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अज्ञात
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चौदहवीं सदी
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सम्मेय गिरिहि सुविसाल तीरि, सुपवित्त विमल वर कुंड नीरि ।
पsिबिंब पड़ पच्चक्ख तित्थ,
जिरण
प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय
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(६७) अज्ञात (७७) श्री शत्रुञ्ज चंत्य परिवाड़ी गा० २९ प्रादि- सामिय रिसह पसाउ करि, जिम से जि चड़ेवि । चेत्र प्रवाडिहि सवि नमउ, तीरथ भाव घरेवि ॥१ अन्त - नेमि जिरणेसरु पाज मुहि, ललतासरि जिण वीरु ।
पालीताणइ पास जिरंतु, नमिउ लहि भव तीरु ||२८ एहिजि चेत्य प्रवाड़ि नर, पढई गुणई निसुगति । सिरि सत्रु जय जात्रफलु, ते निश्चई पावंति ॥२६
प्रतिलिपि- - श्रभय जैन ग्रन्थालय
(६८) अज्ञात
(७८) श्री शत्रुंजय महातीर्थं गीतम् गा० ५
प्रादि- तित्थ माझि सेतुज खित्तु सिद्धि सारो ।
नितु लगउ जिव भमसि भवजल पारो ॥१ अन्त - प्रभु दरिसणि अमृतकुंडि प्रम्हि न्हाइला | पुरबिल दुकृत कर्म प्राजु घोइयला ||५
प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय
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