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मरू-गूर्जर जैन कवि (१०५) उ० मुनिरत्न गणि शि०
(१२४) तपगच्छ गुरु नामावलि गा० ११
आदि-बौर जिणेसर पय कमल, प्रणमीय बहु विह भत्ति ।
तव गच्छ गणहर गुण गहरण, निसणउ एकं चित्ति । धरणीयलि धीरम निलउ, सिरि धनेसर सूरि ।
चरम जिणेसर चित्तपुरे, ठावी साहस धोरि । १ अन्त--ईण अनुक्रमि मुनिरतन गणि, उवज्झराय पण मेसु
यर रयणाधिक पबन्नि कर, महुत्तर पमुह असेस ।। मण तण वयण एकति करी, ज बंदइ नर नारि रिद्धि वृद्धि मगलि विउल, सुह पामइ ते सुविचार ।।११
प्रति अभय
(१०६) अज्ञात (१२५) श्री रत्नसागर सूरि भास गा० ८ पादि-तपगच्छ सिरि सिणगार, जिन शासन आधार ।
गरुउ गणधरू ए, जंगम सुरतरु ए । पागम शास्त्र अपार, जाणई तत्व विचार ।
सुहगरू निरमूल ए ॥२ अन्त-संजम सिरि वर नारिय बोलइ, तोलइ कोइ न दीसह
इस विमासी ए वर विरीउ, भरीउ ज्ञान वरीसइ ॥७
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