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मरू-गूर्जर जैन कवि
सिरि जिणचन्दसूरि फागिहिं, गाहिं जे अति भावि । ते बाउल अरु पुरुसला, विलसहिं सिवसुह सावि ॥२५
प्र. प्राचीन फागु संग्रह (३९) श्री जिणचन्द्र सूरि चतुष्पदी गा० १० आदि-पहिलउौं प्रणमवीर जिणिदु, जसु पय सेव करइ अमरिंदु ।
युगप्रधान जगि हूयउ नामि, तसु पट्टि श्री सोहम सामि ॥१ अन्त-मेरु महीधर जा गिरि सारु, महियलि जा जिणि धम्म विचारु । जावय चदु सूरु दिप्पंतु, तिम जिण चन्दसूरि भुवि जयवंतु ॥१०
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रंथालय
(३०) सहजज्ञान (ख० श्री जिनचन्द्रसूरि शि०)
(४०) श्री जिनचन्द्र सूरि वोवाहलउ गा० ३५
प्रादि-.....
तहि सु जामो कुले नयरि तहि निवसए, नर रयणु मंति केल्हा
भिहाणो ॥३ विविह विन्नाण वर धम्म कम्म जूया, रेहए रूवधर गेह लच्छी। सीलगुण धारिणी तासु सहचारिणी, सरसई महर झुणि वीण
वाणी ॥४ अन्त - एह जुगपवर वीवाहलउ जे पढइ, जे दियइ भाविया रंगभरे । ताण सासण सुरा हुति सुपसन्न, सहजज्ञान मुनि इम भणए ॥३५
प्रतिलिपि-अभय जैन नथालय
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