषु सुहगुरु राय | १| गरूया अभयसिंह सूरींद, तास पट्ट उजोयण चंद | तपागच्छ मंडर गुणवंत, सिरि जयतिलकसूरि जयवंत ॥२॥ अन्त - इण परि जे नितु सुहगुरु धुणइ, तेउ चउपइ जे श्रवणिहि सुणइ । जयकेसरि मुणिवर इम कहइ, ऋद्धि वृद्धि मंगल ते लहइ ।।३२।। पत्र० ३-४ से ११ (१६वीं शती लि० भारतीय विद्या मंदिर - बंबई) (१००) अज्ञात ( ११६) श्री जयतिलकसूरि भास गा० ८ आदि - तपगच्छ मंडण दुरिय विहडण, खंडन सोहन वीर । सुहगुरु गुरूउ नयणे दीठउ, मीठउ गुहिर गंभीर ॥ १ For Private and Personal Use Only सखि श्री जयतिलक सूरिदो, वांदिवउ अभिनव चंद | आंचली ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयतिलकसूरि पंद्रहवीं सदी अन्त-सकल लोक मनि आणंदण पूरउ, सूरउ वर तप तेज । भवीयण जण जिम तम्हि चिरनंदउ, वंदउ मन नइ हेज ॥८ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय (१०१ ) जयतिलकसूरि ( ११७ ) गिरनार चंत्य परिपाटी गा० १८ आदि - सरसति वरसति अमियज वाणी, हृदय कमल प्रब्भिंतर आणी जाणीय कविर्याणि छंदो || गिरिनार गिरिवरहज केरी, चेत्र प्रवाड़ि करुउ नवेरी, पूरीय परमाणो ।।१ [ ७३ अन्त-हुँ मूरख पणइ अच्छु अजाण, श्री जयतिलकसूरि बहु मानं, मानु मन मांहि एहो । पढई गणइ जे ए नवरंगी, चेत्य प्रवाड़ी प्रतिहि सुचंगी - चंगीय करई सुदेहो ॥१८ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय ( ११८) आबू - चैत्य परिपाटी गा० १७ आदि- चरण कमल पणमेत्रि भत्ति, सिरि सरसति केरा । चेत्र प्रवाeिs नमिसु देव, आबूय नवेरा || मण तण वयण ज उल्हसई, जस दरिसण दिट्ठइं । बहु भव अजीय पाव- कम्म, पण निश्चिई नीठइं ||१ For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७४ ] अन्त - पढई गुणई जे संभलड, आबूय गिरि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मह- गुर्जर जैन कवि चेत्र प्रवाइज हरक गय, सिव सुगह सेरी । तीरथ यात्रा पुण्य ते, पामई मन सुद्धिहिं कहयं सुगुरु जयतिलकसूरि, वाढइ ऋद्धि वृद्धिहि ॥ १७ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय (१०२) जयतिलकसूरि शि० (११९) श्री नेमिनाथ रास गा० २१ प्रादि- सासण देवति देवि अंबाई, माई चलणे तनु मन लाइ, ध्याई सुह गुरु पाय । नेमिनाथ गुण मण आदिई, गाइस रासा केरइ छंदिइ, * वंदि यादव राय ॥ १ प्रन्त - श्री जयतिलकसूरि सुपसाई, नितु मन वंछित कवित करांई, जाइ पातक दूरो । मन शुद्धि जे गाई रासउ, भवि भवि साम्ही तम्ह ते दास, श्रासकि जस कपूर ॥२१ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only (१२०) सोपारा वीनती गा० १९ आदि-पढम जिरणेसर पय पणमेवी, सरसति सामणि चित्ति घरेवी, सेवी सुहगुरु पाय । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात पंद्रहवीं सदी सरग जमलि सोपारउं भणियइ, अागम वेद पुराण श्रुत सणीयइ, थुणीयइ प्रादि जिणराय ॥१ अन्त-हुं मूरख छउं बुधि बल हीण 3, श्री जयतिलकसरि गुरु पय लीणउ, __ खीणउ पाप असेसो। पढई गुणइं जे नित सोपारइ. भाव सहितु आदीसु जुहारइ. सारइ काज असेसो ॥१६ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय (१२१) आदिनाथ विवाहइ सं. १४५३ भादवा १० र०. प्रादि-सेत्रज गिरिवर तीरथराय, ताय प्रादीसर सेवीय इ ए। जस सिरि कोडाकोडि, जोड़ि करीयल कवीयण भणइ ए; १ भणइ कवीयण तत्थ, सिद्धि ग्या मुणिवर सत्थ । प्रसंख जिणवर नाण, अनंत मुनि निरवाण ॥२ अन्त-नवामहल नवयोवन, अविहड़ प्रीति संबंध । चउदस त्रिपनइ (१४५३) भाद्रवइ, दमि, रवि रचीउ प्रबंधो ॥ जिन धरि निज-धरि परि-घरि, जे गाइसिअ वीवाहो। श्री जयतिलकसूरि शिष्यु भणइ ते, पामिसि पुण्य उत्साहो । इति श्री प्रादिनाथ वीवाहउ समाप्त । छ । डूटक ए लढण १० ॥ छ । प्रतिलिपि-अ. जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ ] मह-गूर्जर जैन कवि (१०३) अज्ञात (१२२) मेरुतुग सूरीश्वर रास। आदि-केवल कमला केलि कलीय, कमलासनि सोहइ । कणय कति झलकंति कंति, तिहुअणि जण मोहइ । अष्ट महा सिद्धि रिद्धी सहीय, बहु लद्धि समृद्धि उ । गोयम सामीय नमीय वीर, जिण सीस प्रसिद्धउ ॥१॥ तस अनुसारिहि ग्यारमउ, अंचल गछ नायक । सुरतरू सुरही रयण जेम, नम (? मन) वंछीय दायक । गाइसु गुरु श्री मेरुसँग, सूरीसर रंगिहि । निसुणउ भवियण भत्ति भावि, रोमची अंगिहिं ।।२।। मन्त-सिरि गछनायकु श्री सुगुरु मेरुतुग सूरिंद । नाम निरंतर जो जपई, तहि घरि नितु आणंद ।।६।। इति श्री गछ नायक श्री मेरुतुगसूरीश्वर रास संपूर्ण । प्रति-पत्र-१५ स्थान-लींबड़ी भडार प्रतिलिपि- अभय जैन ग्रन्थालय । वि० मेरुतुगसूरि समय-गच्छनायक पद सं० १४४६ स्वर्ग १४७१ For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात पंद्रहवीं सदी . [७७ (१०४) अज्ञात (१२३) नागपुरीय गच्छ सुगुरु फाग गा० २० सं० १४५३ लगभग सारद सारद हियइ धरि, सुह गुर चलण नमेवी । गाइसु हेमहंससूरि रयण सागरसूरि गुण केवी ।१ अह गुण गायसु चंद-गछि, दिवसूरि मुणिदो । तसु अनुकमि जयसिहर सूरि, तप तेजि दिणिदो। दसेण जलहर विरद जासु, गुण मणि भडारो। वयरसेण सूरि राउ, सरसइ उरि हारो ।२। निम्मल दसण नाण चरणि, सोहइ सुपवित्तो। हेमतिलयसूरि तासु पट्टि, समवासिय चित्तो । जासु सुगुण निय वाणि थुइ, पोराज नरिंदो। सिद्धिचक्र वर लद्ध रयण सेहर सूरीन्दो ।३ तसु सिहासण वर रिकु मुद उल्हासण चंदो । पण यण भवियण विहिय, नयण उल्हासण चंदो। अमिय वाणि धारा पवाहि, सिंचिय सुह कदो। । पुन्नचन्दसूरि संतु, हिमचंद सूरिन्दो ।४ पुरि पट्टणि गामागारहिं, पुनचन्दसूरि विहरता। धण रूणि जण गणि संभरिय, संभरि नयरि पहुंता ।५ अन्त–हेमहससूरि होउ ताम, भवियण बोहतउ । रयणसागर सूरीस जुतु, महिलि जयवंतउ ॥२०॥ इति श्री सुगुर फागं ।। प्रति प्रभय, जैन ग्र० For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि (१०५) उ० मुनिरत्न गणि शि० (१२४) तपगच्छ गुरु नामावलि गा० ११ आदि-बौर जिणेसर पय कमल, प्रणमीय बहु विह भत्ति । तव गच्छ गणहर गुण गहरण, निसणउ एकं चित्ति । धरणीयलि धीरम निलउ, सिरि धनेसर सूरि । चरम जिणेसर चित्तपुरे, ठावी साहस धोरि । १ अन्त--ईण अनुक्रमि मुनिरतन गणि, उवज्झराय पण मेसु यर रयणाधिक पबन्नि कर, महुत्तर पमुह असेस ।। मण तण वयण एकति करी, ज बंदइ नर नारि रिद्धि वृद्धि मगलि विउल, सुह पामइ ते सुविचार ।।११ प्रति अभय (१०६) अज्ञात (१२५) श्री रत्नसागर सूरि भास गा० ८ पादि-तपगच्छ सिरि सिणगार, जिन शासन आधार । गरुउ गणधरू ए, जंगम सुरतरु ए । पागम शास्त्र अपार, जाणई तत्व विचार । सुहगरू निरमूल ए ॥२ अन्त-संजम सिरि वर नारिय बोलइ, तोलइ कोइ न दीसह इस विमासी ए वर विरीउ, भरीउ ज्ञान वरीसइ ॥७ For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंद्रहवीं सदी सकल लोक-मनि प्रागंदण, पूरउ सूरउ वर तप तेज । भवीयण जण जिम तम्हि चिर नंदज, वंदउ मन नइ हेज ||८ ( १०७) प्रज्ञात (१२६) सुहगुरु चउपई गा० १६ [ ७९ (१०८) अज्ञात (१२७) श्री गुरुगीतम् गा० ११ प्रादि-गोयम गुरु पय कमल नमेत्रि, समरीय सामिणि सरसति देवि । eिrs घरे वितु निरुमल भाव, गासिउ गुरु मरुया गच्छराय ॥ १ चन्द्रगच्छ भवन्द्रह सूरि, नामि पापि पणासह दूरि । प्रसयन क्रमि समरू निसदीस, पहिला सिरि देवभद्द गणीस || २ मन्त - लहूयां लगय जिणि लोधी दोख, मोहराय रहि दीधी सीख । जस गुण संख न लाभई पारू, श्री रत्नसागरु सरि वखाणि ॥१५ रतनसंघ सूरि नत जे नमई, माहामत्र वषण ऊचरई । गरूयां सतीरथ सविमनि घरू, भव समुद्र सो लीलां तरई ॥ १६ प्रति० अभय For Private and Personal Use Only प्रति० अभय, भादि - समरि सुर भावि सरसति ए, सरसति प्रमी रस वरसती ए । गच्छ रथणायर राउ ए गाइसु ए, गाइसु सहगुरु बहु भत्तिई ए ॥१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८० ] मरू-गूर्जर जैन कवि धारानंदन धीर ए वीर जिण, जिण-सासणि अहिलसइ ए। कामल उयरिइं हम ए, हंस जिम जिम जण मण अवलस इ ए॥२ अन्त- श्रीअभयसिंह सूरि पाटि ए पुवदिश, पुव्व दिसि दिनकर झला. हल ए। मण तण वयण एकांति ए ध्यानिहि, ध्यानिहिं कलिमल कलि टलइ एं ।। १०. सहीय सुलाहिस दीह ए जही यह, दीयह निजगुरू वांदीय ए। रिद्धि वृद्धि सू परिवारि ए नामिहिं, नमिहिं चिर थिरि नांदीय . प्रति० अभय जैन ग्रन्थालय (१०६) अज्ञात . (१२८ तपा गुरावली गा० ३४ आदि- पणमउ च उवीसवि चलण, रिद्धि वृद्धि सवि मंगलकरगा । तपागच्छि ति हुयण जयबंत, गायसु गुरु गरूया गुणवंत ।। १ चउवीसमु जिरणेसरू वीरू, पाप ताप दमवानल नीरू । . जिण सासण के रूउ सिणगारू, पढम सीसु गोयम गणधारू ॥२ अन्त- श्री रतनागर गच्छि विदवांस, जे जे रत्नाधिक पड़या हंस । महासत महासती सविहु नाम, करजोड़ी नइ करउ प्रणाम् ॥३३ इणि परि सहुगुरु केरा नाम, लेइ नइ जे करइं प्रणामु । मनसा वाचा काय विशुद्धि, तीहं तणइ घरि अविचल सिद्धि ।। ३४ प्र० अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनवर्द्धनसूरि पंद्रहवीं सदी (११०) वच्छ भंडारी (१२९) आदिनाथ घबल (सं० १४७१ काती) प्रादि-राग सामवेदी जिण चउवीस पाराहिसि उ ए, अम्हि आदि जिणेसर गाइसिउ ए कबि जणणी अम्ह मुखि वसइ. ए, तुबुद्धि प्रकाश मनि उल्हसइ ए । अन्त-वच्छ भंडारी इम भणइ, प्रादिसर अवधारि । ' अतकालि आडउ थई, अम्ह निरया गइ निवारि । विद्या संक्षि एकहत्तरइ, धुरि कहउ काति मास । एह धउल तिहां भणउ, कहितां पुण्य प्रकास । इति श्री आदिनाथ धवल संपूर्ण संवत् १५४५ वर्षे फा० बदि लिखितः श्री सीरोही नगरे । पत्र ३ पंक्ति १४ अक्षर ४० गाथा लिखी नहीं, ८५-९० लगभग । प्रति० अभय. दे. ज. गु. क. भा. १ पृ. ६५, भाग ३, पृ, ५०० (१११) जिनवद्धन सूरि (१३०) पूर्व देश तीर्थमाला गा० ३२ आदि-हियय सरोवरे धरिय गुरु राय, सूरि जिणराय पायारविद। विणय बहुमाणहि पुत्ववर देसि, संठिया श्रुणउ तिस्थाण बंद ॥१ . पहिल, सच्चउर नयरि पण मेवि, वीर जिणेसर कप्परूक्खं । तयणु सिरि रयणापुरि संलि तित्थकर, बंदउ नासियां सयल दुख ॥२ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ ] मरू-गूर्जर जैन कवि अन्त - इम्म जम्मठाणइ सिरि निहाणइ, पाम नयरहि संसिया। सिरि सकल जिणवर, धण गुणालय, लक्खराय नमसिया जिण बिब सम्गि पयालि महील, जे असासय सासया । • ते नम उपूय उ थुण उ भत्तिहि, सिद्धि मग्ग पभासया ।।३२ इति पूर्व देश चैत्य परिपाटी समाप्ता, श्री जिनबद्धन सूरिभिः कृता लेखन संवत् १४६३ लि. प्रति मे स्थान - अभय जैन ग्रन्थालय । वि० जिनवद्धनसूरि को आचार्य पद सं० १४६१ में मिला था (११२) अज्ञात . (१३१) खर० गुर्वावलिः-गुरुषट्पदी-पद्य १४ में से आवश्यक पद्य जिण सासणि सिंगार मंत्री अर्जुन कुल मंडण । लखमणि देवो कुखी राजहंस दुह दुरिह विहंडण ।। मयगल जिण मा सोहेइ जोवि मुनिवर परिवरिउ । लक्षणतर्फ विचार जांण संयम सिरि वरियउ ।। जिणराज सूरि पट्टहि जयो, जिनवर्धनसूरि अनसरी । चिरुणंद समदाय सम खेमवंत कलिरव करी ॥