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मरू-गूर्जर जैन कवि
लीलई चालिउ वीर जिणि, वाम कमगि गिरिन्दु ॥ १ अन्त-ताम सुरवइ ताम सुरवइ, वयण संभंत ।
सहसच्चिय सुर असुर, सुपसत्थ तित्थु नीरह भरिऊण मणिमय कलश, कुणह न्हवण समकालु वीरह पसरिय पडु पडिरव भरिय, भुवर्णाभतर पूर अप्फालिय तियसेहिं तहि, चउविह मंगलतूर ॥५
प्रतिलिपि-प्रभय जैन ग्रन्थालय
(५८) अज्ञात (६८) सर्व जिन कलश गा० ५ (चतुर्विशति जिन कलशः)
आदि-जंम्म मज्जणु२ भणउं उसभस्स ।।
मजिय संभवमभिणंदणह, सुमइ सुप्पभ* सुपास नाहह ।। ससि सुविहि सीयल जिणह, सिरि सिज्जंस जिण वासुपुज्जह । विमलमण तह धम्म जिण. संनि कुथु अर मल्लि ।
मुणिसुव्वय नमि नेमि जिणु, पास वीर जिण वल्लि ॥१ अन्त--तयणु गारिण (तयशु गारिण) सब भो भव ।
अपुव्व वत्याभरण, भूसियंग मणि रंग चंगय प्राण द वाहप्पवह न्हविय, गल्लयल पुलय संगय करहु सव्व तित्थेसरह, मज्जणु मह वह सेउ
सिवपुरम्मि तुम्हवि भवइ, जिव लहु रज्ज भिसेउ ॥ ५ * सुपम सुप्पास मिंण
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय
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