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अज्ञात
चौदहवीं सदी
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(७१) अज्ञात
(८१) श्री स्थूलिभद्र गौतम् गा०८ आदि-सीह सप्प धरि कुव कंचण मणि, संपत्तउ मुणि राउ।
दुक्कर कारउ वरनीजइ, थूलभद्द मुनिराओ ।।१।। अन्त–तासु देखि गुण गुरि मन, रंजिउ दुक्करु भासइ । तस गुण थुणिवि करिवि जो भासइ, तसु घरि सिरि आवासइ ।।
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
(७२) अज्ञात (८२) श्री वयरस्वामि गीतम् गा० ७
आदि--भरतखेते तुववण पुरे, धणघर सेठि घरि ।
हेउ विमाणह चवियउ, ता सुनंदा उवरि ॥१ अन्त-दस पूरवधरो वइर सामि, अनिक लबधि जूतो। सूठि गाठे अणसणु लेयाओ, पहुत उ मुनि देवलोके । ७
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
(७३) अज्ञात
(८३) मधु बिन्दु गीत पद गा० ८ आदि-प्रभवु भणइ नव जोवण परिणिय, अट्ठ रमणि जगि सार :
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