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मरू-गूर्जर जैन कवि
(४४) अज्ञात (५४) मातृका बावनी गा० ६४
प्रादि-भले भणं माई घुरु जोइ, धम्मह मूलु सु समकतु होइ ।
समकतु विशु जा क्रिया करेइ, तातइ लोहि नीरु घालेइ ।।१ अन्त-एहु विचारु हियइ जो धरइ, सूघ धम्मु विचारिउ करइ ।
सुहुगुरु तणा चलण सेवंति, ते नर सिद्धि सुक्खु पावंति ।।६४ जइ संसारु तरेव उ करउ, सतगुरु तणा वयण अणुसरहु । जइ संसारह करिस उ छेहु, सुद्धधमु विचारिउ लेहु ।।१ अांचली ।।
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
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(४५) वीरप्रभ मुनि (५५) श्री चन्द्रप्रभ कलश गा०१६
आदि-अस्थि इह भरहि वर नयरि चंदाणणा,
जत्थ रेहति नर नारि चंदाणणा। करइ तहिं रज महसेण पुहवीसरो,
चंग चउरंग बल कलिउ नय ईसरो ॥१ अन्त-सड्ड सगुणढ जे न्हवहिं चंदप्पहं, विहिय मुहकोस बहु तो सहय कुप्पहं । कुगुरु कुग्गाह परिचत्तइय विहिरया, लहहि ते झत्ति निव्वाण सुह
संपया ॥१६
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