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जयमूर्ति गणि
पंद्रहवीं सदी
हव कर जोड़ीय वीनवउ, दीन वयण संभारि ।
क्षमा करेज्यो भवियण, कवियण ए आचारु ||३०
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इति मातृका फाग समाप्त
माई अरथ जे बूझइ, सुझइ ईण संसारि । पाठ दिश्या सवि दहिसिहं ए, लहसिहं सुख नर नारि ॥३१
(१५१) जयमूर्ति गणि (१८०) मातृका गा० ६४
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प्रति० अभय०
आदि-आदि प्रणव समरू सविचार, बीजी माया त्रिभुवनि सार । श्रीमंत भणी जपु निशि दीस, अरिहंत पय नितु नाम सीस ॥ १
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गणहर गरुउ गोयम सामि, अखय निधि हुइ तेहनई नामि । नवनिधान तहं चऊदय रयण, जे नितु समरइ गौतम वय वण ॥२
अन्त - क्षिरता दीस सुरासुर इंद्र, हरिहर ब्रह्मा रवि नइ चंद्र । उत्पतिं विगम करह सवि जंतु, अक्षर एकु अछइ अरिहंतु ||६३ गौतम माइय अविगत हुई, अनुभवि जयमूरति गणि कही । लोकालोकि एहनु व्यापु, यति जाणइ जउ जोइ आपू ||६४
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प्रति• अभय०