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मरू-गूर्जर जैन कवि
हे पत्तउ तुह पय सरणि, दुट्ठ कम्म मह चूरि ॥१ अन्त-पोस दसमिहि पोस दसमिहि जम्मु सुपसिद्ध ।
वाणारसि वर नयरि, प्राससेण नरनाह मंदिरि ॥ वम्मा उरि संभामिउ, मेरु सिहरि न्हविउ पुरंदरि । कमठ असुर गय मय महणि, केसरि जिम बलवंतु । सिरिपुर मंडणु पास जिगु, अंतरीउ जयवंतु ॥५
प्रतिलिपि -अभय जैन ग्रन्थालय
पंद्रहवीं शताब्दी (८८) मेरूनंदन (ख० जिनोदय सूरि शि०) (१००) श्री गौतम स्वामि छंद गा० ११
(सं० १४१५ लगभग)
आदि-अट्ठ छंद दस दूहड़ा, छपदु अडिल्ला दुन्नि ॥
जे निसुणइ गोयम तणा, ते परिवरियइ पुन्नि ॥१ अन्त-गोयम सामिउ मई थुणिउ, इम गरुयउ गुणवन्तु ।
संघ मेरुनंदण वणिहिं, सुरतरु जिम जयवन्तु ॥११ वि० मेरूनंदन की सब रचनाओं की प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय कवि के सम्बन्ध में दे० जैन गू. क. भा० १ पृ० १८ भा० ३ पृ. ४२०,
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