१०॥ अर्जुन मत्रि मल्हारु माय लखमणि उरि धरियउ । तपि सयमि सहित संयण लक्खण परिहवरियउ ।। आगम ग्रन्थ प्रमाण पमुह विद्या वक्खाण एतहि . सारासार विचार सहल ते पट्टतरि आणहि ।। जिणराजसूरि पटुद्धरण, श्री जिणवर्धन सूरि गुरु ।। समुदाय सहित मंगल करण, भूय जेम जयवंत चिरु । For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिद्धसूरि पंद्रहवीं सदी ↑ ટર્ वि० इससे पहिले के पद्यों में गौतम स्वामी, कालिक सूरि सम्बधी ४ पद्यों के बाद खरतर गुर्वावली प्रारंभ । जिसमें जिनवधन सूरि तक के नाम, फिर कुशल सूरि का एक छप्पय - " कुशल बडो संसारि", इसके बाद “दससय चौबीसेहिम”, जिणदत्त सूरि नदी, नागदेव वर सावयण, बाले पद्य है । ( महो० विनयसागर जी गुटका नं. ३३ ) ( ११३) सिद्धसूरि (१३२) पाटण चंत्य परिपाटी गा० ६४ संवत् १४७६ । प्रादि-निय गुरु पाय पणमेवि, सरसति सामिणी मन धरिय । हियड़इ हरस धरेवि, गोयम गणहर अणुसरियः । - पभणिसु चेत प्रवाड़ि अणहिलपुर पट्टण तणिय । मुझ मन खरीय रहाड़ि, दिउ मति निरमल अति घणीय ॥ १ अन्त - पट्टण प्रसिद्ध हरखि किद्धी चैत प्रवाड़ि सुहामण । भतां गुणतां श्रवणि सुरगतां, अतिह छइ रलियामणी । भण्या जिकेइ नाम तेइ, श्रवर जे छइ ते सही । छिहत्तर वरसई, मन हरिसइ, सिद्ध सूरिदइ कही ॥ ६४ स्थान – जैसलमेर भंडार प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय | For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४ ] मरू-गूर्जर जैन कवि (११४) ख० जिनभद्र सूरि शि० (१३३) खरतर गुरु गुण छप्पय पद्य ३२+१६=४८ . - स. १४७५ लग. आदि – सो गुरु सगुरु छविह जीव, अप्पण सम जाणइ। सोगुरु सुगरु जु सच्च रूव, सिद्धत वखाणइ। सो गुरु सगुरु जु सील धम्म निम्मल परिपालइ । सो गरु सुगुरु जु दव्व संग, विसम सम भणि टालइ । सो वेव सुगुरु जो मूल गुण, उत्तर गुण जइणा करइ। गुणवंत सुगरू भो भवियणह, पर तारइ अप्पण तरइ ॥१ अन्त-दुर्घट घटना घटित कुटिल, कपटागम सूत्कट । वावाटोस्कट करटि करट, पाटन सिहोद्भट । नट विट लंपट मक्त निकट, विन तारि भटस्फट । हाटक सुथट किरीट कोटि, धृष्ट क्रम नख तर जट । विस्टप वांछित काम रट, विर्घाडत दुष्ट घट प्रकट। जिनभद्र सूरि गुरूवर किकट, सितपट शिरो मुकुट ।।३७ ... . (प्र. ऐ. ज. का. संग्रह पृ. २४ से ३६ टि. ये छप्पय समय-समय पर फुटकर रूप में रचे जाते रहे होगें । इसकी प्रतियां हमारे संग्रह में हैं जिनमें से प्रथम में ३२ पद्य हैं द्वितीय में १६ अधिक है। For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भैरइवास पन्द्रहवीं सदी [ ८५ (११५) देवदत्त ख० (बहरा ऊदा सुत) (१३४) जिनभद्र सूरि धूवउ गा०२ सिसि गच्छ मंडण मयण रिण, खंडण धोणग नंदण ए । मिलि सुदरसण अमृत वरिसणु, वाणी सुललितु ए ।। क्रोध मान माया लोभ निवारणु, धारणु संजमु निर्मलुप्रा । सयल शास्त्र व्याकरण वखाणण, संघ सभापति उधरणाउ ।" असरण सरण सूरि मत समरण, करण कवित मतोए। वादिय पंचायण विदुर विचक्षण, छत्तीम गुणालंकलु ए॥ जिनराज सूरि पाट चिंतामण, भद्दसूरि गुरु सुहकरु ए। भरणं देवदत्त वहरा ऊदा सुत, सहि छाहड़ सुहकरणा हो ॥२ प्रति० अभय (११६) भैरइदास (१३५) जिनभद्र सूरि गीत गा० २ मनमथ दहन मलिनि मन वर्जित, तप तेज दिनुकरू ए। महिम उदधि गरुया गच्छ गणधर, सकल कलानिधि ए। वादि तरकि विद्या गज केसरि, जोग जुगति यति संपुन्नु । प्रापं वसिकरण सुखनिधि, संघ सभापति मंडरा ॥१ चतुर्दिश प्रगट अमृत रस पूरित, ज्ञानि गे रेखम पच महावृत मेरू धुरंधर, संजम सुगृहितु ए । For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ ] मरू-गूर्जर जैन कवि जिनराज सूरि पाट ससि सोभित, भणति भैरइदासु मणहरुआ । जिणभद्र सूरि सुगुरू गुण बदउ, मन वंछित फल पाम उ ए ॥२ प्रति० अभय (११७) जिनभद्रसूरि शिष्य (१३६) श्री जिनभद्र सूरि गीतम् गा० ५ आदि-माइ ए दीठउ माणिकु मेल्हि सणीयए गच्छपति प्रावतउ ए। कवणिहि अम्ह गुरु प्रावत उ दीठउ, कणिहि लइय वद्धावणी ए ॥१ अन्त-सरसवि ठविउ सोवन पाटु, सासणि देवति सेस वधारिय ए। . गच्छपति बइठउ जिणभह सूरि, संघ मंडण. गच्छ उद्धरण ।।५ प्रति० अभय (१३७) जिनभद्र सूरि अष्टक गा० ९ आदि-भवि यण भो भड़ सुणह बलु दलु, सज्जिविरि चडह । जिणभद्द सरि मुणिराय सुसमर, महांगणि जिम लड़हु ॥३ । अन्त-रिषभ अजित संभव जिणिदु अभिनंदण सामि सुमति पद्म । मयण राउ जिण जित्तु कोह, झाणानलि जालिउ। . मोहमल्लु जेणि नथि, माया पिण टालिउ । कुमत प्रमुख नट विकट सुभट, जिण हेलहि जित्ता ।। पंच विसय परिहरवि जेण, जय लच्छि धत्ता। For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात पंद्रहवीं सदी [ ८७ भव भवणि रमणि मिल्हेवि कर, नाण सदसण मनि धरिउ । जिनभद्रसूरि गुरु जाणि करि. चरण रमणि लीला वरिउ । प्रति० अभय (१३८) जिन भद्रसूरि गीत गा० ९ पादि-पहिल पणमीय देव, देव तणो जु देव गाइसु गणहरु ए, जिनभद्र सूरि गुरु ए ॥१ धीणिय साह मल्हार, खेतू कुखि अवतार । गुणवइ सहगरू ए महिमा सागरू ए ॥२ अन्त- श्री जिनभद्र सूरि राइ, दीठउ पातक जाइ । सुमति सुजाण गुरु ए, नंदउ तां चिरू ए ।। प्रति० अभय. (११८) धनराज (१३९) मंगल कलश विवाहलु पद्य १७० संवत् १४८० श्रादि -परमगुरु आदि जिण नमवि पभरणेस. मंगल कलश वीवाहल ए। पुहवि मनोहरो मालव देश नामि, परिणामि रलियामणउ ए । उज्जेणी वर नयर सविसाल, पूरिय धण कण रयण खाणि । सिंधु अरिगंजणी दिल्य ! तण, भूपाल वयरसिंघ वरं नरिंदो ॥१ अन्त - इसा करमनउ सुणउ विचार, मंगल कलश विरतउ संसारि । देवलोक पंचमइ जि जाइ, भवि त्रीजइ वलि सिद्धि लहेइ। For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ । .. मरू-मूर्जर जैन कवि संवित्सरि विक्रम नइ कही, चउदइ सइ असीयइ ए सही । मंगल कलस चरितु सुविसाल, घन्नराजि इम कहिय विसाल । पढइ गुणइ एक मना सही, तिहि घरि प्रावइ नवनिधि सही। इति श्री मंगल कलश चउपई समाप्त ।। प्रति -पत्र-६ । पंक्ति-१६ । अक्षर - ४८ ले०-१७वीं सदी। प्रति. अभय० (११६) अज्ञात (जयसागरोपाध्याय) (१४०) नगरकोट चैत्य परिपाटी गा० १५ सं. १४६७ आदि-देस जालंधर मति भरे, वंदिसु जिणवर चंद । .. ठामि ठामि क उतिक कलिय, विहसिय तरु बहु कंद ॥१ अन्त-सवत चउद सताणवइ (१४६७) ए, जे वंदिय जिणराय चेईहर प्रतिमा थुणिय, भगतिहि पमिय पाय ॥१४ इय सासय जे देवकुल नंदीसर पायाल अमर विमाणे चिंब जिण ते वंदउ सविकाल ॥१५ प्रति-अभय (१२०) सोमसुन्दर सूरि शि० (१४१) देव द्रव्य परिहार चौपाई गा० ४५ प्रादि-निसणउ श्रावक जिगवर भगति, तिम करिवी जिम आतम सकति । For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी [ ८९ तिम करिवउं जिम नवि छीपीइ, चिरकालिइ निरमल दीपीइ ॥ १ जिण द्रवि वाघइ बह संसार, प्रोछइ कुलि लाभइ अवतार । नरय तणी गति छेप्रण बहु, तउ टालेज्यो जिण द्रवि सहू ।।२ अन्त-सोम सूदर सरि तणइ पसाइ, अलिप्र विधन सवि दरिं जाई कीधी चउपई पणयालीस, जिण चउवीसह नाम उसीस ॥४५ इति देव द्रव्य परिहार चउपइ समाप्ता । . संवत् १५४२ वर्षे का. व. १२ दिने श्रीमति कर्करी नगरे पूज्य पं. शुभवीर गणि पाद शिष्य प. अभय कल्याण गणि तिलक वल्लभ गणिभिलेखि श्रीऽस्तु [प्र. जैन सत्य प्रकाश क्रमाङ्क ११६] वि. सोमसुन्दरी सूरि स्वर्ग सं. १४६६ (१२१) अज्ञात (१४२) मृगा पुत्र कुलक मा० ४० प्रादि-नमवि सिरि वीर जिण, जणिय जण सिव सुदो। कम्मवण गहण, निद्दहण जो हम वहो । भाषिसु भावेण भव भयह भंजण परे । मिआ पुत्तस्स मुणिनाह चार बरं ॥१ .. अन्त-तिज़ग समचित्त सिरि वरह सुपवितयं । मिआ पुत्तस्स जे भणइ सु चरितयं । .. विवुह विमाण विलसेइ विवहप्परे। लहइ सुह सत्त रज्जाण ते उप्परे ॥४. इति मृगापुत्र कुलकं समाप्तमिति । For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९० ] मरू-गूर्जर जैन कवि सं. १७ वीं पं. दया कमल मुनि लिखित श्राविक सूजां पठनाथं प्रति -पत्र २ पं. १३ : . ५२ . वि. रचना की भाषा व शैली से यह १४-१५ वीं शती की लगती हैं। (१२२) जयशेखर सूरि शिक (१४३) उपधान सन्धि गा० २५ प्रादि-फल वद्धिय महणु दुह सय खंडणु, पास जिणि (द) नमेवि करि। . जिण धम्म पहाणहं तवु उवहाणहं, संधि मुणहु जण कन्नु धरि ॥१ सिरि चरम जिणेसर वद्ध माणि, पमणिउ जह गोयम महुर वाणि । सिद्धत मज्झि जसु पढ़म लीह, तसु भणिउ पमाणु महानिसीह ॥२ जह गिम्हि मेरू गह गहण चदु, निवईण चक्कि सुर गणि सुरिंदु । तह वीर जिणेसरि तव पहाणु, उवहाणु भणिउ गुण गण निहाणु ॥३ जे निम्मन वयण जण सीलवंत, सम्मत कलिय तह पुन्नवंत । नीरोग देह ढढ धम्म गेह, तव सत्ति जुत्त परिचत्त गेह ॥४ एवं विह सावय सावियाय, उवहाण वहहिं कय भावि भाय । साहज्जिण वियय कुडवयस्स, सामग्गि सुगुरू निम्मल वयस्स ।।५ अन्त–जन्मतरि तुहुं हम सुलह बोहि, भव भण पाव किय तइ विसोहि । अह संघ चउम्विह वास लेवि, त धन्नु सुलक्खणु भणि खिवेइ ।।२२ सग्गंध कुसुम वा माल ताम, तस बंधु ठवेई कठि जाम । वज्जति गहिर तं पंच सद्दि, नच्चहिं अनुगायहिं प्रइ सु सद्दि ॥२३ उवहाण पवरू तव इम करेड. निय पण त जीविय फल गहेवि । For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी जइ सिद्धि न पावहिं काल जोगि, सह लहहिं तहवि गय अमर लोगि ॥२४ इय तव उवहाणह संधि पहाणहं, जयसेह (र)सरि सीसि किय । जे पढ़हिं पढावहि अनुमनि भावहिं ते पावहि सह परम पय ॥२५ इति उपधान संधि । प्रतिलिपि-अभय जन ग्रन्थालय, बीकानेर : (१२३) अज्ञात (१४४) श्री कयलपाट मंडल पाश्र्व स्तवनम् गा० ७ आदि -- पास जिणेसर पणमियइ खरतर तणइ विहारि । सामल वन्न सुहामणउ । सखि गायउ हे मन चर रंगि । कयल पाटे मुख मंडणउ ए। करहेड़उ हे पास जिणंद पूनिम चद सोहामणउ. मुझ हियड़इ हे लागु रगु॥१ अन्त -- ग्राससेणि कुल चदल उ वामा उरिहि हस । सोइजि सामि सवि थुथ्थुणउ । सवि गावउ हे मन च रंगि, कयलपाट मुख मंडणउ ।.. करहेड़उ हे पास जिणंद कयलपाट मुख मंडणउ सखि० ॥७ - प्रति० अभय . .. For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९२ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू- गूर्जर जैन कवि १२४ अज्ञात ( उदयकरण ) (१४५) कयलवाड़ पार्श्वनाथ स्तोत्र गा० १० श्रावि - जय-जय कयलवाडपुर मंडरगु, पास जिस पाव विहंडस्तु । तिहुयण जणमण नयणाणंदरंतु, संधुरोमि दुज्जण निक्कंदर ॥। १ वाणारसि पइं जम्मि पवित्तिय, वामः कुच्छि सिप्प वर मुत्तिय । आससेण कुल गयण दिवायर, नव कर माण देह करुणायर ॥२ - इय पास जिणवरु पणयसुरतरू, कयलवाड़इ संठिउ । चिरु कालु नंदउ भविय बंदहु, नागराय प्रहिडिउ ॥ अन्त भव जलहि तार उदयकारणु, सत्त फण सिरि भूमिउ । दुट्टारि नासणु पयड़ सासणु, मिच्छा कलिहि प्रदूसिउ ॥१० For Private and Personal Use Only प्रति० प्रभय० १२५ अज्ञात (१.