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बारहवीं सदी (३) पल्ह कवि (३) जिनदत्तसूरि स्तुति छप्पय १०
मादि:-जिण दिइ आणदु चडइ, अइ रहसु चउग्गुरगु,
जिण दिइ झड़हड़इ पाउ, तर निम्मल हुइ पुगु, जिण दिट्ठइ सुदु होइ कट्ठू, पुवुक्किउ नासह, जिण दिट्ठइ हुई रिद्धि, दूरि दारिद्द .पणासइ ।। जिण दिट्ठइ हुइ सुई धम्म मइ, अबुहहु काइ उइखहु ।
पहु नव फणि मंडि उ 'पास' जिरण, अजयमेरि कि न पिक्खहु ।१। अन्तः-वक्खाणियइ त परमतत्त जिण पाउ पणास इ ।
आराहियइ त वीरनाहु, कइ ‘पल्ह' पयासइ । धम्मु तु दय संजुत्त जेण, वर गइ पाविज्जइ। चाउ तु अण खंडियउ जु, बंदिरणु सलहिज्जइ । जइ ठाउ त उत्तिमु मुणिवरहवि, पवर वसहि हो चउर णर
तिम सुगुरु सिरोमणि सूरिवर, खरतर सिरि जिणदत्त वर।१०। (१) इतिश्री पट्टावली षटपदानि । संवत् ११७० वर्षे अव युगाद्य पक्षे ११ तिथौ श्रीमद्धारानगयीं श्रीखरतर गच्छे विधि-मार्ग प्रकाशि, वसतिवासि श्री जिणदत्त सूरीणां शिष्येण जिन रक्षित साधुना लिखितानि । (२) इतिश्री पट्टावली ।। संवत् ११७१ वर्षे पत्तनमहानगरे श्री जयसिंह देव विजयि राज्ये श्री खरतर गच्छे योगीन्द्र युगप्रधान वसतिवासी जिनदत्तसूरीणां शिष्येण ब्रह्मचंद्र गणिना लिखिता। शुभं भवतु । श्री पार्श्वनाथाय नमः । सिद्धि र तु ॥
प्र० अपभ्रंश काव्य-त्रयी। ऐति० जन काव्य संग्रह पृ० ३६५
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