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अज्ञात
चौदहवीं सदी
[ ४७ (५६) जिनपद्मसूरि (सं० १३८६ से १४००)
(६९) श्री शत्रुञ्जय चतुविशति स्तवनम् गा० २६ पादि-जग मंडण गुण पवरं, सत्तजय धरणि........रं ।
सुह सारं भवतार, भयवार-थुणिसु जिणवरि ॥१॥ ना ि........ई, मुरदेवि पुत्तं जणाणंदण।
वसह वर लंछण दुरिय, भ... "ण मंडलं ॥२॥ अन्त-तिय लोय भूसण दलिय दूसरगु, विबुह तोसण संगउ ।
इय माय ताय सरीर लंछण, देह कतिहि संत्थुउ॥ सिरि माणतुग विहार संठिउ, सुप्पइट्ठिउ जिणगणो । जिण पउमसूरि सुरिंद वंदिउ, दिसउ सुक्खु गुरगुल्लुणो २६
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय जिनपद्मसूरि दे० ज० गु० क. भा० १ पृ. ११
(६०) अज्ञात (७०) श्री स्थूलिभद्र बोली गा० २८
पादि-सुर राय समहरि करवि निज्जिय, चक्कवह हरि हलहरा ।
पायालि पन्नग सेव मन्नहि, कवण मत्त नरेसरा ।। तस कुसुम सर कोदंड खंडवि, बाण पसरुवि हिडिउ ।
सिरि पूलिभद्दिण तेम निज्जिउ, जेम किणिवि न निज्जिउ ॥१ मन्त-कोवि निय तरण तषिण सोसाइ, कोवि रंनिहि निवसए ।
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