६) श्री नाडुलाई महावीर स्तवनम् गा० ८ अन्त - जय वीर जिणेसर तिजय राय, नडूलाई संठिय नमउ पाय । तुह दंसणि नासइ पाव विंद, जय भवियण नयण चकोर चंद ॥ १ अन्त--नडलाईय मंडणू जण मण आणंदरतु वद्धमाणु जिरणु जेथुणई | तह छिउ सिज्झए भवदुहरु खिज्जए बंमसति होइ उदयकरो 5 प्रति० प्रभय० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात पन्द्रहवीं सदी [१५ १२६ सज्जण सुत (१४७) श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम् गा० ९ आदि-- भवभय वण गण दहणं, दरिद्द रोगारि दुरिय निद्दलणं । - सिद्धि पुर कय निवासं, सयावि सुमरामि जिण पास ॥१. अन्त - इय पासनाह देवं सरिय, सज्जण सुएण अप्पहियः । जो त सरइ तिसझं, सो पावइ बछिह सुहाइ ।।. प्रतिलिपि-अभय जैन अत्यालय (१२७) अज्ञात (१४८) श्री चतुर्विशति जिन स्तधनम् गा० २८ आदि-मोह महा भड मय महण, रिसह जिणेसर देब । करि पसाउ जिम होइ मम, भवि भवि तुम्ह पय सेव ॥१ भुवण विभूषण प्रजिय जिण, विजया देवि मल्हार । भव सायर निवडत मह, राखि न तिहुयण सार ॥२ अन्त-निय अवतरणिहि ताय धरि, लच्छिहि भरिय भंडार । अतुल महाबल वीर जिण, जय जय नग...प्राधार ॥२७ चउवीसह जिण संधुवणु, पढई गुणइ बहु भत्ति । ते नर. निम्मल नाण निहि, पावइ सिवसुह झत्ति. । .. प्रतिलिपि -- अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९४ ] www.kobatirth.org मन्त - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रादि - चउदह पूरब माहि जो सारु, पहिलउ रिन समरउ नवकारु । भणिसु धम्माधम्म विचारु, जोणइ जीवु तरइ संसारु ।। १ धम्मु धम्मु पभणइ सहुँ कोइ, " धम्म करइ पुण विरलउ कोई । धम्म तणउ तिणि बूझिष्ट सारु, जिह चिति क्रोधु नहीं अहंकारु ॥२ • अज्जव मध्वगुण संजत्त, सवे वार जीव निर्मल चित्त । कोपालि कोवि न दहइ, इणइ करमि मेणूतण लहइ ।।१५ अन्त मरू- गूर्जर जैन कवि (१२८) प्रज्ञात ( १४९) धर्माधर्म विचार गा० १६ तपु तपइ भावा भावंति, शुद्धि चित्ति जें दान दीयंति । क्रोध मान माया परिहरउ, इणि परि स्वर्ग लोकि तंचरउ ॥ १६ • प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय प्रादि- नंदीसरवर दीप मकारि, सासतां तीरत्थ जुहारि । ' (१२६) अज्ञात (१५०) नंदीसरवर चडफर्ड, गा० ११. जिहिं अच्छय तिहि आवागमण, सतजोयण' देखय एक भवण ॥। १ इसा भुवनतिहि बावन्न एह, जोयण बहुत्तरि बावन्न ऊंचा नेय । पहुल पणि जोयण पंचास, ते बंदी तर पूरउ श्रास ॥२ For Private and Personal Use Only सरवालाइ हिव लेखउ जोइ बार चउक अठतालिस होइ । 1 चिहुँ अंजणगिरि तीरथ व्यारि, इणि परि बावन्न गिणी जुहारि ॥१० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org पंद्रहवीं सदी [ ९५. बिबह संख्या तह गणिय जाणि, छ सहस उसय अडवाणीस मणि । इय नंदीसर वंदीय देव, अन्नवि सासय नमउ ससेवि ।।११ प्रतिलिपि- - अभय जैन ग्रन्थालय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३०) अज्ञात (१५१) विमलाचल आदिनाथ स्तवनम् गा० २१ आदि-नाभिनरिद मल्हार, मुरुदेवि माडिय उरि रयण । अवगत रूपि अपारु, सामिय सेत्रुत्र सय थणिय ॥ १ - 4 अन्त य पय पंकय सेव, विमलाचल मंडण रिसह । ग्रह निसि पण देव, प्रवर न काई ईलियए ।।२१ प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय (१३१) अज्ञात ( १५२) धर्म प्रेरणा दोहा १५ प्रादि - जिणवर देवु सुसाह गुरु, जस हीयड़इ जिण धम्मु । सव्व कम्मु जयणा करइ, तस हइ सफलउ जम्मु ॥ १ अन्त - गंदूसही जे नितु करइ, अविचल मनि पालति । ती बीजय भवि देवत्त लहड़, कवड़ - जख जिमु हुति ॥१४. जीवदया साचउ वयण, परधन जे महिति । सील पालइ एक मनि, ते सहि सुख लहंति ।।१५ प्रतिलिपि - श्रभय जैन ग्रन्थालय -- For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मह-गूर्जर जन कवि (१३२) हरिकलश (धर्म घोष गच्छ पद्मानंद सूरि शि०) (१५३) कुरुवंश तीर्थमाला स्तोत्रम् गा० १३ प्रादि-अप्राप्त अन्त-[5] य उत्तर देसिहि पुण्य पतिहिं, वंदिय जिणवर जगहिय हरिकलस मुणिदिहिं मण पाणंदिहि, पक्षमाणंदसूरिहिं सहिय ॥१३ प्रतिलिपि-प्रभय जैन ग्रन्थालय (१५४) पूर्व दक्षिण देश तीर्थमाला गा २२ प्रादिअन्त- भाविहि नमसिय पुण्य दसिय, जगि पसंसिय जिणवरा । सिरि धम्मसूरिहिं गच्छमूरिहिं, भत्ति पूरिहिं सुदरा । हरिकलसि मुणिवरि भाव परि करि, थुणिय सुप्परि सुहकरा प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय, (१५५) श्री गुजरात सोरठ देश तीर्थमाला स्तोत्रम् गा० १९ प्रादि-चउकीस जिणवर पणमवि सुदर, हियइ हरषु प्राणेवि घण, . सिवलच्छी दायग तिहुयण नायक, तीरथ माला थुणउ जिण ॥१ For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरिकलश पंद्रहवीं सदी .. [९७ थुण पास खंभाइते थंभणेसो, वड़उ पास भूमीहरे आदि ईसो । नम नेमि सीमंधरो मल्लिम ख्य, दस चउत्रीसे भवणिहि बिब लक्ष ।।२ . अन्त-इतिय तित्थमाला अति रसाला, पुण्यशाला मणहरा, भाविहिं गम मिय पुण्य दंसिय, जगि प्रसंसिय जिणवरा, सिरि धम्मसूरिहिं गच्छ भूरिहिं, भत्ति पूरिहिं सुन्दरो, हरिकलसि मुणिरि भावु धरि करि, थुणिय सुपरि सुहकरो ॥१६ प्रति० अभय (१५६) बागड़ देस तीर्थमाला स्तोत्रम् गा० ११ आदि-जिण नमिय सुमंगल [वागड़ मंडल, भांविहि निमल ते धुणउ। अरिहंत पराहपुण्य विसाह, लीजइ लाह भव तणउ ॥१ अन्त-इय थुणिय जिणिंदा उत्तरा देस इंदा, गिरिपुर नगरत्था जे मया दिट्ट तित्था । जिकिवि पुण अदिट्ठा जे तिलोए गरिहा, वर जिणहर वंदे तेवि भावेण वंदे ।।११ प्रति० अभय. (१५७) दिल्ली मेवाति देश चैत्य परिपाटी गा० १३. मादि-जिण नमिय सुमंगल उत्तर मंडल, भाविहिं निम्मल ते शुणउ । For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९८] मरू-गूर्जर जैन कवि अरिहंत अराह पुण्य विसाह, लीजई लाहउ भवतणउ ॥१ पुवुत्तर देसिहि जिणवराण, जम्मण वय नाणह मक्ख ठाण । धुरि विणीय अपावा कुड गाम, अट्ठावयः सम्मेतिहिं नमामि ॥२ अन्त-जिणधम्मसूरि वयणिहिं वियाणी, जिणहरिहि कलस जिम प्रचल झाणि । जिण परम जोति हियडइ घरेहु, सम भाव जोगि सिवपद लहेहु ॥१२ इय थुणिय जिणिदा.-............. ......... ॥१३ प्रति-प्रभय. (१५८) आदीश्वर वीनती गा० १३ आदि-जय जिणदर जग गुरु जय निहाण, जय भवभय भंजणु भुवण भाण । जय तिहुअण तारण तरण जाण, आदीसर निम्मल जणिय नाण ॥१ अन्त-इय धम्न सूरि वसिहि मुणि हरिकलसिहि, विनविउ जिणवर इक्कु मणि। मुझ देज्यो ते दिणु भविभवि अणु दिणु, सेवु तुम्ह पय कमल जिणि ॥१३ प्रति. अभय For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पमानबसूरि . पंद्रहवीं सदी (१५९) जीरावला वीनती गा० ९ आदि-सोहग सुन्दर पास जिरणेसर, जीराउलिवर नयर नरेसर, सेस रचिय पय सेव । सफल मणोरह भेटिउ सामी, मन ऊलटि तसु सिखर नामी, पामीय सुह सय हेव ॥१ अन्त-जीरावलि मंडण दुरिय विहंडण, पास जिणेसर भत्ति भरे । - विनविउ हरिकलसिहिं नवनिधि विलसहि, जे प्रणमई तुह चलण परे ॥ प्रति. अभय. (१३३ ) पद्मानंद सूरि (१६०) श्री चउवीसवटा श्री पार्श्वनाथ नागपुर चैत्य परिपाटी स्तोत्रम् गा० ९ आदि-जय मंगल कारण दुरिय विदारण, भव भय वारण पास पहो । नायउरिहि नयरिहिं भत्तिहिं पूरिहिं, चउवीसवट्टय जिण थुण हो ॥१. मन्त-इय बहु विह भत्तिहिं विहि सम्मतिहि, पाराधउ जिणवर सयल । श्री पदमाणंद सुरि देसण मणिधरि, सावय कुलु कोजा सफल ॥ प्रति. अभय For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० ] मरू-गूर्जर जन कवित (१६१) श्री चउबीसवटा पार्श्वनाथ स्तुति गा० ४ प्रादि-सयल सुहकारणो भविय जण तारणो, . नाम गहणेण दुह दुरिय निळारणो। नयरि नायरि जसु अधिक महिमा गुणो, ___ जयउ श्री पासु चउवीस वट्टय जिणो ॥१ अन्त-सुद्ध सझत धारति जे देवया, धरण पउमायवइरुट्ठ अंबाइया। धम्म कम्मेसु ते करउ सान्निध्यं, सयल संघस्स पूरंतु सुह संपय ॥४ प्रति० अभय (१६२) श्री वर्द्धनपुर चैत्य परिपाटी स्तवनम् गा० ९ आदि-गरुअंइ पुरि वधणउरि, सिखर बद्ध भवियणं महिय । __सोहइ बहु प्रासाद, दंड कलस धयवड़ सहिय ॥१ .. अन्त-पाराधउ परिहंत, पदमाणंद सुरि इम भणए । ते रिधि वृद्धि जयवंत, जे प्रणमइ जिण प्रहसम ए ।। प्रति० अभय. (१३४) अज्ञात (१६३) द्वादश भाषा निबद्ध तीर्थमाला स्तवनम् गा० ३६ प्रादि-पणय सुरेसर नमवि जिणेसर, तिहुयण जण मण कमल दिणेसर । उडलोय प्रहलोयह मंडण, तिरिय लोय भव भय दुह खंडण ॥१ For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात पन्द्रहवीं सदी [१०१ अन्त-सिव सिरि मणि माला वनिया तित्थमाला, ....... वव गय भव वाला कित्ति कित्ती विसाला। . सिव सुह फल रुखं देइ तत्तं परुषखं, निहणउ भव दुषखं वंछिय होउ सुक्खं ॥३६ . प्रति० अभय० (१३५) अज्ञात (१६४) कोशा प्रतिबोध गा० १५ प्रादि-कमल वयण कोशा भणइ, कहु किन दीजइ दोस। विणु भटतारह दीहड़ा, ईमइ कीजइ सोस ॥१ सालूणा वालंभ सादु देइ न मयणु हणइसई बाणिसय, राणा थूलिभद्र तूझ विणु, तू विरण रयणि न जाए । चक्रवाकी जिम चक्रवाक विगु दिवस दोहिलड़ा जाए। में जगु ऊवसुप्रीअ तूझ विणु । चिली । अन्त-कोसा पुण विमासीउ, कीधइ कंत विचारं । नाह पसाई पामीउं, समकित सुकृत भंडार ।। १४ सालूणा ।। रिषि बोलइ कोशा समी, नारि नहीं गुणवंति । मनु जाणी मण वल्लही, मिलीय सरीसी कंति ॥ १५ सालणा ॥ प्रति. अभय. For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२]. मरू-गूर्जर जन कवि (१३६) परमानंद (?) (१६५) शत्रुजय चैत्य परिपाटी गा०४१ मादि-सरसति सामिणि नमिय पाय, सिरि सेत्रिय केरी। चैतु प्रवाडिहि (क) रि विहेव, मनि रंगि नवेरी ॥१ पालीयताणइ ए पास वीर, ललतासरि वांदू । नेमिहि काहिं नमीय पाय, भव दुखन कंदं ॥२॥ अन्त-सेत्रुज गिरिवर सियं धणीय नरेसूया, अगिउ अभिनव चंद । सूरति परमानंद दिय नरेसूया, टालइ सवे वि छिंद ।।४० रिद्धि वृद्धि कल्याण करी नरेसूया, बोले चैत्य प्रवाडि एह । तीरथ यात्रा फल दियए नरेसूया, निरमल करय सुदेह ॥४१ प्रति० प्रमय (१३७) अज्ञात (१६६) शत्रुजय चैत्य परिपाटी गा० ३६ मादि-वाग वाणि सुपसाउ करे, सामिणि पूरि रहारे। श्री शत्रुजय जिण भुवणि, भाविहिं चेत्र प्रवाड़े ।।१ पालीताणइ तलहठीय, नयरह माहि विहारो। नरवइ कुमरिहिं कारविउ, पासु जुहारिसु सारो ॥२ मन्त-छूटउ सहिं आगदह, प्राविय भलई संसारे । सिद्धि क्षेत्र जुहारिय ए, नवनिद्धि पडीय भंडारे ॥३५ For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुगर पंद्रहवीं सदी [१०३ पढिसिइं गुणिसि ई निसुणिसिइं, चेत्र प्रवाडिनि एय। तीहं बइठाई जान फलो, होसिइ निरमल देह ॥३६ प्रति मभय. (१३८) माणिक्य सूरि (१६७) राजीमती उपालंभ स्तुति गा० १८ आदि-पसूवाड़ दीठउ प्रभो जीण वेलां, तजी राज राजीमती तीणं हेला । हुसी जीव संघारू रे जीण जाति, पछइ पाछिला काज रे तीरणं भाति ।।