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अज्ञात
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पंद्रहवीं सदी
सकल लोक-मनि प्रागंदण, पूरउ सूरउ वर तप तेज । भवीयण जण जिम तम्हि चिर नंदज, वंदउ मन नइ हेज ||८
( १०७) प्रज्ञात
(१२६) सुहगुरु चउपई गा० १६
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(१०८) अज्ञात (१२७) श्री गुरुगीतम् गा० ११
प्रादि-गोयम गुरु पय कमल नमेत्रि, समरीय सामिणि सरसति देवि । eिrs घरे वितु निरुमल भाव, गासिउ गुरु मरुया गच्छराय ॥ १ चन्द्रगच्छ भवन्द्रह सूरि, नामि पापि पणासह दूरि ।
प्रसयन क्रमि समरू निसदीस, पहिला सिरि देवभद्द गणीस || २ मन्त - लहूयां लगय जिणि लोधी दोख, मोहराय रहि दीधी सीख ।
जस गुण संख न लाभई पारू, श्री रत्नसागरु सरि वखाणि ॥१५ रतनसंघ सूरि नत जे नमई, माहामत्र वषण ऊचरई । गरूयां सतीरथ सविमनि घरू, भव समुद्र सो लीलां तरई ॥ १६
प्रति० अभय
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प्रति० अभय,
भादि - समरि सुर भावि सरसति ए, सरसति प्रमी रस वरसती ए । गच्छ रथणायर राउ ए गाइसु ए, गाइसु सहगुरु बहु भत्तिई ए ॥१