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जिनचन्द्र सूरि शि० चौदहवीं सदी
[२७ (२८) लखमसीह (ख० जिनचंद्रसूरि भक्त श्रावक)
(३७) श्री जिनचंद्रसूरि वर्णना रास गा० ४७ ऐति. आदि -पास जिणेसर वीतराहु, पणमेविरणु भत्ति ।
कर जोडवि सुय देवि नमिवि, कारउ विन्नती।। चरिऊ रइसु मणि रायहंसु, पहु जिणचंद सूरि
नचहु भवियह भावसारु, गय कलिमलु दूरि ॥१ . अन्त- जुग पहाण पह जिणचंद सूरि, पयट्ठउ निय पयाव जसु पूरि । 'लक्खम सीहु' वन्नवइ अवधारि, अम्ह हिव कुग्गइ गमरणु निवारि॥
प्रतिलिपि:-अभय जैन ग्र'थालय वि० जिनचंद्रसूरि जी का प्राचार्यकाल सं० १३४१ से ७६ तक
(२६) जिनचंद्रसूरि शिष्य
(३४) जिनचंद्र सूरि फागु गा० २५ आदि-अरे पणमवि सामिउ संति जु, सिव वाउलि उरि हारु ।
अरे अणहिलवाड़ा मंडणउ, सव्वह तिहुयण सारु ।। अरे जिणपबोह सूरि पाटिहि, सिरि सजमु सिरि कंतु ।
अरे गाइवउ जिणचंदसूरि गुरु, कामल देवि कउ पूतु ॥१ अन्त-मध्य में त्रुटित
मालवा की बाउल भणहि, सयलहं लोयहं मांहि ।
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