१ अन्त-मनि वनि काया करी सील पाली, रमइ रायमइ मुगति सिर हाथि ताली। कहइ सुगुरु माणिक्कसूरि महुर वाणी, जयउ संघ समुदाय राजलि राणी ॥१८ प्रति० अभय (१३६) डुगरु (१६८) ओलंभड़ा बारहमासा गा० २८ प्रादि-तोरणि वालंभु आवीउ, जादव कुल के रउ चंदु । पसूय देखि रहु वालीउ, विहि विसि हज विच्छंदु ॥१ For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ ] मरू-गूर्जर जैन कवि नयणां नेहु भरे गयउ सुनेमिकुमा। . रेवईया गिरिवरि सरि चडीउ लीधउ संजम भारु ॥२ अन्त-राजुलि जीसिउ रायमइ, पहुतउ सिद्धि सिलाई। इंगह स्वामि गायतां, प्रफलां फलीई ताहं ।। २७ नयणां । नयणा नेहु भरे गयउ, सुनेमिकुमारु । रेवईया गिरि सिरि चडीयउ, लीधउ संजम भारु ।। २८ नयणां । - प्रति. अभय. दुगर-देखो जै. गु. क. भा. ३ पृ. ४६२ (१४०) धनप्रभ (१६९) श्री नेमिनाथ झोलणा गा० ९ आदि-राजलदे वर देव देवर, रूपिणि गाइसो झोलणू एं। ऊनटी मन हेव यादव जिण गुणि, लागु छइ रह कडउ ए ॥१ वउलसिरी वरमाल पहिरणि, करणीय फूलड़ें गूथोए सिव दिवि सुत सुकुमाल सुललित, सेवनड़े सइरु सिणगारी उ.ए ॥२ अन्त-मृगमद कुकुम नीरि वावन, चदनि सोंगी संपूरी ए। नायक नेमि शरीरि वलि वलि, बल बलि करई ते छांटणु ए ॥८ इसी अपूरब रीति गुण, रर्यणायर रामतड़ी रमइ ए। पूरइ मननी प्रीति, धनप्रभ गाइतां सवि सुख पामीइं ए॥ प्रति० अभय. For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात पन्द्रहवीं सदी [ १०५ (१४१) रत्नाकर मुनि (१७०) श्री नेमिनाथ वोनति गा० १० मादि-गिरिनार गिरिप्रवर मौलि, बाखई पुरि मंडणज भो। धन्ना ते नर नारि, नमइ नेमि जे निम्मल उ प्रो॥१ कज्जल कति सिरीर, सोहग सुदर निमि जिण । करणासायर धीर, केवलि लच्छीअ केलियण ॥२ अन्त-सावीय सहस्स छत्तीस, लख ठिनि तह नेमि जिण । वास सहस्स सम्वाउ, सिव करि सामिय सिव रमण ॥ इसु उ ज नेमि जिणंद, मुणि रयणायर कित्ति धरो। चउविह संघउ देउ वर मंगल सो मुत्ति वरो ॥१० प्रति० अभय रत्नकर दे० जन० गु० क० भा० १ पृष्ठ ४१ । (१४२) अज्ञात (१७१) श्री गिरनार भास गा० १७ आदि-सही सोरठ मंडलि जाईयइ, राजलि वर रंगिई गाईयइ । जय जून इगढ़ि जोगादि देव, वीर पास जिपेसर करउ सेव ।।१ पोलि वुलीय सोवन रेह तीर, सीयल जल निम्मल प्रय गंभीर । तरुयर तलि दीसह विसम घाट, रवि किरण न लागइ तीण वाट ॥२ अन्त-दीसइ दुह दिसि तुग शृंग, सहस्सं बलस्स वण पमुह चंग। . निहु भूयणे उपमा नहीय जास, गगनाचल छोडहि भवह पास ॥१६ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ मरू-गूर्जर जैन कवि गजपद जलि नेमिइ न्हवीय अंग, प्रम पूजीय पूरिसु मनह रंग । भावि भगतिहि भणेसिई एउ भास, सिरि नेमि पूरेसिइ तीह मास ॥१७ प्रति प्रभय. (१४३) अज्ञात (१७२) गिरनार वीनति गा० ११ मादि-हरषु माह नही हीयहइ किमइ, म मन गिरनारि घणूउ रमह । लडह लोचन नेमि नमस्कर, जिम न चउगइ मांहि वलि फिर॥१ अन्त-विषइ वइरी नउ मदगिउ गली, जिस्यइ आवइ पाप न मू वली। मयण मल्ल तणउ मझु भउ किसउ, जउ जिनेश्वरइ मनि ह वस्यउ ॥१० देवी सिवानंदन नेमिनाथ, राजीमति वल्लभ विश्वनाथ । माग नही ग्राम न सिद्धि वासु, मू देव (देव) देजे निज पाय बास ।।११ प्रति. अभय .. (१४४) अज्ञात (१७३) श्री नेमिनाथ वीनति गा०५ . मादि-मली भावना भेटिवा मेमि पाया, ही उलटर मानवी एन माया । For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन्द्रहवीं सदी [ ૧૦૭ जमं जागती व जोइ वानी, वसई वासना तास दसइ न वानी ॥१ राजल कंत रूडउ । सुद्धिदं जगनाथ अन्त-मनि मानवउ एंड संसार कूड़उ, सदासेविवउ इसी मासनी बास (तास पूजद्द, जको भवा (१४५) अज्ञात (१७४) बारह व्रत चउपई गा० १९ पूजइ ॥५ प्रति० प्रमय ० श्रादि - वंदिवि वीरु भैविय निसुरोहु, प्रागमि कहिउ जिणेसर एहु । पणउ जिणेंवर धम्म महंतु, वारह व्रतह मूलि समकितु ॥ १ अखर एक न पास पारु, निसणहु धम्मिय धम्मविचारू । सुकृत प्रभाविहि सुगति होइ, सासय, सिवसूह पामइ सोइ ॥ २ अन्त - सती एक सहीजइ नारि, दिन्तु दानु को मास चियारि । कोसंबी नयरी सुविसाल, जगि जयवंती चंदण बाल ॥१८ बार व्रतं श्रावक संभलउ, भाव भगति मनु अविचल घरउ । सबउ वयण उ सउ कोइ, जीवदया विस्तु धरमु न होइ ॥ १९ प्रति० प्रभय० For Private and Personal Use Only ( १४६ ) अज्ञात ( १७५) सुगुरु समाचारी गा० ३२ प्रादि--दल हल हठि माणस जम्म, कीजय निरमल जिणवर घम्भ | Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १०८ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरु-गुर्जर जैन कवि गुरु प्रणमीय जय सीयलं सार, दुत्तरु जीव तरय संसार ||१ गरथ तणउ करई परिहारु, सो गुरु जाणे तिहुयणि सारु । बायालीस दोस विसद्ध श्राहारु, सूघउ विहरद्द करइ विचारु ॥२ अन्त - पुष्व भवंतरि सचीया जोइ, पाप सुद्धि सामायक होय । धम्म रई ते प्रक्चिल मत्ति, सामाइक्क सीधउ दमदंत ॥३१ पास जिलेसर तणइ पसाई, विघ्न सवे ते दूरिइ जाई । पंढत्त गुरांत नइ आस, लहई सुखो ते सिद्धि निवासु ॥३२ प्रति० प्रभय० (१४७) समरा (१७६) नेमि चरित रास गा० २८ प्रादि-तोरणि जादव आइलइ, पसूत्रा दीधा दोसू ए । ती कारण प्रभ तजीय रायमइ, नेम चडउ गिरनार रे ।। १ नज सिणगार करि अभिनवा, नेमिकुमर चाल्यंउ परिणिवा | छपन कोड़ि जादव परिवार, हइ गइ संखि न लाभइ पार ॥२ अन्त - असो ग्रमावस केवल नाण, नेमि तणू तु निखार | राजमती सु सु सइ गउ, बावीसय जरणेसर भउ । मगति राणी राजल तणउ योग, पढत गरणंता नासइ रोग । नेमिचरित सूसा नारी सुणइ, पाप (प ) णासइ समरुउ भणइ ॥ २८ प्रति० प्रभय For Private and Personal Use Only टि० समरो दे० जे० गु० क० भा० ३, पृ० १४०२ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनात पंद्रहवीं सदी [ १०९ (१४८) राजलच्छी (तपा शिवचूला ___ महतरा शिष्या) (१७७) शिवचूला गणिनी विज्ञप्ति गा० २० सं० १४०० लगभग प्रादि-शासन देव ते मन धरिए चउवीस जिन पय अणुसरी ए । गोयम स्वामि पसायलु ए प्रमे गाइसि श्री गुरुणी विवाहलु ए॥१॥ अन्त-द्र पदि तारा मृगावती ए, सीता य मन्दोदरी सरसती ए। सोलसती सानिध करइ ए, भणववाथी श्री संघ दुरिया हरह ए॥२०॥ इति श्री चितकीति सूरि महात्तरा शिवचूला गणि प्रवत्तिनी राजलच्छी गणि विज्ञप्तिका श्राविका हीरादे योग्यं । . (प्र० ऐ० जन० का० सं० पृ. ३३६ । ' (१४६) अज्ञात , (ख० कीर्तिरत्न सूरि शि०) (१७८) कोतिरत्नसूरि फागु गा० ३६ ' सं० १५०० लग० आदि-प्रारंभ के २७ पद्य प्राप्त नहीं। अन्त-एरिस सुह गुरु तणउ नाम, नितु मनिहि घरीजइ। . तिमि तिम नव निहि सयल सिद्धि, बहु बृद्धि लहीजइ ।। ए फागु उछरंगि रमाइ, जे मास वसंते । तिहि मणि नाण पहाण किसि, महियल पसरते. ॥३६॥ For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११. ] मरू-गूर्जर जैन कषि इति श्री कोतिरत्नसूरि वराणां फागु समाप्तः ॥छ। शुभंभवतु श्री संघस्य ॥छ।। लिखितं जयध्वज . गणिना ।। (प्र. ऐ० 2. का० सं० पृ. ४.१) (१५०) कवियण (१७९) मातृका फाग गा० ३१ भादि-प्रहे जिण चमणा सिर नमिय, पामिय बहि-गुरु मागु । माईय बावन्न आक्षर, पाखरीय करो पातु ॥२ . भलेय बलीय सुणि धामिय, स्वामिय का विचारु । मीडय हीउडलय, धरिसु, तरिसिब सयल संसारु ॥२ भागलि दो दो लोहड़ीय, जीभड़ी वोनि आलु । उकारस्य मागमि आगमि, कहीयस्य साक॥३ . मम्हण विलेपन पूजि न तू जिन जिणहर व । मन मन तजि नवकारज, सारज भवि चार एह ॥४ सिर सम्वसमई विषई बिषय सुख पादुल मेरू समाण । धम्म न बूझई पामर, का मरमे न अजाण ।५ अन्त-रत्न प्रमूलिक सोलह लोलह तम विमासि । लहसि मुगति तूउतउ पण राखिसि पासि ।२७ बनवलीबूउ बोलीय, जोईय जिण पर सेव । ससिकर जोड़ीव बीनव, सेव करवं व For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जयमूर्ति गणि पंद्रहवीं सदी हव कर जोड़ीय वीनवउ, दीन वयण संभारि । क्षमा करेज्यो भवियण, कवियण ए आचारु ||३० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इति मातृका फाग समाप्त माई अरथ जे बूझइ, सुझइ ईण संसारि । पाठ दिश्या सवि दहिसिहं ए, लहसिहं सुख नर नारि ॥३१ (१५१) जयमूर्ति गणि (१८०) मातृका गा० ६४ [ ११ प्रति० अभय० आदि-आदि प्रणव समरू सविचार, बीजी माया त्रिभुवनि सार । श्रीमंत भणी जपु निशि दीस, अरिहंत पय नितु नाम सीस ॥ १ For Private and Personal Use Only गणहर गरुउ गोयम सामि, अखय निधि हुइ तेहनई नामि । नवनिधान तहं चऊदय रयण, जे नितु समरइ गौतम वय वण ॥२ अन्त - क्षिरता दीस सुरासुर इंद्र, हरिहर ब्रह्मा रवि नइ चंद्र । उत्पतिं विगम करह सवि जंतु, अक्षर एकु अछइ अरिहंतु ||६३ गौतम माइय अविगत हुई, अनुभवि जयमूरति गणि कही । लोकालोकि एहनु व्यापु, यति जाणइ जउ जोइ आपू ||६४ • प्रति• अभय० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२] मरू-गूर्जर जैन कवि (१५२) अज्ञात (१८१) दीपक माई गा०६४ . प्रादि-जिण चउवीसइ चलण नमेवी, दीपक माई कवि व भरणेसो । दीपक माई खेलइ रास, नागलपुरि प्रभ प्रणमुइ पास । पास जिणेसर तणइपसाई, बावन (५२) अक्षर बहुयांत्थाई । माई दौठु त्रिभुवन सार, अक्षरि-अक्षरि नवउ विचारि ॥२ अन्त-मंगलवीर जिणेसरु नामि, मंगल गोयम सोहम सामि । मंगल जंबू सामि उचरू, मंगल सयल संघ विस्तरू ॥६३ मंगल भणतां माहिसिरि, माई पढउ ते पादर करी। पढ़इ गणइं जे सुणइ वचार, भव समुद्र तु पामइ पार ।।६४ प्रति० अभय०. (१५३) अज्ञात (१८२) आत्म बोध मातृका गा० ६४ मादि- समरवि सवि अरिहंत मणि, सिव मंगल कर धीर । माई बावन: अक्षरह, बोलिसुगुण गंभीर ॥१॥ भले पहिल्ली अक्षरे, धुरि कीजइ सुविचार । तिम धुरि धम्मह जीव दया, भमइ जिण संसारि ।२। अन्त-महा. श्री शिव लच्छी तणी, सासत सुखह निधानु इय मंगलिक तीह संपज उ, जीहे जिण धर्मि बहु मानु ।६४ आत्म संबोध मातका (पत्र १ सतरहवीं शती, अभय जैन प्रथालय) For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन्द्रहवीं सदी ( १५४) अज्ञात (१८३) श्रृंगार माई गा० ४९ श्रादि - प्रीत तणी दुइ लोहड़ी, सुदरि सहजइ जाणि । चिति चोखउ अविचल हीयउ, वालहा ऊपरि आणि ॥१॥ अन्त-रे पहिला रस ताहरा, केता कहुं विलास । मन गमती गोरी मिलइ, तउ सवि पूरइ आस । ४५ । भले तरणे अक्षर करी, दूहा बोल्या चंग ! सिणगारह कूपली, ए नवयोवन रंग । ४६ इति शृंगार माई समाप्ता ( पत्र १ संतरहवीं शती लि० अभय जैन ग्रंथालय ) (१५५) अज्ञात (१८४) वैराग्य चउपइ गा० १७ [ ११३ प्रादि- चउदह पूख माहि जे सार, पहिलं मन समरउ नवकार भणिसु धर्मात्रम्म विचार, जेणिहि जीव तरह संसार ॥ १ अन्त: - तप तपई भावन भावति, सुद्ध चित्ति ज दान दीयंति । For Private and Personal Use Only क्रोध मान माया निरजणी, इसिई करमि देव लोकि संचरइ ॥। १७ प्रति० अभय० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४] मरू-गूर्जर जैन कवि (१५६) अज्ञात (१८५) सुभाषित दोहि १४ प्रादि-जिणवर देवु सुसाह गुरु, जस हीयड़इ जिण धम्म । सव्व कम्मु जयणा करइ, तस हइ सफल उ जम्म ॥