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मरू-गूर्जर जैन कवि
(६५) धर्मसूरि (७५) श्री समेतशिखर तीर्थ नमस्कार गा०८
प्रादि- असुर अमर खयरिंद, पणमिय पय पंकय ।
जस सिरि बीस जिणिद, पत्त सासय पय संपय । वर अच्छर सुर सरिय सरिस, तरुवर सुमणोहर ।
सो समेय गिरिंद नमउ, तित्थह सिर से रह ॥१ अन्त- इय सम्मेय गिरिंद वीस, जे सिद्ध जिणेसर,
मोह गुरूय तम तिमिर पसर, भयहरण दिरणेसर । ते संघु अतिअ भत्तिराइ, सपसाइ महामुणि, धम्मसूरि पायाण दितु, चितिय सुह जे मुणि ॥८
प्रतिलिपि -- अभय जैन ग्रन्थालय
(६६) अज्ञात
(७४) सम्मेतशिखर गीत (अपूर्ण) आदि-खयर नरिद सुरिदिहि वंदिउ हदियरु,
मणिकंचण रयणामय भूमिहिं अइ पवरु; वीस जिणेसर पचम कल्लाणिहि महिउ,
सिरि सम्मेउ नमंसह बहु अइसइ सहिय ॥१ मन्त-दिपंत रयण मणि कति सारु, सम्मेय सिहर भव सयह पारु । कलि काल कलुस जण मण निएवि, संपइ नर दुग्गम विहिउ
देवि ॥१३
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