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मरू-गूर्जर जैन कवि
अरिहंत अराह पुण्य विसाह, लीजई लाहउ भवतणउ ॥१ पुवुत्तर देसिहि जिणवराण, जम्मण वय नाणह मक्ख ठाण ।
धुरि विणीय अपावा कुड गाम, अट्ठावयः सम्मेतिहिं नमामि ॥२ अन्त-जिणधम्मसूरि वयणिहिं वियाणी, जिणहरिहि कलस जिम
प्रचल झाणि । जिण परम जोति हियडइ घरेहु, सम भाव जोगि सिवपद लहेहु ॥१२ इय थुणिय जिणिदा.-.............
......... ॥१३
प्रति-प्रभय.
(१५८) आदीश्वर वीनती गा० १३
आदि-जय जिणदर जग गुरु जय निहाण, जय भवभय भंजणु भुवण
भाण । जय तिहुअण तारण तरण जाण, आदीसर निम्मल जणिय नाण ॥१ अन्त-इय धम्न सूरि वसिहि मुणि हरिकलसिहि, विनविउ जिणवर
इक्कु मणि। मुझ देज्यो ते दिणु भविभवि अणु दिणु, सेवु तुम्ह पय कमल
जिणि ॥१३ प्रति. अभय
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