१ अन्त-जीवदया साचउ बयण, पर धन जे न हिणंति । सीयल ज पालइ एक मनि, ते सहि सुख लहंति ॥१५ प्रति० अभय० (१५७) अज्ञात (१८६) योगी वाणी गा०५ प्रादि-सीयल कच्छोट्टीय मोरीय रे, जोगी संजमि पाउ पाए । अठ कर्म ध्यानि दहं रे, अवधू भस्म अधूलियत अंगे । अन्त- द्रढ सम्यकित मनि धरू रे, भद्रीया ध्यायं देव आदिनाथो । जिणह भगत भाव कर बोलइ बुझउ नाथ पंथो ।५ प्रति० अभय प्रति (१५८) अज्ञात (१८७) सोधति नगर शांतिनाथ स्तवन (अपूर्ण) प्रादि-सोपति नयरिहिं महिमासागर, ओबि मूरति श्री संति जिणेसर For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात पंद्रहवीं सदी [ ११५ संति करणु संसारे । कणय कलस धयवडिहिं मणोहर, तुग सिहर प्रासादिहिं सुदर, जिणवर जुगति जुहारे ॥१ मूल मंडपि छई बहु जिण पडिमा, पूजइ भवियण गरूई महिमा, गरिमा संति जिणिंद । संधु करइ नितु नवा महोच्छत्र, जिन गुण गाय... अन्त- x x . त्रुटित प्रति• अभय अन्त - (१५६) अज्ञात (१८८) जीराउलि वीनती गा० ११ आदि-करू सेवना देवना पाय लागी, इलइ वार लागी नमू सीस नामी कहूं सतिहु जन्म जीतु अम्हारउ, जगन्नाथ जीराउलउ जई - जुहारउ ॥१ अन्त- इसि छंदि पाणंदि सुदीस राति, पढई एक भावि भजंग प्रयाति महा दुख संसार ना पास छुट्टई, इस सत्य जाणी कहिउ जोति बूट्टइ ।।११ प्रति० अभय For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ ] . मरू-गूर्जर जैन कवि (१६०) अज्ञात (सुदर सूरि शि०) (१८९) विमल मंत्री रास गा० ४४ (?) आदि-अप्राप्त अन्त -भास थापिउ विमल दह अडसि वरिसे, बावीस प्रासाद चडाउलि देसे । अनइ तिण कीध संघ सपरिवारि, सात जात्र से जि गिरनारि ।।४३ जां ध्र निश्चल तांह एह नंदउ, गुरु श्री सुदर सूरि वांदउ । एह रास जे भणइ भणावइ...रि सवि सुख आवइ ।।४४ इति विमल (मत्री) रास संपूर्ण संवत् १५१३ वर्षे श्रावण ३ दिने पूज्याराध्य वाचनाचार्य पं. जयवीर गणि शिष्य सुमतिवीर गणिना लिखितः सुश्रावक श्रे. महिराज भणनाथं ॥छ।। शुभं भवतु ॥ . पत्रांक० वां, अभय (१६१) शांतिसूरि (१९०) श्री अर्बुदाचल हीयाली गा० ६ आदि-विमलदंड नायक नी वसही, सोजि अष्टापदि देउ। न्हवणइ नीरि निरमल थाइजि, जइ कोइ जाणइ भेउ ।।१ अन्त -नहीलि घण गाजतु संभलि, कायर कंपइ देहइ । बारहमास सदा फलदायक, सुरह उ अविचल गेह ॥ सही. ए० ।५।। सांतिसूरि भणइ अम्ह होआली, जे नर कहइं एह ।। झटकई झलहती ते पामइं, जाण मांहि जगि रेह ।। सही ए० ॥६॥ प्रति अभय For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोलहवीं सदी सोलहवीं शताब्दी ( १६२) मतिशेखर (वा) ( १९१) बावनी गा० ५३ सं० १५१४ लग० प्रादि- पहिलउ परम ब्रह्म असरी, तेहनि एक अविचल चिति धरी । कहइ मतिशेखर सुणो सुजाण, माई बावन, वर्ण व खाणि ॥ १ [ ११७ भलई भलिय परि लागु पाय, गुरु गणवइ सरसति पियु माइ | नमतां नर भवि आवइ खोड़ि, अग भले जिम दोवड़ मोड़ि २ अन्त - माई अखर नी बावनी, इणि परि कही विश्व पावनी । वाचक मतिशेखर इम कहइ, भणई सु नर अक्षय पद लहइ ।। ५३ इति श्री माई अक्षर बावनी समाप्ता । ( अभय जैन ग्रन्थालयस्थ गुटके में ) वि० दे० जे० गु०क० भा० १ पृ० ४८ ( अन्य रचना सं० १५१४ की प्राप्त भा० ३ पृ० ४६७ ) For Private and Personal Use Only ( १६३) अज्ञात [केहरु ?] ( १९२ ) श्री जिनभद्र सूरि पट्टे श्री जिनचन्द्र सूरि गीतम् गा० २ राग मल्हार कुंजर मयण नमनि मच्छरु करि, हरि हरु ब्रह्म नयहु जाणी | Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि मूरिख बिरहणि बहु सोता पणु पंच बागन नमनि प्राणी ।। रति अनइ प्रीति दिवसि विधि वतणु, कवण कुमति तुव बिघि रूठउ। भुजइ सुडि.पंहु दंतूसलि मुनि केहरू जब दिठि दीठउ ॥१ पंच विसइ जिनि मुनिवर जीत्या, प्रष्ट कर्म जिनि खै करिया । चारितु रयणि प्रमलु जो पालइ, पंच महाव्रत जिनि धरिया ॥ वादी अंधकार सहस करु विद्या नाम बिरुदु छाज। ससि गच्छ सिरि जिनभद्र सूरि पाटिहिं, श्री जिनचंद्र सूरि राज ॥२ वि० जिनचंद्र सूरि प्राचार्य पद सं० १५१४ स्वर्ग १५३० (१६४) अज्ञात (१९३) रयणावली गा० ३३ (सं० १५२० वि०) आदि-पणमवि वीर चलण बहु भत्ति, हंस गमणि समरउ सरसत्ति । सुणउ भविक जण चिंत अवधारि, इणि संसारि रयण छइ च्यारि ।। जीवदया जिण सासण धम्म, सुविहित गुरु सावय कुलि जम्म । वड़इ मागिए लाभइ ए च्यारि, नहीय मूढ नरि हेला हारि ॥२ अन्त-च्यारि रतनावलि गुणधार, पाटसूत्र मुक्ताफल हार सरल कंठि निय हियड़इ घरउ, मुगति रमणि सइंवरि तुम्हि वरउ ॥३३ इति श्री रयणावली समाप्ता सं. १५२० वर्षे ज्येष्ठ वदि ४ दिने श्री सीरोही नगरे महोपाध्याय शिरोमणि श्री श्री सुधानंदन गणि शिष्येण ति० श्र० रिषीयोग्य [पत्र १ अभय जैन ग्रंथालय ] For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अज्ञात सोलहवीं सदी ( १६५) कल्याणचंद्र ( १९४) कीर्तिरत्न सूरि वीवाहलउ गा० ५४ ( कीर्तिरत्न सूरि शि० ) सं० १५२५ लग० प्रादि-भक्ति भर भरियउ हरिस सिरि वरियउ, पणमिय संति करु संतिभाह । सनाह ॥ १ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सारदा सामिणि हंसला गामिणी, झाणिहि निय हिय करि नाण लोयण तणउ अम्ह दातार गुरु, अनय गुणवन्त [ ११९ सिरिमउड़ मणि । तेण सिरि कित्तिरयण सूरीसरे, हिव कहिसु हउ चरिय घरि भत्ति मणि ॥ २ अन्त - एह विवाहलउ भणइ मावि, तसु मणो वंछित देइ इंदो । भतु सिरि कित्तिरयण सूरि पाय. सीसतसु कहइ कल्लाण चंदो स्थान - जैसलमेर भंडार । For Private and Personal Use Only ॥५४ प्रतिलिपि - श्रभय जैन ग्रंथालय । ( १९५) श्री कीतिरत्नसूरि चउपइ गा० १८ आदि - सरसति सरस वयण दे देवि, जिम गुरु गुण बोलिउ संखेवि । पीजद प्रमिय रसायण बिंदु, तहवि सरीरिह हुइ गुण वृंद ॥ १ प्रन्त-- श्री कीर्तिरतन सूरि चटप, प्रहऊंठी जे निश्चल थई भगद्द गुणइ तिहि काज सरंति, 'कल्याणचंद्र' गणि भगति भरणंति ॥ १८५ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० ] मरू-गूर्जर जैन कधि ॥ इति श्री कात्तिरत्न सूरि चउपई ।। ले० स. १६३७ वर्षे शाके १५८२ प्र. ज्येष्ठ मासे शुक्ल पक्ष पेष्टातिथौ गुरुवासरे । श्री महिमावती गध्ये श्री वृहत्खरतर गच्छे श्री जिनचद्र सूरि विजयराज्ये । संखवाल गोत्रीय संघ भार धुरंधर साह केल्हा तत्पुत्र सा० धन्ना तत्पुत्र सा० बरसिंघ तत्पुत्र सा० कुवरा तत्पुत्र सा० नव्वा तत्पूत्र सा. सुरताण तत्पुत्र सा० खेतसीह भ्रातृ साह चांपसी पुस्तिका करापिता पुत्र पुत्रादि चिरं नद्यात शुभं भवतु । [श्री पूज्य जी के संग्रहस्थ गुटका] प्र० सं० जे० का० सं० पृ० ५१ (१६६) विनयचूला गणिनि (१९६) हेमरत्नसूरि फागु गा० २२ .. १६वीं शती का पूर्वार्ध आदि - अहे जुहारिसु जगत्रय अधिपति, मुनिपति सुमति जिणंद, अहे गायस् रंगि धनागम, आगम गच्छ मुणिंद ॥१ - श्री हेमरत्नसरि भगतिहिं, विगतिहिं गुण वर्णवेसु, गुरुपदपंकज सेविय, जीविय सफल करेसु ।।२ अन्त-विनय मेरु अनुकूला, चूला गरिम निवास, ... .....'मम'.'लहर, मणहर देसण भास ॥२१ इणि परि सुहगुरु सेवउ, केवउ नहीं भव वासि, दुर्लभ नरभव लाघउ, साघउ सिद्धि उल्हास ॥२२ For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सेवक www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोलहवीं सदी [ १२१ इति श्री हेमरत्न सूरि गुरु फागु । विदुषी विनय चूलागणिनिबं धेन कृतम् ॥ प्रति० अभय० जै० ग्रथालय (१६७) अज्ञात ( १९७) अमररत्नसूरि फागु गा० १८ १६वीं शती पूर्वाधं आदि - अहे केवल कमलां राजए, छाजए जगतदिनिंद, हे नीलवर्ण रलीश्राम, सुहामगु पास जिणिद ॥। १ पणमीयतासु प्रभाविहिं, भाविहिं गुण गाएसु, श्री श्रमररत्न सूरि राजा, ताजा जई वांदेसु ॥ २ प्रन्त - फागुण फाग सींदूरिहि पूरिहिं सर वरि सार, भगतिहिं सुगुरु महावउ, फावउ जिम सवि वार ।। १७ श्री श्रमररत्नसूरि मनोहर, सुहगुरु बालकुआर, स्तवतां भविण म्ह घरि, तम्ह घरि जय जयकार ।। १८ प्रकाशित - प्राचीन फागु संग्रह पृ० २ १-४२ For Private and Personal Use Only (१६८) सेवक ( तपा. लक्ष्मीसागरसूरि भक्त) ( १९८) शालिभद्र फागु गाथा ७२ (सं० १५२५ लग० ) प्रादि-गोयम गण निधि गण निलु, लबधि तर भंडार । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२२ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरु-गुर्जर जैन कवि नामि नव निधि पामीइ, वंछित फल दातार ॥१ सरसति सामिनि पाए नमु, मागू अविरल वाणि । सालिभद्र गुण वर्णवु ते चडयो सुप्रमाण १२ प्रन्त काशमीर काशी समु, मूलनायक श्रीपास; चितामणि श्री सामलु, वडित पूरी आस ।। ६६ सालिभद्र बीजउ सुरंगु, सुद्र सतन गदराज, गुजर न्याति कुलतिलु, कोधां उत्तम काज ॥६७ संवत पंनर वीसमि, नयर सोजीत्रा मध्य । देव भवन पद बिसणां, बिंब प्रतिष्ठा कीध ||६८ संवत पंनर पंच वीसमि भीम साह प्रासादि । अर्बुदगिरि श्री आदिजिन, थाप्या श्री गदराज ॥६६ तप गच्छ केरू राजिउ लिल्मीसागर राय । तासु सीसि गुण वर्णव्या, प्रणम् सदगुर पाय ॥७० भणतां भलपण पामीइ, सुणतां संपति होइ । सालिभद्र मुनिवर समु, अवर न बीजउ कोइ ॥ ७१ एक मन जे सांभलि, सालिभद्र नु रास । करजोड़ी सेवक भणि, करसि लील विलास ।।७२ इति श्री शालिभद्र नु फाग संपूर्णम् । For Private and Personal Use Only ( प्रारियण्टल इंस्टीच्यूट, बड़ौदा प्रति नं० १५५५२) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लखमसीह [ १२३ सोलहवीं सदी (१६६) लखमसीह (१९९) शालिभद्र चौपई गा० १०४ सं० १५२७ आदि-प्रथम विनवउ प्रथम विनवउ देवि सरसत्ति । . कासमीरह मुख मडणीय, हंसगमणि कर कमलि वंगिय । गायंती महुर सरे सुकवि, कंत नव नेह रजिय । वीणा पुस्तक धारणीय, सातय सर पयडति । सा सरसति निय रुलीय भरि, जिणह भुवणि गायति ॥१ पहिलउ वीनवउ सारद माय, लघु दीरघ जा आणइ ठाइ । कूड उ अक्खर राखे होइ, तिम करि जिम सलहइ सहकोइ । दियउ दानु धनु वे बउ ठांहि, पुहिहि (भहु?) सहु रहइ कलि माहि । दान सील तप भावन वर उ, भव समुद्र जिम लीला तरउ ॥३ जा अछइ कसमीरह देसि, हंस गमणि सेयं वर वेसि । उर पिहर विजयवंती माल, करि वीणां वर वाइ ताल ।।४ लखमसीह कवि बोलइ एहु, भवियउ निसुण कन्नि सुणेहु । पढत गुणंता नासइ दूरिउ, सालिभद्र वखारणु चरिउ । ५ अन्त- महा विदेहि मरणया ? भव लहि (य), सिद्धि रमणि ते वीरेसइ सही । सालि भद्द जे चरिउ पठंति, भाव भगति जे नरनि सुणंति । हरषि जाई जिणहरि जे देंति, मुगति रमणि फल ते पावति ।।१०४ इति शालिभद्र चतुष्पादिका चरित्र समाप्त । लेखन काल- संवत् १५२७ वर्षे भादवा वदि षष्ठी बुधवासरे लिखितमिदं For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२४ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरू- गूर्जर जैन कवि सालिभद्र चरित्रं । शुभं भवतु ॥ श्री ॥ प्रति - पत्र- - ४ ( श्रन्त पृष्ठ खाली ) पंक्ति- १४ | अक्षर - ५२ १७० देपाल (२००) काया बेड़ी सझाय गा० ५ प्रति० प्रभय० 3 आदि. -काया बेड़ी काट सत्त वेध, ऊठि कोड़ि बंध बाधी न्हान्हो परहुण घणा नीगम्यां प्रति दुर्लभ तु लाधी ॥। १ संसार समुद्र अपारो, तीहं मारि जीव वणजारउ, दुन्नि क्रियाणा ववहरइ । For Private and Personal Use Only अन्त - विवेकु खंभु ज्ञानि पंजारि, निरुखिला दीठुला सेत्रुज स्वांमी देपाल भणइ जिण मंदिरु पामी, वधामणी दिउ धामी ।।५ प्रति० अभय० वि० दे० जे० गु० क० भाग १ पृ० ३७ भाग ३ पृ० ४४६ (१७१) जयानंद (२०१) ढोला मारू की वार्ता दोहाबद्ध : दूहा ४४२, सं० १५३०, वैसाख वदी गुरुवार श्रादि - अथ ढोला मारू से वार्ता दोहाबद्ध लिख्यते । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयानन्द सोलहवीं सदी [ १२५ दूहा-पूगल पिंगल राव, नल राजा नरवर नयरै । प्रदीठा अणदीठा, सगाई देव संयोगे ॥१। गाहा । दूहा-पिंगल ऊंचालो कियो, गयो नरवरचे देस । पिंगल देस दुकाल थयो, किणही वाव विशेस ॥२ नळराजा आदर दियो, जो राजवियां जोग । देसवास सहि रावळा, अं घोड़ा औ लोग ॥३ नरवर नळ राजा तणों, ढोलो कुमर अनूप । राणी राव पिंगलतणी, रीझी देखे रूप ॥४ पिंगलपुत्री पद्मिणी, मारवणी त सुनाम । जोसी जोय विचारियो, धन विधाता काम ॥५ सारीखी जोड़ी जुड़ी, प्रा नारी प्रो नाह । राजा राणी सू क है, की प्रो वोवाह ॥६ अन्त-पिंगळ राब पमार री, पुतरी गुग अमोल । कछवाहो नररो सुतन, कुल दीपक छ ढोल ।।४३६ आरणंद अति अच्छव हुवो, नरवर वाज्या ढोल । ससनेही संणां तणां, कल में रहिया बोल ।।४४० दूहा गाहा सोरठा, मन विकसणां बखांण । प्रणजाणी मूरख हंस, रीझ चतुर सृजाण ।।४४१ पनर से तीस (१५३०) बरस, कथा कही गुण जाण । वदी साखे वार गुरु, जती जयानंद सुजाण ।।४४२ इति ढोला मारवणी दूहा सम्पूर्ण । ॥ वि० सागर गुटका नं० ६३ ।। For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२६ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरु-गुर्जर जैन कवि ( १७२ ) धनसार ( उपकेशगच्छ ) ( २०२ ) उपकेश गच्छ ऊएसा रास – गा० १२८ स ० १५३३ विजयदशमी, उपकेशपुर आदि - पणमवि पास जिनिंद पाय, सरसति वयण दयउ माय । कोई कविय करण हूं मंडउ, सुह सुहगुरु ना पाय न छंडउ ॥ १ उएस वंसनइ गच्छ जु किद्ध, उवएस नयरिहि सोजि प्रसिद्ध । पासनाह जिणवर संतानिहि, पढम नाम हुआ इणि अहिनाणिहि ||२ अन्त-संवत पनर तेत्रीस आसो माम सुदी ए रासकिय सजगोस । दसमीय सुगुरु वारिहि ऊजलीय । उवएस पुरवर राम, पढतां पजइ प्रास | श्रावर अंगि उल्हास, अहनिसि ऊपजइ अति मन रली ए ।।२७ नयर उएसह ठाउ, वीर जिरणेसर राउ । नितु नितु करइ पसाउ, जिण गुण श्रमिय रसायण तोलियइ ए । भबियण करउ सभाउ, उवएस माह (त) णउ उपाउ । सुह संपति नउ दाउ, पाठक धनसार इम बोलियइ ए ।। १२८ श्री उपकेश गच्छ ऊएसा रास समाप्त इति । संवत १६२५ वर्षं श्राषाढासितष्टम्यां दिने राजळदेसरस्थं वा० देव सुंदरं लिलेखि । सच्चरित्र स्मरणार्थं । पत्र ६ [ बीच के २ पत्र कुछ चिपकने से अक्षर अस्पष्ट ] राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीरति सोलहवीं सदी [ १२७ (१७३) कीरति (साधु पूनिम गच्छ विजयचन्द्र सूरि) (२०३) आराम शोभा रास-कीरति कृत सं० १५३५ प्राश्विन पूर्णिमा पादि-सरसति सामिणि वीनवू, मांगु निरमल बुद्धि । कवित करसि सोहामण, सांभलता सुख वृद्धि ।।१ आराम शोभा नारी भली, जाणइ सयल संसार । पुण्यइ ते गिरूइ हुइ, बोलिसु तास विचार ॥२ जंबुद्वीपह दश कुश, नयर पाडलीपुर नाम । वापी कूप तडाग गढ़, रूपड़ा सफल आराम ॥३ ते नयरी सहपूरु समी, विस्तरि जोयण बार । चउरासी चहुँटा जिहां, रूयड़ा पोलि पगार ॥४ अन्त-पुण्यइं लाभई सुख सयोग, पुण्यइ काजइ देवगह भोग । पुण्यइ सवि अंतराय टलइ, मनवंछित फल पुण्य लहइ ॥ साध पूनिम पक्ष गच्छ पहिनाण, श्री रामचन्द्र सूरि सुगुरु सुजाण । नवरसे फरइ अमृत वखाणि, चतुर्विध श्री संत्रमनि आण ॥ तस पाटधर साहसधीर, पाप पखालइ जाणे नीर । पच महाव्रत पालणवीर, श्री पुण्यचन्द्र सूरि गरुपा गंभीर ॥ . तास पट्ट उदया अभिनवा भारगु, जाणे महिमा मेरू समान । गिरुमा गुणह तणू निधान, श्री विजयचन्द्र सूरि युगप्रधान ।। For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि संवत पंनर यांत्रीसु जाणि, आसोई पूनमि अहिनाणि । गुरुवारइ पूक्ष नक्षत्र होड, पूरव पूण्य तणां फल जोई ।। कर जोड़ी कोरति प्रणमइ, आराम सोभा रास जे सुणइ । भणइ गुणइ जे नर नि नारि, नवनधि वलसइ तेह धरि बारि ॥ प्रति पाराम सोभा रास समाप्तः । संवत् १५५६ वर्षे चैत्र बदि ८ भूमे लखित ॥ भुवनवल्लभ गणि विलोकनार्थ ॥ चपड़ वडो पोसाल नु जाणियो सही १०८। (डॉ० भोगीलाल सांडेसरा से विवरण प्राप्त) (१७४) लब्धिसागर सूरि (२०४) वीशो (२० स्तवन) ___ सं० १५५४ वि० आदिअन्त-धवल मंगल गुण गाई वाला, रास भास वर तोरण माला । वाजइ कित्ति भेरि भंकारा, घरि घरि उछव जय २ कारा। इय देव पुरंदर सस्थिय सुदर अज्जिय कीरिय परमेसरू ए जो पणमइ भाविइं सरल सभाविइं तूसइ तासनिजग गुरु ए । इति श्री अजितवीर्य स्तवनं २० श्री लब्धिसागर सूरिभिः कृतानि । लेखन - संवत् १५ प्राषाढादि ५४ वर्षे द्वितीय श्रावण सुदि १ सोमे लिखित शुभं भवतु। For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोल्हि सोलहवीं सदी [ १२९ प्रति - पत्र २ से १० । पंक्ति-१० । अक्षर-४१ प्रति०-अभय जैन ग्रन्यालय वि० दे० ज. गु. क, भाग पृ. ३ ५२७ (सं० १५३८ चोवीशी की प्रति का लेखन) (१७५) कोल्हि (२०५) कंकसेन राजा चौपाई सं० १५४१ आदि-पहिलउ पणमउ शारद माइ, भूल्यो आखर प्राण उठाई। काशमीर मुख मंडण ढणी, करउ पसाउ देह बुद्धि घणी ॥१ गणवइ पूजउ थारा पाय, देहि बुद्ध स्वामी सूपसाइ । तुह पसाइ हुय पडउ करउ, मगरमच्छ चरी उधरउ ॥२ तंबावती वसइ प्रति भली, कुल छत्तीस रहसी इति मिली। दिसइ दुरग धवलहल घणां, मढ़ देवल कि नाहीं मणां । अन्त-जाण्या उराहा तणो विचार, वन माह नाठउ छोड़ि धर बार । पंचा कहयाउ जो नवि करइ, स कंकसेन ज्यू भूलउ फिरइ ।।३२९ पन्द्रहसइ इकतालइ(१५४१)श्रावण मासि, बुद्धि पूछो कवियण पासि ।। पुष्प नम्रत्र प्राछाइयाती खरउ, उधम एह आज ही करउ ॥३३० कवियण सानिधी चउपइ, भोलोउइ भावि कोल्हि इम कही। मुदि पांचमी अपर मंगलवार, हुवउ चरित सब विघ्न निवार ॥३३१ For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३०] मरू-गूर्जर जैन कवि सुणउ चरित नरवइ सद भाइ, भूलउ अराउ अंतेउर मांहि । प्रस्तरी तणउ विलास जे करइ, सु कंकसेन भूलउ जम उभसइ ।।३३२ इति ककसेन राजा को चउपइ समाप्त । संवत् १७३५ वर्षे मगसर सुद ६, सने मासती दमाजी अमरेला लिखितम् गुरुजी स्मा पठनार्थम् नदेरइ मध्ये बांचे जिसु राम-राम बंचजो जी तथा चौमासो नदेरइ मध्ये जे तीर्थी जोय हिंडउं वरी छ । अनेक वंदणा बंचजो जी। प्रति० विनयसागरजी संग्रह, कोटा गुटका (१७६) पद्ममंदिर (ख० गुणरत्नसूरि शि०) (२०६) गुणरत्न सूरि विवाहलउ गा० ४९ __ सं० १५४६ आदि-मंगल कमलविलास दिवायरं सायर संति पायारविदं । पणमिय अमिय गुण रयण रयणायर, राय रंकाण प्राणद चंदं ॥१ इक्क मह नाण लोयण तणउ दायगो, नायको अनइ संजम सिरिए । सुवन कटोरड़ी सोहग उरडी, जगि करइ दूध साकर भरीए ॥३ अन्त-एह सिरि गुणरयणसूरि वीवाहलउ, पद्ममंदिर गणि तासु सीस। पभणउ भवियण अनुदिन, जेम पामउ सुहं सुह जगीस ॥४६ इति श्री गुणरत्न सूरीराणां वीवाहलउ ।। For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षेमराज सोलहवीं सदी [१३१ प्रति-गुटका जिसमें प्रापके रचित अन्य स्तवन भी हैं जो संवत् १५४६ लिखित हैं । स्थान -जैसलमेर भंडार । प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय । (२०७) श्री देवतिलेकोपाध्याप चौपई गा० १५ आदि-पास जिणेसर पय नमु, निरूपम कमला कंद । सुगुरू थुणता पामियइ, अविहड़ सुख प्राणंद ॥१ अन्त-गुरु श्री देवतिलक उवझाय, प्रणम्यइ वाधइ सुह समवाय अरि करि केसरि विसहर चोर, समरघउ असिव निवारइ घोर ।।१४ ए चउपई सदा जे गणइ, उठि प्रभाति सुगुरू गुण थुणइ । कहइ पद्ममंदिर मन शुद्धि, तसु थाए सुख संपति रिद्धि ॥१५ (प्र. ऐ० जे० का संग्रह पृ० ५५) (१७७) क्षेमराज (ख० सोमध्वज शि०) (२०८) फलवर्षी पार्श्वनाथ रास । पद्य २५ । रचयिता-क्षेमराज । आदि-सुगुरु शिरोमणि मणिधरी, श्री गोतम गरुयउ गणधार । रास रचिसु रलियामणउ, श्रवणि सृणतां हो हरष अपार ॥१ फलवधी पास जुहारीइ खेला, देस सवालख नउ सिणगार । सार कर उ त्रिभवन धणी, सुरनर जंपि हो जय २ कार ।।२ अन्त-मलिय महाजन मनि रली, पास नउ रास वसंति रमति । For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२] मरू-गूर्जर जैन कवि तिहि परि नव निधि संपजइ, खेमराज मुनिवर पभणंति ॥२५ श्री फलवर्षी पाश्र्वनाथ रास समाप्तमिति । प्रति- गुटकाकार नं० ६ पत्र २१६ से २१, पंक्ति १३ अक्षर १७ लेखनकान-संवत् १६४६ प्रति वृहत् ज्ञान भंडार वि. दे. जैन. गु. का. भाग. ३ पृ. ५०० (श्रावकाचार चौ० सं० १५०६) (१७८) अज्ञात (२०९) प्रभव जंबूस्वामि वेलि सं. १५४६ पत्र ५ आदि करजोडी प्रभव भणइ, जंबुकुमर अवधारि। विषयसोल्य भोगवि भला, रगिई पंच प्रकारि ।। सरब भोग विरमणी रसिरातु, महियाजनम म हारि। जंबुत भूलीइ । कणय निवाणु कोडि हेला न मूकीइ, नव यौवन अट्ट नारि बंधन चूकीइ । माय बाप केरी आण भगतिइं सारीइ । प्रावि सुख पगित ठेलि, किमइ न वारीइ । यौवन दुलभ संसारि, हईइ मालोची। मोरु वयण अवधारि, पछइ म सोची। पांचली॥१ अन्त-प्र० कणय निवाणू कोडि त्यजी, नव परणित अट्टनारि । प्रभवासि जंबूकुमर, जूतु संजम भारि। क्षिपीय करम नई लीला पांमी, मगति रमणि वरनारि ॥२९ For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोलहवीं सदी [ १३३ इति प्रभव जंबूस्वामि वेलि ।। समाप्त ।। संवत् १५४८ वर्षे प्रासोवदि-मे ।। व्यहा राधवपठनार्थ ॥ ।। श्री ॥ छ । शुभं भवतु ।। प्रति० रा० प्रा० वि० प्र० (१७६) जयवल्लभ . (२१०) नेमि परमानंद वेलि पत्र ४ प्रादि-गिरि गिरनारि सोहामणो रे, पाखलि फिरता वन्न जसु शिरिस्वामी यादववंशी, सोहइ सामल वन्न रे ॥१ हीयडला हेलिरे नेमजी नाम मेल्हि, परमाणदरस वेलि रे हृदय कमलितु भेलि रे, उपशम रंगज रेलि रे नेमि ।। प्रांचली ।। अन्त-श्री जइवलुभ मुनीस्वर नवइ सुरणसु नेमि जिणंद दोइ कर बोडी सेवा तोरी, मांगू वलीवली एह रे ॥