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मरू गूर्जर जैन कवि (४) श्री जिनदत्त सूरि शि० या भक्त
(४) श्री जिनदत्तसूरि स्तुति पद्य १६ अपूर्ण
पादि- जो अमारणु सिरि बद्ध मारण, मय माण विवज्जिउ ।
सिद्धि पुरधिनि वद्धमाणु, भव पंजरु भजिउ ॥ लोयालोय पयासणिक्क, मुरु भुयण दिवायरु । सो जिणिदु नय अमर विदु, वदिवि करुणायरु। सथुणिहि वीर जुगपवर गुरु, गुरु भावह संठविय मणु ।
जिण सासण गयणंगण तरणि, सिव-पहगमण महासमणु ।।१।। अंत अप्राप्त .. [ जैसलमेर ताडपत्रीय प्रति क्र० १५६ पत्र ५७ से ५६ में अपूर्ण प्राप्त ]
प्र० यु० जिनदत्तसूरि, परिशिष्ट न० ३
(५) धर्मसूरि शिष्य (५) धर्मसूरि बारह नावउ (बारह मासा) गा० ५० आदि-तिहुयण मणि चूड़ामणिहि, बारह नावउ धर्मसूरि नाहह ।
निसुणेहु सुयणहु नाण सणाहह, पहिलउ सावण सिरि फुरिय।।१। कुवलय दल सामल घरगु गज्जइ, नमद्दलु मंडल झुणि छज्ज इ । बिज्जुलडी झवकिहिं लवइ मणहरू, वित्थारेवि कलासु ।
x अन्त-अट्ठाइय वरिसेहिं जसु लोए समागमु ।
अहिय मासु संपत्तो सो सहिय मणोरम् ॥४८॥
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