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गुणचंदसूरि
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पंद्रहवीं सदी
गाइ मण प्रणुरागिहि फागिहिं नेमिकुमार | जिणि जगि सयल विदीतउ, जीतउ भुजबल मारु | २
अन्त - प्रगणिय राजल वयस्णु, दाण संवत्सर देई ।.
रेव गिरिवर सामिसाल, संजमसिरि लेई | चउपन दिणि अकलंक, विमल केवलसिरि पामिय । घणइ कालि राइमइ सरिसु, सिवि पत्तउ सामिउ ४८ नवजुव्वभरि सील. सबलु, सोहागिहि सारो । मणवंच्छिय फलदेउ देउ, सिविदेवि मल्हारो |
सिरि महिंदष्पहसूर सीसि जयसेहरि कीजइ ।
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फागु एउ भवियणि वसंत ऋतु रसिंहिं रमीजइ । ४६
प्रकाशित - प्राचीन फागु संग्रह पृ० २४२-१=२४२-७ दे - जैन गु० क - भाग १ पृ० २४ भाग ३ पृ० ४२४-२६-१४०८
(६५) गुणचंदसूरि
( १११ ) वसंत फागु गाथा १६, १५वीं शताब्दी
प्रादि- अहे फागुण फली अ बीजोरडी, पुहतलु मास वसंत । afi aft तर कूपला, केसू कसम अनंत । १ कामिणि कारण भमरलु, भमतु माझिम राति । काची कलिय म भोगवी, भोगवी नव नवि भाति ॥२
मन्त - अहे नइ हरि मइ आराहीउ, नवि जागु सिवराति । गोरी कंठ न ऊतरि, माहरी उत्तम जाति । १५
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