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मरू-गूर्जर जैन कवि जिनराज सूरि पाट ससि सोभित, भणति भैरइदासु मणहरुआ । जिणभद्र सूरि सुगुरू गुण बदउ, मन वंछित फल पाम उ ए ॥२
प्रति० अभय
(११७) जिनभद्रसूरि शिष्य (१३६) श्री जिनभद्र सूरि गीतम् गा० ५
आदि-माइ ए दीठउ माणिकु मेल्हि सणीयए गच्छपति प्रावतउ ए।
कवणिहि अम्ह गुरु प्रावत उ दीठउ, कणिहि लइय वद्धावणी ए ॥१ अन्त-सरसवि ठविउ सोवन पाटु, सासणि देवति सेस वधारिय ए। . गच्छपति बइठउ जिणभह सूरि, संघ मंडण. गच्छ उद्धरण ।।५
प्रति० अभय
(१३७) जिनभद्र सूरि अष्टक गा० ९
आदि-भवि यण भो भड़ सुणह बलु दलु, सज्जिविरि चडह ।
जिणभद्द सरि मुणिराय सुसमर, महांगणि जिम लड़हु ॥३ । अन्त-रिषभ अजित संभव जिणिदु अभिनंदण सामि सुमति पद्म ।
मयण राउ जिण जित्तु कोह, झाणानलि जालिउ। . मोहमल्लु जेणि नथि, माया पिण टालिउ । कुमत प्रमुख नट विकट सुभट, जिण हेलहि जित्ता ।। पंच विसय परिहरवि जेण, जय लच्छि धत्ता।
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