४८ इति श्री नेमि परमानंद वेलि समाप्ता ।। प्रति० रा० प्रा० वि० प्र. वि० दे० जे० गु० क. भा० ३ पृ० ५१७ १८०) कनक नं० १३४६ (२११) वल्कल चीर ऋषि वेलि क० कनक, पत्र ४ मादि-राग प्रसाउरी । नंदिषेण ना गीतनु ढाल ।। For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १३४ J www.kobatirth.org इति श्री वक्वलचीर कुमार रिषि पगढमध्ये ग० अमरश्री गणिनी लेखिता श्रा० भवतु लेखक पाठकयोः श्रीरस्तु || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोतन पुर वरते, नगर सिरोमणि जाण । गढमढ धवलगृह, पोलि प्रसाद वषाणू । सोमचंद नरेसर, राज करइ सुविचार | राणी धारणि गुणवति तलु भरतार ॥। १ अन्तत षिणि रिषि पामिउ केवल निर्मल, क्षपक श्रेणि शुभ ध्यानि । बिन्हइ सहोदर ते केवल धरहुं प्रणम् बहुमानि । वक्कल चीरप्रसन चंद्ररिषि जिनशासनि जयवंत । कनक भणइ तेइना गुणगात, महिमा सुजस अनंत ॥ ७५ ॥ छ ॥ मरू- गूर्जर जैन कवि राजवेलि संपूर्णा समाप्ता मंडकीकी योग्य पठनार्थं शुभं प्रति० रा० प्रा० वि० प्र० वि० कनक दे० जे० गु० भाग० १ पृ० १७० भा० ३ पृ० ६२६ (१८१) सालिग (२१२) बलभ्रद वेलि गा० २८ श्रादि- द्वारिकां नयरी नोकल्या, बे बंधव ईक ठाय । त्रिषा ऊपनी कृष्ण नई, बंधव पाणी पाय ॥१ For Private and Personal Use Only बंधव जाई लाव्यु नीर, ऊवीसम साहस धीर । पढयउ छइ वृख तली छाया, कु मलांणी कोमल काया ||२ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात सोलहवीं सदी [ १३५ अन्त-इम जीव दया प्रति पालउ, साचउ समकित रयण उजालउ । समकित विण काज न सीझा, सालिग कहइ सुघउ कीजइ ॥२८ इति बलीभद्र वेलि समाप्ता लिखता। सं० १६६६ लि. गुटका प्रभय० - (१८२) अज्ञात (२१३) हेमविमल सूरि विवाहलउ पद्य ७१ आदि-प्रथम पत्र प्राप्त अन्त-इम आणी अंगि ऊमा...........'वीवाहलु । नरनारी जे नितु गावइ, तेह मंदिरि नवनिधि प्रावइ ॥७० श्री समति साध..................."सुगुरु रतन्न । श्री हेमविमल सूरीस, गुरु प्रतपु कोड़ि वरीस ॥७१ जस भेरी चिहं दिसि........ ...... श्री गुरु राज धीवाहलउ संपूर्ण । प्रति-पत्रांक ३ ( गा० ५५ से ७१) पंक्ति-१४। अक्षर-४४। । लेखनकाल-१७वीं. लि. प्रति० अभय. विशेष-किनारे कटे हुए ३ पत्र हेम विमल सूरि संबंधी प्राप्त हुए हैं। पर तीनों तीन विभिन्न रचनामों के ज्ञात होते है अक दूसरे का संबंध व गाथा का अंक नहीं मिलता। मध्य पत्र में गाथा २६ से ५६ तक है। वह रचना भी बड़ी होनी चाहिए। प्रथम पत्र में गाथा का अंक ५+५+ ३, इस प्रकार त्रुटित अंक हैं उसका प्रारंभ इस प्रकार होता है For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १३६ ] आदि- राग आसाउरी www.kobatirth.org अन्त Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म- गुर्जर जैन कवि (२१४) हेमविमल सूरि फाग सरसति सरस वचन दीइ, कबिजन केरी माइ । खड रितु रासो गाइसिउ, श्री हेमविमल गछराइ ॥ १ धुरि षड रति राजा वड़उ, सयल वणावलि कत । मलयानिल चंचल चड़ी, आयु मास वसंत ॥२ वि० हेमबिमल सूरि को आचार्य पद सं ० १५४८ में मिला था । (१८३ ) विनय रतन वा० वड़ गच्छ मुनि देवसूरि वा० महीरतन मुनिसार शि० (२१५) सुभद्रा चउपई-पद्य १५३ आदि - कमलवदनि हंसगामिनी, सरसय पय धरि चित्त संखेपइ सुभद्रा तणउ, कहिसु कवित्त सुचित्त ॥ १ सं० १५४६ सीलइ सोभा पवर धण, सीलई सोहग रूप । अविचल सीलई जीव सुख, शीलइ मानइ भूप ॥२ -वड़ गछि देवसूरि अनुक्रमइ, मुनीश्वरसूरि तणा पथ नमः । मेरुप्रभ सूरिंद पसाउ राजरत (न) सूरि गणहर राउ॥४६ श्री मुनिदेवसूरि उपदेसि महीरतन वाचक रयोस । गणि प्रधान गिरुश्रा गणसार, शील अखंडित गुणि मुनिसार ५० For Private and Personal Use Only तास सीस रचिउ चरित्र, बुद्धि तीण गुरु पुण्य पवित्र । विनयरतन वाचक कर जोड़ि ..... ......॥५१ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेमध्वज सोलहवीं सदी [ १३७ संघ पसाइं रचिउ एह, सोम्य दृष्टि मुझ करयो नेह । सवत पनरगुणचासइ चरी, भाद्रवड़इ मति उपनी खरी ।:५२ शास्त्र मांहि मइ दीठी जिसी, चउपइ बंधए प्राणी तिसी। भणइ भणावइ निसुणइ जेह, वरकाणाधिप तूसइ देव ।।५३ इति शील विषये सुभद्रा च उपई समाप्तः । संवत् १६६३ वर्षे प्रासो वदि २ दिने गणि समयसागरेणाले खि । मुनि प्रानद सागर मनि समति सागर वाचनार्थ शुभं भवतुः। . [ पत्र ४ अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर ] (१८४) हेमध्वज (२१६) जैसलमेर चैत्य परिपाटी गा० १६ सं० १५५० आदि-पहिलु हुं समरिस वाग्वाणि, माता द्य उ मुखि विमल वाणि । __ जिम चेत्र प्रवाड़ी करुं रगि, जेसलमेरु देखी हरषि अंगि ॥१ अन्त- सातमइ ए जिणहरि वीर, सासण सामिय गाईयइ । बिवा ए सउवावीस, भाव भली परिध्याईयइ ए सातइ ए जिणहर बिंब च्यारि सहख पठत्रीस पणि धन-धन ए ते नर नारि, नित्त जुहारइ ए एह जिण ॥१५ संवत् पनरह सय पंचासह भाव भगति नमंसिया मगसिरह मासइ मन उल्हासंइ हेमध्वज पसंसिया गणधर गण मूरत्ति गरुइ, प्रादि जिणवर पादुका मरुदेवि मायड़ी सयल संघह, करउ मंगल मालिका ।।१६ For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि इति श्री जेसलमेरू चैत्य परवाडि ।। [ १७वीं शती के गुट के में अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर ] (१८५) अज्ञात (२१७) परनिंदा चौपाई, पद्य १७५, . सं० १५५८ प्रादि-- देवी सरस्वती पय पणमेवि, मनसिउशिव नायक समरेवि । कहुं कथा च उपई प्रबंध, परनिंदा ऊपरि संबंध ॥१ पंडित धर्मी विनय विवेक, नीम निपुण प्राचार अनेक । तपसी दानी ए कहइ लोक, निंदा करइ तु गुण सवि फोक ।।२ पर निंदा ते पोढउ पाप, पावक पांहि बधारइ व्याप । पुण्य पदारथ थान दहई रस भरी वाइ लूली वहइ ॥३ काया नगरी नव बारही, राजध्यानी एह नवली कही। मान मोह मच्छरह चिरास, परम हंस राजेसर तास ॥३ तास चेतना राणी एक, बीजी माया नहीं ते छेक । भूपति जे हवइ घर आवंति, कुमति सुमति तेहवी हवंति ।।५ अन्त-पर निंदक नइ नरक निवास, आप निंदक नइ शिव सुख वास । दुख मंदिर पर निदा पाप, सुख मंदिर निंदा पापाद ।।१७३ कला कुमुदनी वछर वेद, सुदिया सोमासर तसु रिद । नाग पंडव संख्याइ तिथिवार, धुरि दिन प्रारम्भ पूर्ण विचार ॥१७४ For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भक्तिलाभ www.kobatirth.org सोलहवीं सदी निंदा ना अवगुण जेतला, मई नवि कहिवाई तेतला । प्रबन्ध साम्भलयां तणु प्रमाण, निंदा मोकु तुम्हें सुजाण । १७५ इति परनिंदा चौपाई सम्पूर्ण । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सवत् १६१६ वर्षे श्राषाढ़ सुदि १० रवउ | श्री पिपल गच्छे भ० श्री शान्तिसूरि तालध्वजी शाखायाम् । प्रति० विनयसागर गुटका ५१ ( १८६ ) भक्तिलाभ (२१८) श्री जिनहंससूरि गुरु० गीत गा० १८ [ १३९ आदि - सरसति मति दिउ प्रम्ह प्रति धरणी, सरस सुकोमल वाणि । श्रीमज्जिन हंससूरि गुरु गाइसिउ, मन लीगउ गुण जाणि ॥। १ अन्त - बंदि छोड़ि मोटउ विरुद लाघउ, बादशाहे परखिया । श्री पासनाह जिरांद तुटु, संघ सकलइ हरखिया ।। १७ श्री भक्तिलाभ उवझाय बोलइ, भगति आणी प्रति घणी । श्री जिणहंससूरि चिरकाल जीवउ, गच्छ खरतर सिर धणी ।।१८ इति श्री गुरु गीतम् For Private and Personal Use Only ( प्र० ऐ० जं० का० सं० पृ० ५३ ) वि०जिनहंससूरि समय सूरिपद सं० १५५५ स्वर्ग १५८२ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० ] मरू-गूर्जर जैन कवि (१८७) भावसागर सूरि शि० (विधिपक्षीय) (२१९) चैत्य परिपाटी गा० ४४ पत्र २ सं० १५६२ आदि-प्रणमसिउ पहिलुपास जिणंद, चैत्य प्रवाडि करिस आदि । श्री चीत्रोड़ तणी जिनयात्र, करीय करूनिय निरमल गात्र १ पाटण थकी मझ इछा इसी, भाव भगति वि हईडि बसि ।। कतियापुर देहरा छि पंच, प्रणमाता नवि करीइ खंच ॥२ अन्त-वछित ए दानद समरथ तीरथमाल विवह पुरे।। एम करीए निरमल जुत, सवत पनर बासट्टि वरे ॥४३ तेह हृइ पदिपदि सयल संपद, विपद सवि दूरि टलि । कल्याणमाला करि केली, वलिय मन. वछित फलि ।।४४ इति चैत्य परिपाटी वि० दे० ज० गु० क० भा० ३ पृ० ७७२ (१८८) विनय अज्ञात (उएसगच्छीय सिद्धिसूरि प्राज्ञानुवर्ती मेघरत्न ?) (२२०) महावीर २७ भव स्तवन गा०६१ स० १५६५ मेड़ता आदि-सरसति सरस वचन दिउ माय, जिम मुझ हीयड़इ हरषित थाइ । पभणिसि गुणहु जिणिवर तणा, महावीर भव पूर्या घणा ॥१ For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमलधर्म सोलहवीं सदी [ १४१ अन्त-उएस गछ मंडण देवगुपति सूरीसरो, तास परि जयवंता सिधि सूरि वरो। संव्रत पनर पइंसठ संवछरे, मेड़तइ नयर सयुण्यउ तित्थेसरो । वीनवंइ रंग मेघ रत सेवक वरो, भाव भगतइ नमी ताह वछी करो तास घरि लछीय होइ निश्चल थिरो, चउवए संघा दियइ आणंद वरो ॥६. इम वीर जिणि वर संघ सुहकर, परम संपद दायगो। संखेव विस्यी वीससग (२७) भव, तवन तिहु अण नायगो। सोवन वन्न सुसंघ लछण, संत हथ तणं बरो। सुर असुर वदी पाय भवियण, होय जिणि मंगल करो ॥६१ इति महावीर स्तवन संपूर्ण । प्रति- गुटका न० ७ स्थान-वृहत् ज्ञान भंडार । (१८६) कमलधर्म (पं० भुवनधर्म शि०) (२२१) चतुर्विशति जिन तीर्थमाला गा० ४७ सं० १५६५ प्रादि - अप्राप्त अन्त- नयरि कालप्पिय आवीया ए मा, पूज्या जिणवर देव । चंगि पथि चंदेरीइ ए मा, आण्या कुशलय खेम ।४४ सति पास दोइ पूज्यस्या ए मा. हीयड़ेइ हरष धरेवि । श्रु भुवनधर्म पंडित वरू ए मा.,गुण मणि तणां भंडार ।।४५ कमलधर्म तसु सीस वरइ मा., करइ विदेस विहार । संवत पनरह पांसठ ए मा, हस साल सुविचार ॥४६ For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ ] मरू गूर्जर जैन कवि नियमति मानिइ वर्णव्या ए मा., तीरथ सगला सार । तीरथमाला जे भणइ ए मा., प्राणिय ऊलगि अंग । ते नरनारी कवि भणइ ए मा., पामइ नव-नव रंग ।।४७ इति श्री चतुर्विशति जिन तीर्थमाला संपूर्ण ॥श्री रस्तु ।। प्रति-पत्र २ से ६ पंक्ति-११ । अक्षर =२८॥ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रंथालय (१६०) धर्मसमुद्र (खरतर विवेकसिंह शिष्य) (२२२) सुदर्शन चौपई आदि-रिसह जिणेसर पच नमी, समरिय सारद देवि । सेठ सुदरसिण नु चरित्र, विरचिसु है संखेवि ॥१ जिणवरि जे सवि व्रत क ह्यां, तिहां सवि शील प्रधान । सील सहित नर नइ दिय, सिव रमणी नितु मान ।।२ अन्त- श्री खरतर गछ गणधार, जिनचंद सूरि सहकार। वाचक विवेकसिंह सीह (? स) कहइ धर्मसमुद्र मुनीस ॥ज. इणि ध्यानि टलइ सवि रोग, इण ध्यानइ नासइ सोग । इणि ध्यानई जरइ दुख, इणि ध्यानइ गरुया सुक्ख ।।ज. इम सेठि सुदरसन चरिय, घण पुण्य प्रभावई भरिय ।। जे नर नारी नीरागी गाई, तिहिं ऋद्धि वृद्धि नितु थाई ॥जय For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयानन्द सोलहवीं सदी [ १४३ सुदरसनु न (उ) नाम, मन वंछित पूरइ काम । प्रति सबल सील अभिराम, मनि ध्याई करउ प्रणाम ।।१०७ इति सुदर्शन च उपई। अभय जैन ग्रन्थालय प्रति --- पत्र-३ । पंक्ति १६ से १६ । अक्षर-५० वि. दे. ज. गु. क भाग १ पृ ११६ भाग ३ पृ. ५४८ (रचनाकाल सं० १५६.७ से १५८४) (१६१) विद्यारत्न (लावण्यरत्न शि०) (२२३) मंगल कलश रास-पद्य ३३९ । रचनाकाल सं० १५७३ (७, मि. व. ६ आदि-श्री जी राउलि जिन जपु, जग जीवन देव । समरयां काज सवे सरै, करई सुरासुर सेव ॥