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मरू-गूर्जर जैन कवि (१५२) अज्ञात
(१८१) दीपक माई गा०६४ . प्रादि-जिण चउवीसइ चलण नमेवी, दीपक माई कवि व भरणेसो ।
दीपक माई खेलइ रास, नागलपुरि प्रभ प्रणमुइ पास । पास जिणेसर तणइपसाई, बावन (५२) अक्षर बहुयांत्थाई ।
माई दौठु त्रिभुवन सार, अक्षरि-अक्षरि नवउ विचारि ॥२ अन्त-मंगलवीर जिणेसरु नामि, मंगल गोयम सोहम सामि ।
मंगल जंबू सामि उचरू, मंगल सयल संघ विस्तरू ॥६३ मंगल भणतां माहिसिरि, माई पढउ ते पादर करी। पढ़इ गणइं जे सुणइ वचार, भव समुद्र तु पामइ पार ।।६४
प्रति० अभय०.
(१५३) अज्ञात
(१८२) आत्म बोध मातृका गा० ६४ मादि- समरवि सवि अरिहंत मणि, सिव मंगल कर धीर ।
माई बावन: अक्षरह, बोलिसुगुण गंभीर ॥१॥ भले पहिल्ली अक्षरे, धुरि कीजइ सुविचार ।
तिम धुरि धम्मह जीव दया, भमइ जिण संसारि ।२। अन्त-महा. श्री शिव लच्छी तणी, सासत सुखह निधानु इय मंगलिक तीह संपज उ, जीहे जिण धर्मि बहु मानु ।६४
आत्म संबोध मातका (पत्र १ सतरहवीं शती, अभय जैन प्रथालय)
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