१ भारति प्रारति सह हर, चितवति मति अति (अंत)। जे दरिस देखइं डरी, दुरमति जाय दिगंत ।।२ चितत चितामणि सरिस, हरिस ही आ सु प्राण । श्री लावण्य रत्न पय प्रणमतां, पाम्यो अविरल वाण ॥३ जीव अनते अनंत सख, लाधा धर्म प्रमाण । मंगल कलस प्रति फलिउ, सबसे तास वखाण ॥६ अन्त-तपगछ गगन विभासन भाण, श्रीसोमसुदर सुरि प्रगट समान । जे गुरु (रा) ज चिहुं दिसि चडई, कुमति घूक अंध थई पड़इ । ३१ For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ ] मरू-गूर्जर जैन कवि तास पाटे मुनि सुदर सूरि, लोध्या नामें दुरित जाय दूरि । वादी वृद विदारण सीह, श्री रतणसे खर सूरि नमूनिसदीह तसु पटे सूरि गिरि सुर तरु समो, श्री लक्ष्मीसागर सूरि नर नमो। तसअ पटे गुरु गिरमां निलो, श्री सुमति साधु सूरि तपगछ . तिलो ।।३३ संप्रति सूरि सिरोमणि सरइ, श्री हेमविमल सूरि सघ मंगल करइ । वादं अखडित पंडित जाण, श्री धनदेव सुधारस बानि ॥ ३४ मोह महिपति मोडित मदा, सुरहंस पइ प्रणमो सदा । ते गुरु सीस ईस अव(त)र्या, मदन महाभट हेलां हर (या) ॥३५ विद्या चउद वितंडा वाद, उन्मद वाद उतार्या नाद । दोन उगमते उजम परा, विद्यारत्न गुरु वांदो नरा ॥३६ तस पय कमल विमल चित धरी, विद्यारत्न कहे इणि परि । संवत पनरस्य तहोत्तरी रिष, मागसिर वदि नवनि मणि हरिष । सुर धरणीधरधरणी जास, जां द्र न चलई अंबर वास । तां प्रतिपो पृथ्वी तसि एह, मंगल माला गिरुउ गेह ॥३८ पुण्य ऊपरि ए कीयो प्रबंध, पाप तणा टालिउ समंध । भणतां गुणता सुणतां सार, ऋद्धि वृद्धि मंगल जयकार ।।३६ इति श्री मंगल कलश रास संपूर्ण ।। लेखन काल - संवत् १६६४ वर्षे च इत्र सुदि १४ बुध वासरे श्री देवगिरि नगरइ सुश्रावकि संघवी जगसी भार्या हर्षीई तस्य पुत्र अण्य For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हर्षप्रिय सोलहवीं सदी [ १४५ जात सां द्रउजी, दामाजी, सां. दीनाजीए मध्ये दामाजी लिखित आत्म हेतु। प्रति-गुटकाकार । पत्र-२०४ से १८ । पंक्ति २० । प्रक्षर-२४ स्थान-वृहत् ज्ञान भंडार वि. दे. जं. गु. क. भा. ३ पृ. ६३६ (१६२) उ० हर्षप्रिय (ख० क्षान्तिमंदिर शि०) (२२४) शाश्वत सर्व जिन द्विपंचाशिका गा० ५२ रचना काल १५७४ खंभाइत । प्रादि-समरवि सारदा देवि, त्रिभुदन तीरथ सासता ए । ते संख्या पभरणेस, ते जिन सासन जागता ए ॥१ वृषभानन ब्रधमान चंद्रानन तह वारिषेण । ए चिहुँ नाम समान, सासय पडिमा त्रिहुँ भवणि ॥२ अन्त-त्रिणि चउवीसी विहरमाण, सासय जिण च्यारि । छन्नू नमीप्रइ भावधर, जिणवर ए च्यारि । पनर चिहतरि तवन कीध, खभाहत नयरि । भणतां गुणतां नितु विहाणि, सुह सपय तसु घरि ॥५१ सेत्रुज नइ गिरनारि, यात्रा करता हुइ जे फल । अट्टावय समेतसिहरि, काया हुइ निरमल ।। तिम सासय जिण इयाण बावन्नी भणंतां । श्रीहर्षप्रिय उवझाय एम बोधि मांगइ रचितां ।।५२ For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1 आदि- -अप्राप्त १४६ ] मरू-गूर्जर जैन कवि इति श्री शाश्वत सर्व जिनद्विपंचाशिका संपूर्ण ॥ श्रीरस्तु || लेखनकाल - सवत् १७३० वर्षे आसोजवदि १३ दिने लिखतं पंडित दयातिलकेन । प्रति - पत्र - ३ ( १ में ३ पंक्ति) । पंक्ति १५ । अक्षर ४६ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२५ ) शोल इकतीसो गा० ३१ अन्त- - मन वचन काया तजी माया, विषय सुख मधु बिंदुआ । अरिहंत वाणी जीव जाणी, म करि नारी छंदुप्रा || जे सील लार्धं जीव सार्धं, मोक्ष ना सुख ते सुण्यो । श्री क्षांति मन्दिर गुरु प्रसाद हर्षप्रिय पाठक भण्यौ ॥ ३१ इति शील इकतीसो समाप्तः । प्रति० अभय ० लेखन काल - १७वीं शताब्दी । श्री ठकरादे पठनार्थं । प्रति - पत्र - ६ अन्य रचनाओं के साथ । पंक्ति ११ । अक्षर. ३७ । ( १६३) भाव उपाध्याय ( २२५) विक्रम चरित्र रास || विनयविमल गणि गुरुभ्यो नमः ॥ For Private and Personal Use Only अभय ० सं० १५८२ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अज्ञात सोलहवीं सदी श्रादि-नमो नमो तुम्ह चंडिका तुम्ह गुण कर न हुँति । एक चित्तइ जु समरतां, सुख संपत्ति पामंत्ति ॥ १ त जो माहिषासूर बद्ध, दैत्य ज मोडघा मान । जागु संभ नसंभुना, तई हरिया सवि खाण ॥२ पवाडा तुझ केतळा, कहितुं न लहुं पार | अर्जुन शिरि शरणि चडी तु भलभड़ी अपार || ३ छपन कोड़ि रूपज धर्या, चुसठि योगनि हुँति । तुल तणा गुण गावतां, मन हरषह पामंति ॥४ साहेली सरोवर तरणी, न लहई को तुझ पार । हि कवियण चंडां सुरगु तु अडवडीयां आधार ॥५ कवण गजुहु मानवी, मुझ बल ताहरु हुति । विश्व माय ताहरई बलि, राउ विक्रम वर्णवति ॥ ६ श्री गुरुनी सानिधि थकी, अविरल वाणी होइ । उवझाय भाव कहइ मानवी, संभलयो सहु कोइ ॥ ७ नयर उजेणी राजिउ, जाणु विक्रम राय कलियुग माहि अवतरि जिणि राख्यु जसवाय ॥८ चुपई - उजेणि नव जोवन वार मनुष्य तस्तु नहीं पार | व्यवहारी बसे श्रीवंत, प्रछइ दयामय जेह नु अंत ॥ ६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १४७ For Private and Personal Use Only ( ६७५ पद्यों में विक्रम के लीलावती से पाणिग्रहण, उसके पुत्र का प्रसंग वर्णित है ( | ) अन्त - दूहा - संत्रत पन (र) ब्यासीइ, (१५८२) तिथि वलि तेरसि होइ मास मागसिर जाणयो, वारह रवि दिन जोइ ।।७२ चडी तणइ पसाउ लहइ, चडिउ प्रबंध प्रमाणि 1 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ ] मरू-गूर्जर जैन कवि उवझाय भाव इणि परि भणइ, बात ज प्रावी ठामि ।।७३ नर नारी सह साभलइ विक्रम चरित्र ज बात ते सानद्धि चडी करि, टालइ सवि उपघात ॥७४ इति विक्रम चरित्र रास संपूर्णः बोर्डर पर विक्रम चुपई लिखा है । गुलाब कुमारी लाइब्रेरी वंडल नं० १९/१९४ पत्र १-५३ वि० दे० जै० गू० क. भा० ३ पृ० ६३३ (१६४) विनयसमुद्र (उपकेश हर्षसमुद्र शि०) (२२६) विक्रम पंचदण्ड चौपइ रचना काल-संवत् १५८३ आदि-देवि सरसति २ प्रथम प्रणमेवि । वीणा पुस्तक धारिणी, वंड विहंसि सुप्रससि चुल्लइ । कासमीर पुर वासिणी, देइ नांण अन्नांण पिल्लइ ॥ कवियण नीतु मण्डली, दिउ मुझ बुद्धि विसाल । जिम विक्रम राजा तणउ, कहां प्रबंध रसाल ॥१ गवरि नंदन २ समरि गणपत्ति । For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विनय सोलहवीं सदी [ १४९ एकदंत गजवदन पुणि विघन विसन सवि दूरि टालइ ।। लंबोदर नवनिधि करण सुरह वृद स्वछंदि पालइ । मूगा वाहणि अति पवर करि मोदक अभिराम ॥ सिरि विक्रम नरवइ तणा, कवि करिस्यु गुण ग्राम ।।२ सत साहस तनि प्रादरु, जिमि मनिवछित होइ । पंचदंड सिरि छत्र किय, ए उत्तिम परि जोइ ।।८ अन्त - संवत पनरह सइ त्रयासीयइ ए, चरित्र निसुणी हरसीयइ । साहसीक जे होइ निसंक, कायर कंपइ जे बलि रंक ।।६० श्री उवएस गणाचरि सूरि, चरण करण गुण किरण प्रपूर । रयणप्यह प्रभु गुण गण भूरि, तसु अनुक्रमि संपइ सिद्धि सूरि तेहनइ वाचक हर्षसमुद्र, जसु जस उज्जल खीर समुद्र । तसु विनेय विनयांबुधि एह, रचिउ प्रबंध निरखि तिणि एह ।।१२ पंचदंड नाम सुचरित्र, देखी तेहनु अति विचित्र । तिणि विनोद चउपई रसाल, कीधी सुणतां सुफल विलास (विसाल) ॥६३ इति श्री विक्रमादित्य राजा पंचदंड चउपई समाप्त शुभं भवतु लेखन-१७ वी लि० (विनय समुद्र का अवड चौ० सं० १५६६ लिमरी के साथ) प्रति-पत्र संख्या ३५ से ६३ गुटकाकार । पंक्ति १५ । अक्षर ३७ स्थान-मोतीचंदजी खजांची संग्रह । - For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० ] मरू-गूर्जर जैन कवि (२२७) नमिराज ऋषि संधि गा० ६९ बीकानयरे सं० १५८३ लग० मादि-पापहरण जिणिवर पणमेवी, सवि गणधर गुण हीयइ धरेवी । सासण देवति निय गुरु ध्यावउ, संधि बंधि नमि ऋषि गुण गावउ ॥१ महियलि मंडण मिथला नयरी, जिणि निजि तेजि नमाव्या वयरी। नायक निरुपम तिहुप्रण राजइ, श्री नमिराज करइ गुण गाजइ अन्त-कर्म स्वपावी केवल नाण, पामी पहुंतउ नमि निरवाण । वीकानयर वसुह वरट्ठाण, विनय वणासीरी (रीसी) कीयउ बखांण ॥६६ इति श्री नमि राजऋषि संधि । लेखन -? संवत १६३२ वर्ष प्राप्ता । विनय रचित अन्य स्तवनादि १. शत्रुजय आदि स्त० गा० २७ २. थंमण पार्श्व स्त• गा० १३ ३. पावं १० भव स्त० गा०३६ प्रति-गुटका नं. ७ स्थान-वृहत ज्ञान भण्डार १७ वीं लिखित, साध्वी हेमी पठनार्थ पत्र ५ । पंक्ति १० । अक्षर ३६ स्थान-मोतीचंद खजांची संग्रह । For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात सोलहवीं सदी [ १५१ (२२८ ) नमि राजऋषि कुलं गा० ६३ आदि-पहिलउ तिथंकर लिउ नाम, सर्व साधु नइ कर प्रणाम । श्री नमिराय तणउ अवदात, बोलिसु अध्ययनइ विख्यात ॥१ . अन्त–नमिऋषि नामिउ निज प्रातमा, शकई प्रेरी तओ महातमा । तउ घर छडि विदेह नरिंद, चारित उत्तम कियउ मुणिंद ॥६२ जे पंडित छइ ते सुविचार, पविक्खण सवि भोग निवारि । ते नमि राजऋषि नी परइं, वाचक विनय इम वचन सिद्धिइ वरइ ॥६३ इति श्री नमि राजऋषि कुलं । पत्र ३, पं० १३, अ० ४० (२२९) चित्रसंभूति कुलक गा० ८३ ___सं० १६५३ पूर्व प्रादि-वीर जिणंद सुवंदिय भावड, जसु गुण पार न सुरगुरु पावइ । तेरम अज्झयणइं विख्यात, चित्र संभूति तणो अवदात ॥१ श्री साकेत पुरइ वरचंग, चंद वडिस पुत्त बहु रंग मुणि चंद सागर बंदह पासइ, लेइ दीख पुहवि प्रतिभासइ ॥२ अन्त-तेरम अज्झयणइ सुणिवउ सुयणइ वयणइं वीर वखाणीयउ ए । जेह भवि भणिस्यइ श्रवणि सुणिस्यइ विनइ वृति थी जाणीयउ ए॥८३ For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १५२ ] www.kobatirth.org आदि इति श्री चित्रसंभूति कुलकं समाप्तं प्रति-गुटका पत्र २५३-५७।। पं० १८ अ० २६ वि० इसी प्रति में सीता चौर, श्रेणिक चौ० [ सोमविमल सूरि सुरप्रिय स० श्रुत षटत्रिशिका ( पासचन्द), ब्रह्मचर्य ( पासचन्द ) व नवतत्व वाला है । समाधि कुलक अन्त Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोमविमल सूरि के दस दृष्टान्त त्रु० है । अन्त-इणि परि दस बोले दोहिलउ नरभव जाणी । सील समकित पालउ अज वलाउ निज प्राणी श्री हेमविमल सरि सुगुरु वचनि मनि श्राणि श्री सोमविमल सूरि जंपर एहवी वाणी । इति दम दृष्टान्त मरू- गूर्जर जैन कवि ( २३० ) इलापुत्र कुलक गा० ६१ For Private and Personal Use Only सं० १६५३ लि० सं० १६५४ से पूर्व संति सुहंकर सोलिम जिणवर, संति जिरणेसर ध्यावउजी । पुहवि प्रगट नर अति अचरिज कर, इलापुत्र गुण गावउजी ॥ १ ए भव नाटक नी परि बुझइ, जे हुई भवियण प्राणीजी । साधु सुसंगति सयम सूद, मुझ इन विषय नबिनांणी जी । (आ.) - आप तरीनइ पांचइ तारचा, अविगति पंथ लगाया । - निरमल चित्त निरंजन नितनित, विनइ भगति गुण गाया रे ॥६ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving JinShasan 188217 gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only